सत्ता की चाबी  धर्म और जाति की राजनीति से हो कर निकलती है

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सत्ता की चाबी  धर्म और जाति की राजनीति से हो कर निकलती है

kuldeep shukal | 

चुनाव में आरक्षित सीटें हर राजनीतिक पार्टी के लिए काफ़ी अहम मानी जाती हैं. इसकी वजह है कि पिछले तीन विधानसभा चुनावों में जिस पार्टी ने इन सीटों पर बाज़ी मारी, सरकार उसी पार्टी की बनी.

विधानसभा चुनाव सर पर वही सभी पार्टी अपने अपने उम्मीदवारों की सूचि तैयार कर ली है.इन सीटों के लिए लगभग सभी राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों का एलान भी कर दिया है.

जब से बिहार सरकार ने जाति जनगणना की रिपोर्ट जारी कर दी है। तब से राज्यों में जातिगत जनगणना कराने की मांग उठने लगी है.

बिहार में जातिगत सर्वे के नतीजे आने के बाद इसे लेकर पूरे देश में बहस छिड़ गई है. तमाम राज्यों में जातिगत जनगणना कराने की मांग की जा रही है. उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र में भी जातिगत सर्वे की मांग तेज हो गई है. वहीं, कर्नाटक में 2015 में हुई जातिगत जनगणना के नतीजों को सार्वजनिक करने की मांग उठने लगी है.

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने कहा, बिहार जाति आधारित जनगणना प्रकाशित, ये है सामाजिक न्याय का गणतीय आधार. छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में नगरीय निकाय एवं पंचायती राज महासम्मेलन में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने जातीय जनगणना को लेकर सियासी दांव चला है। उन्होंने रैली को संबोधित करते हुए कहा कि प्रदेश में सत्ता वापसी पर कांग्रेस बिहार की तरह छत्तीसगढ़ में जातीय जनगणना कराएगी.

धर्म और जाति की राजनीति भारत में कितनी पुरानी

धर्म और जाति की राजनीति भारत में कितनी पुरानी है, यह सही-सही बता पाना बेहद मुश्किल है. दक्षिण एशिया के इस हिस्से में ईसा से भी सैकड़ों साल पहले जब जातियां बनीं, तभी से उनमें वर्चस्व बनाए रखने की राजनीति शुरू हुई. यह बताने की जरूरत नहीं कि उस राजनीति में कौन जीता और कौन हाशिए पर चला गया. जब इस क्षेत्र में अन्य धर्मों की दस्तक हुई तो धर्म के नाम पर लोगों और समुदायों को संगठित करने की राजनीति भी शुरू हुई.

विश्लेषक यह मानते हैं कि हम भारतीयों का एक बड़ा वर्ग अपने समुदाय या जाति को वोट देने में ज्यादा रुचि रखता है.  इनमें भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय रामराज्य परिषद, हिंदू महासभा खुद को हिंदू नेशनलिस्ट पार्टी बता रहे थे और हिंदू अधिकारों की बात कर रहे थे. इसी तरह इंडियन मुसलिम लीग मुसलमानों तथा पंजाब में शिरोमणि अकाली दल सिख अधिकारों की राजनीति कर रहा था. तमिलनाडु में वनियार जाति के वोटों पर तमिलनाडु टोयलर्स पार्टी की नजर थी. दलितों को एकजुट और संगठित करने के लिए बी.आर. आंबेडकर की शेड्‍यूल कास्ट्स फेडरेशन भी चुनाव मैदान में थी. दक्षिण में जस्टिस पार्टी द्रविड़ों को लुभाने की कोशिश कर रही थी. इसी तरह पंजाब में डिप्रेस्ड क्लास लीग बन गई थी. पूर्वोत्तर में खासी और जेंतिया जनजातीय समुदाय को लुभाने के लिए खासी-जेंतिया दरबार के रूप में एक अलग राजनीतिक पार्टी शक्ल ले चुकी थी. कुकी समुदाय के लिए कुकी नेशनल एसोसिएशन नामक पार्टी मैदान में थी. कांग्रेस के बाद अकाली दल देश की दूसरी सबसे पुरानी पार्टी है.

धर्मनिरपेक्षता के तमगे के साथ सही, राष्ट्रीय स्तर पर धर्म की राजनीति का सबसे सफल उदाहरण भारतीय जनता पार्टी है. इसके लिए उसने जनसंघ की स्थापना से लेकर जनता पार्टी से होते हुए भारतीय जनता पार्टी बनने तक लंबा सफर तय किया है. क्षेत्रीय दलों में धर्म की राजनीति में सफल रहने वाली पार्टियों में शिवसेना का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है.

इसी तरह ए.आई.एम.आई.एम. के असदुद्दीन ओवैसी मुसलिम समाज की राजनीति का एक सफल होता चेहरा बनकर उभरे. वैसे तो ए.आई.एम.आई.एम. यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन की जड़ें काफी पुरानी हैं.

दूसरी ओर जाति और समुदाय की राजनीति करने वाली पार्टियों में कई सफल उदाहरण हैं. जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं तो इसने पिछड़ा वर्ग मानी गई जातियों में बड़ा ध्रुवीकरण किया और कई राजनीतिक दल सामने आए. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और बिहार में लालू प्रसाद यादव यादवों के बड़े नेता बनकर उभरे. नीतीश कुमार कुर्मियों के नेता बने. समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड की सफलता की गाथा किसी से छुपी नहीं है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में चौधरी चरण सिंह और देवीलाल, जो किसान राजनीति करते रहे, वह असल में जाट समुदाय की ही राजनीति थी.

कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी पूरे उत्तर भारत में दलित राजनीति का एक प्रमुख चेहरा बनी. दक्षिण में सिर्फ द्रमुक और अन्नाद्रमुक ही नहीं, एस. रामदौस की पट्टली मक्कल काची (एस. रामदास) की राजनीतिक जमीन भी दक्षिण के पिछड़ा वर्ग समझे जानेवाले वनियार समुदाय को जोड़कर तैयार की गई.

तमिलनाडु के वनियार की तरह ही कर्नाटक में वोक्कालिगा समुदाय को बड़ी राजनीतिक ताकत माना जाता है. कांग्रेस हो या भाजपा, सत्ता की सीढ़ी इसी समुदाय के समर्थन से होकर जाती है.

राज्यों की राजनीति में धर्म और जाति की राजनीति का इधर बोलबाला बढ़ा है, खासतौर से उत्तर बिहार में. उत्तर प्रदेश, जहां पहले मुसलमानों को लेकर ही ज्यादा पार्टियां बनने का दौर रहा, वहां अब छोटी-छोटी जातियों के भी नेताओं ने अपने दलों की घोषणा करने में कोई कोताही नहीं की. अल्पसंख्यकों के लिए पीस पार्टी जैसे दल बने तो निषादों के लिए निषाद पार्टी और राजभरों के लिए ओ.पी. राजभर ने अलग पार्टी बना ली. राजभरों के लिए तो यू.पी. में दो दल बन गए. कुर्मी और भूमिहारों के लिए अलग कोशिशें हुईं. उत्तर प्रदेश के चुनावों में अकेले भले ही इनकी भूमिका ज्यादा नजर नहीं आती, पर प्रमुख दलों के साथ गठजोड़ की स्थिति इनकी बेहतर ही है.

(वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अकु श्रीवास्तव की किताब ‘सेंसेक्स क्षेत्रीय दलों का’ का कुछ अंस इस सम्पादकीय में लिया गया है .)

भारत में राजनीति सत्ता की चाबी  धर्म और जाति की राजनीति से हो कर निकलती है जो बहुत पुरानी है.सत्ता की चाहत में राजनितिक दलों ने लोगों बाटने का काम करता रहा है.

 

 

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