यदि दैत्य को समाप्त करना है तो मनुष्यता चाहिए….पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी

गुरु वाणी,

परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरूजी) ने सुंदरकांड की कथा के माध्यम से यह बताएं कि प्रत्येक मनुष्य में दैत्य प्रवृत्ति और देव प्रवृत्ति दोनों विद्यमान रहती है लेकिन रामचरितमानस के माध्यम से रावण ने यह संदेश दिया कि यदि अपने अंदर की दैत्य को समाप्त करना है तो उसके लिए मनुष्यता चाहिए क्योंकि आज कोई भी मनुष्य में मनुष्यता नहीं है सब में असुर प्रवृत्ति है रावण को दैत्य के रूप में ना देखकर वृत्ति के रूप में देखने से यह पता चलता है मनुष्य का मनुष्यता ही दैत्य को समाप्त कर सकता है। मनुष्य में मनुष्यता नहीं होती दैत्य की प्रवृत्ति होती है दैत्य जीवित रहती हैं मनुष्यता की प्रवृत्ति ही दैत्य को समाप्त कर सकती है ,भगवान विष्णु से सभी देवताओं ने प्रार्थना किए कि आप मनुष्य के रूप में अवतरित हो जाइए आपने मनुष्यता रहेगी ।

ढोल ,गवार ,शुद्र ,पशु ,नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी:
इस चौपाई की व्याख्या करते हुए परम पूज्य गुरुदेव ने यह बताएं कि आज समाज में इसका अर्थ गलत लेते हैं और नारी को हीन भावना से देखा जाता है अपितु इसका अर्थ है यह नहीं होता यह सब शिक्षा के अधिकारी होते हैं ताड़ना अर्थात समझ लेना , ढोल को वहीं बजा सकता है जो उसको समझ सकता है, उसी तरह गवार अर्थात भोला -भाला, उसको भी समझ कर समझाया जा सकता है, शुद्र अर्थात जाति से नही अपितु अपने से छोटा , उसको भी समझाया जाता है, पशु को भी समझ कर कार्य व्यवहार किया जाता है और नारी जो अपने घर छोड़कर दूसरे घर में आती है उसको भी उनकी संस्कृति को अपनाना और अपनी संस्कृति को सिखाना । रक्ष संस्कृति से आर्य संस्कृति स्थापित करना , भगवान राम ने पूल के माध्यम से यह बताएं बीच में द्रविण होता है, संस्कृति को जोड़ना साथ में भगवान ने नारियों की प्रशंसा की ।

यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता: जहां नारियों की सम्मान होती है भगवान वही निवास करते हैं,
हमारे देश में भारत को माँ कहा गया, धरती को माँ कहा गया, प्रकृति को माँ कहा गया ,सनातन संस्कृति में माँ ही कहा गया , परमात्मा को भी हम प्रणाम करते हैं तो सर्वप्रथम यही कहते है l

त्वमेव माता च पिता त्वमेव: माँ शब्द पहले बोलते है , मां को पूज्य माना गया ,मां को प्रधानता दी गई ,नारी की हमेशा प्रशंसा की गई सम्मान किया गया । पुरुष का मकान बनाते हैं लेकिन उसको अपनी भावनाओं से सजा कर घर नारी ही बनाती है । नल और नील की कथा के माध्यम से गुरु जी ने यहां बताया कि एक ज्ञान है दूसरा वैराग्य।
पत्थर अर्थात पत्थर कर्म होता है,लेकिन मनुष्य में यह एक मोह दूसरा अभिमान और पत्थर कर्म होता है कोई भी कर्म मनुष्य को बर्बाद भी कर देता है और आबाद भी कर देता है यदि कर्म भक्ति के साथ जुड़ जाए तो वह सार्थक हो जाता है पत्थर जिसको हम ऊपर उछाल देते हैं तो वह नीचे ही आता है अभिमान हमेशा नीचे गिर जाता है,और यदि कर्म में किसी महापुरुष का हाथ हो उसका दिशा निर्देश पर हो वह सार्थक हो जाता है , यमुना मैया भी बहते- बहते जब भक्ति में गंगा मैया में मिल जाती है तो वह सार्थक हो जाती है ।जब कर्म अभिमान पूर्वक किया जाता है वह मिट्टी में ही मिल जाता है अर्थात नीचे ही गिर जाता है ।

नल और नील एक ज्ञान एक वैराग्य: बताया गया कर्म की सार्थकता हो तो वह संसार सागर में डूबता नहीं वह पार करा देता है पूल बन जाता है, जब ज्ञान और वैराग्य का बोध हो जाए तब कर्म सार्थक हो जाता है। नल और नील को बाल्यावस्था से वरदान पा जाना अर्थात बाल्यावस्था का बोध होना सरल होना । किशोरावस्था में भी सरल रहना तब ऋषि मुनि गुरु आशीर्वाद देते हैं और उसमें यदि परमात्मा का हाथ हो वह कर्म सार्थक हो जाता है ।

तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे…
जिनको आप स्पर्श कर दे वह डूबता नहीं अपितु लोगों को पार कर देता है ज्ञान वैराग्य और प्रभु की कृपा से ही फूल बन जाना संभव होता है ।

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