नारी तेरे रूप अनेक – ‘अमृतांसु शुक्ला’

साहित्य,
जाने कैसे इतने किरदार निभाती हो,
पूरी शिद्दत से सभी को कैसे पूरा कर पाती हो।
कभी तो बेटी बन आंगन सबका महकाती हो,
कभी बहन बन विश्वास का धागा हाथों में बांध जाती हो।
कभी बहु बनकर दो कुल का मान बढ़ाती हो,
रीति, रिवाजों और परंपराओं का बोझ उठाती हो।
कभी दोस्त बनकर तुम सबको जीना सिखाती हो,
दर्द बांट लेती हो सारे, जीवन अच्छा कर जाती हो।
कभी जीवनसंगिनी बन अपना हाथ बंटाती हो,
घर की परेशानियाँ लेकर भी मुस्कुराती हो।
माँ बनकर तो तुम देवतुल्य हो जाती हो,
सृष्टि की सृजना बन कितनी पीड़ा सह जाती हो।
तपती हो खुद धूप में लेकिन,
बच्चों को आँचल की छावं में ही सुलाती हो।
तुम्हारी महिमा का गान शब्दों में फिर क्या होगा,
तुम अपने पे आ जाओ तो ब्रह्मा, विष्णु , महेश को गोद मे अपने खिलाती हो।।
-: अमृतांसु शुक्ला
   रायपुर (छ.ग) 

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