साहित्य,
नफरत का हर एक लब्ज़ मिटा दो अपनी ज़बान से,
वरना लाश ही निकलेगी हर किसी के मकान से।
जिसे देखो सब नकाब लगाए फिरते हैं यहाँ,
हर कोई दहशत में है अपनी-अपनी पहचान से।
कभी हम सब मिलकर खेला करते थे इन गलियों में,
अब हाल ये है के सारी सड़कें हो गईं हैं सुनसान से।
जिसने मुखौटों में छुपा रखे हैं चेहरे शोहरत के लिए,
दुनिया से क्या, खुद से भी हो रहे हैं अनजान से।
कुछ ऐसे मजहबी पताका लिये घूम रहे शहर में,
जिनका कभी वास्ता ही नहीं रहा इंसान से।
हम देख रहे,जिस-जिस ने फूल उजाड़े थे गुलदान के ,
आज उन्हीं के घर हो रहे हैं कुछ वीरान से।
राह हम भी चले थे कभी बहकावे में आकर,
हमें नफ़रत सी हो रही अपने कदमों के निशान से।
अब हमें अपनों और परायों की पहचान हो गयी है,’बल’
चल तू कह दे हिन्दू से, मैं कह दूँ मुसलमान से।।
-: बल्लू-बल