जन्म और कर्म एक दूसरे की पर्यायवाची शब्द है मृत्यु कर्म की समाप्ति है…श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी )

 

श्रीमती कल्पना शुक्ला

परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी ) प्रयागराज ने आज कर्म किस प्रकार करना चाहिए? कर्ता और अकर्ता किसको कहते है ? इसका अर्थ गीता के माध्यम से यह बताएं कि मनुष्य को कर्म करना पड़ता है , जन्म लेने के बाद सांस लेना भी कर्म होता है,मनुष्य कर्म करना प्रारंभ कर देता है ,जोगी, रंक ,फकीर सभी कर्म करते हैं ,और जो भी कर्म करते हैं उसका एक फल की आकांक्षा भी करते हैं, मतलब खाते हैं पानी पीते हैं तो उम्मीद करते हैं प्यास बुझाने की ।

इसी प्रकार जो उम्मीद होता है वह कर्तापन का बोध होता है, जब कर्म करें और किसी भी प्रकार की उम्मीद ना हो तो वह अकर्ता हो जाता है। किसी भी प्रकार के फल की उम्मीद ना करना अकर्ता पन होता है आकांक्षा से मुक्त हो जाना । भगवान कहते हैं कि हम कर्ता होते हुए भी अकर्ता रहते हैं इसलिए हमें कर्म का बंधन नहीं होता है । क्या कर रहे है? यह महत्वपूर्ण नहीं होता है करने वाले है कौन ? यह महत्वपूर्ण है, जब स्वयं को करने वाले मानकर हम कर्म करते हैं तब कर्म का बंधन होगा ।

लेकिन कर्ता का मतलब यह नहीं होता कि सब कुछ करने वाला ही हैं और अकर्ता का मतलब यह नहीं होता कि कुछ ना करने वाला । कुछ करके अदृश्य हो जाना । जैसे – यमुना नदी बहती है और वह शांत रहती है नदी यह संकेत देती है, स्वयं को दिखावा ना करना और कार्य करना । वह यमुनोत्री से बहते हुए प्रयागराज में आती है लेकिन कहीं दिखाई नहीं देती चलते हुए दिखाई नहीं देती शांत रहती है , दिखावा ना करना । कर्ता पर कर्म का प्रभाव दिखाई ना दे ।

लेकिन कर्म हो कर्म करने वाला लुप्त हो जाए । वह आकर भक्ति में मिल जाती है भक्ति और ज्ञान के साथ गंगा सागर में मिलती है अर्थात गंगा और सरस्वती में मिलकर भक्ति से संबंध रखती हैं स्वयं भी पवित्र हो जाती हैं और साथ जो भी आते हैं वह भी पवित्र हो जाता है । यह संकेत देती है यदि अकेले जाती तो उसे कर्म करने का अभिमान हो जाता कर्तापन का बोध हो जाता लेकिन जब गंगा और सरस्वती के साथ जाती है तो उसे कर्तापन का बोध नहीं होता है भगवान कहते हैं कि प्रकृति में तीन गुण के अनुसार

*चतुर्वर्ण माया सृष्टि गुण कर्म विभाग सः* ..

मेरे द्वारा बनाया गया है प्रत्येक इस व्यवस्था के कर्ता होने के बाद भी मैं अकर्ता हूं , उन चारों वर्णों से मुझे कोई कर्म फल की आकांक्षा नहीं है ,मै कर्ता हूं मुझे कर्मों की फल की कामना नहीं रहती ना ही कर्म का बंधन मुझे बांध पाता है ,मुक्त होते हैं और मुक्त करते भी हैं । मुक्त होते हुए अकर्ता है, हमेशा श्रेय दूसरों को दे देते हैं । हम सब पढ़ लिए, सुन लिए, जान नहीं पाए जो अनुभूति है वह जानना होता है । अपने को कभी श्रेय ना लेना , भगवान सब कुछ जानते हैं भगवान फल देते हैं । अपने नाम को कभी आगे ना लाना ,कर्ता होते हुए भी अकर्ता बन जाना । अर्जुन कहते हैं कि मैं नहीं मारूंगा , भगवान कहते कि तुम मारने वाले होते कौन हो ? तुम तीर चलाओ जन्म और मृत्यु तो हमारे हाथ में हैं। लीन होकर कर्म करना ,फल भगवान के हाथ में होता है ।

जब बर्बरीक से महाभारत के युद्ध के बाद पूछे जाते हैं कि सबसे अधिक चोट किसको होता है? तो जवाब देते कृष्ण । सबसे अधिक तीर किस को लगता है ?कृष्ण, सबसे अधिक कौन रोते हैं? कृष्ण । भगवान ही सब कुछ करते हैं लेकिन हमेशा श्रेय दूसरों को देते हैं और स्वयं अकर्ता बन जाते हैं हम सबको अकर्ता बनकर कार्य करना चाहिए , कर्तापन की भावना कभी नहीं होना चाहिए इससे हम अहंकार से मुक्त होते हैं और फल भगवान देते हैं वही कार्य सफल भी होता है ।

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