उत्तर–पूर्व की बारूद में ‘हिन्दुत्व’ की माचिस

manipur
'Hindutva' is the matchstick in the gunpowder of the North-East

आलेख | मणिपुर को जलते हुए इन पंक्तियों के लिखे जाने तक छह हफ्ते हो चुके हैं। पर हैरानी की बात नहीं है कि शाह का चार दिनी दौरा भी भाजपाई मुख्यमंत्री के नेतृत्व में प्रशासन पर आम जनता का, खास तौर पर आदिवासी अल्पसंख्यकों‚ जो मुख्यमंत्री तथा पुलिस और अन्य रक्षा बलों पर बहुसंख्यक मेइती अतिवादियों को संरक्षण देने का आरोप लगाते रहे हैं‚ का भरोसा जमाने में नाकाम रहा। ये आरोप निराधार भी नहीं हैं‚ जिसका सबूत मुख्यमंत्री का कुकी आदिवासियों को ‘आतंकवादी’ से लेकर ‘विदेशी म्यांमारवासी’ तक करार देना है।

यह दूसरी बात है कि मणिपुर में ही खुद मोदी–शाह की भाजपा‚ एथनिक विभाजन के दूसरी ओर‚ विशेष रूप से कुकी उग्रपंथियों के भी सिर पर हाथ रखे रहे हैं‚ ताकि सत्ता तक पहुंंचने के लिए उनसे मदद हासिल कर सकें। एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार‚ केंद्र सरकार के साथ सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशन यानी शस्त्र विराम समझौते पर दस्तखत करने वाले संगठन यूनाइटेड कुकी लिबरेशन फ्रंट और यूनाइटेड पीपुल्स फ्रंट के शीर्ष नेताओं ने 2019 में गृह मंत्री अमित शाह को चिट्ठी लिखकर उन्हें याद दिलाया था कि 2017 विधानसभा चुनाव में और फिर 2019 के आम चुनाव में भी उन्होंने आरएसएस द्वारा भाजपा में भेजे गए भारी–भरकम नेता राम माधव तथा उत्तर–पूर्व में भाजपा के संकटमोचक हिमंता बिस्व सर्मा के वादे पर सत्ताधारी पार्टी को जितवाया था। यह चिट्ठी एनआईए अदालत में यूकेएलएफ मुखिया के खिलाफ चल रही सुनवाई के क्रम में पेश किए गए दस्तावेज में शामिल है।

जाहिर है कि हिंसा का यह विस्फोट कोई एकाएक ही नहीं हो गया है। वास्तव में मणिपुर उत्तर–पूर्व के अन्य ज्यादातर राज्यों की ही तरह विभिन्न जातीयताओं–एथनिक समूहों — का गट्ठर रहा है। इन समूहों के बीच भी संवाद का कम और विवाद का रिश्ता ही ज्यादा रहा है। फिर भी 1980 के दशक तक‚ जब पूरे मणिपुर को अशांत क्षेत्र घोषित कर अफस्पा लगाया गया था‚ मणिपुर में बसे विभिन्न समुदायों के बीच आपस में ज्यादा तीखा टकराव नहीं था। उल्टे उनका साझा विरोध देश की केंद्रीय सत्ता से ही था। बहरहाल‚ 2017 के विधानसभाई चुनाव में कांग्रेस से कम सीटें पाने के बावजूद जब जोड़–तोड़ और खरीद–फरोख्त से भाजपा की सरकार बन गई, तो उसके बाद से तो इस संवेदनशील राज्य‚ जो असम को छोड़कर उत्तर–पूर्व का अकेला राज्य है, जहां मेइती समुदाय को संघ–भाजपा की हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिकता की दुहाई से प्रभावित किया जा सकता था और उन्हें एकजुट किया जा रहा है। इसी क्रम में एक ओर तो बहुसंख्यक मेइती समुदाय के लिए और खास तौर पर उसके धर्म तथा संस्कृति के लिए ईसाई और वास्तव में गैर–ईसाई आदिवासियों को भी ‘खतरा’ बताकर मेइती युवाओं को बजरंग दल आदि के तुल्य उग्र‚ हमलावर संगठनों में संगठित किया जा रहा था और दूसरी ओर‚ घाटी में बसे अपेक्षाकृत संपन्न व बेहतर सुविधाएं पा रहे मेइती समुदाय के मध्य वर्ग‚ जिसके पक्ष में तरक्की के अवसरों के असंतुलन को भाजपा के राज ने और भी तेजी से बढ़ाया था‚ को समझाया जा रहा था कि राज्य में जमीनों के नियंत्रण का संतुलन उनके प्रति अन्यायपूर्ण है‚ और उनकी आगे की तरक्की के लिए इस संतुलन को बदलना जरूरी है।

जब मणिपुर हाई कोर्ट ने बहुसंख्यकों के आग्रहों को ही प्रतिबिंबित करते हुए 24 अप्रैल को राज्य सरकार को एक प्रकार से इसका निर्देश ही दे दिया कि मेइती समुदाय को अनूसूचित जनजाति का दर्जा देने के लिए केंद्र सरकार को सिफारिश भेजे, तो लगातार बढ़ाए जा रहे तनावों और जाहिर है कि दोनों ओर से उग्र से उग्रतर होती गोलबंदियों ने अचानक टकराव को विस्फोटक बिंदु तक पहुंचा दिया। निर्देश के खिलाफ 3 मई की विशाल विरोध रैली और रैली पर दूसरी ओर से हुए हमलों और फिर जवाबी हमलों तक का रास्ता ज्यादा लंबा नहीं था। बहुसंख्यक उग्र दस्तों द्वारा बड़े पैमाने पर पुलिस और रक्षा बलों के शस्त्रागारों के लूटे जाने ने मेइती प्रधान सरकार के प्रति आदिवासियों के अविश्वास को और बढ़ा दिया।

बेशक‚ सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर हाई कोर्ट के निर्णय को सख्ती से खारिज कर के आदिवासी अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को कुछ कम किया है और उन्हें इसका भरोसा दिलाया है कि वर्तमान भारतीय व्यवस्था में उनकी बात भी कहीं सुनी जाएगी। लेकिन‚ इसके बावजूद कि आदिवासी अल्पसंख्यकों के अविश्वास के केंद्र में भाजपाई मुख्यमंत्री तथा उनका पुलिस व रक्षा बल हैं; मोदी–शाह की केंद्र सरकार उन्हें न्याय का भरोसा नहीं दिला पाई है। इसी का सबूत है कि दिल्ली में लौटने के बाद अमित शाह ने जिस शांति समिति का गठन करने की घोषणा की थी‚ उसकी अध्यक्षता राज्यपाल अनुसुइया उइके को सौंपे जाने के बावजूद कुकी समुदाय के ज्यादातर प्रतिनिधियों ने उसमें मुख्यमंत्री बीरेन सिंह और उसके समर्थकों के रहते हुए शामिल होेने से इंकार ही कर दिया। हालांकि‚ मेइती समुदाय ने इस कमेटी का स्वागत किया है‚ लेकिन एक सर्वपक्षीय प्रयास के रूप में इसकी वैधता और उपयोगिता तो शुरुआत में ही खंडित हो गई है।

इन हालात में मणिपुर में जल्द शांति लौटने के तो कोई आसार नहीं है। फिलहाल जो हालात हैं‚ उनका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सर्मा ने 2008 में केंद्र व राज्य सरकार के साथ सस्पेंशन ऑफ आपरेशंस समझौते पर दस्तखत करने वाले कुकी मिलिटेंट ग्रुपों के साथ रविवार‚ 11 जून को हुई बातचीत में उनके सामने केंद्र की ओर से शांति योजना की पेशकश की। वादा किया गया है कि कुकी और मेइती आबादियों के बीच के ‘बफर जोनों’ या पहाड़ की तलहटी के इलाकों में सशस्त्र पुलिस बल तैनात कर दिए जाएंगे। फिर भी खतरा इसका है कि मोदी–शाह की सरकार अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने की बजाय उनके दमन और बहुसंख्यक समुदाय के अनुमोदन के रास्ते सैन्य बल के जरिए ही मणिपुर में शांति की बहाली दिखाने की कोशिश कर सकती है‚ जैसा कि वह तीन साल से ज्यादा से जम्मू–कश्मीर में कर रही है।

(राजेन्द्र शर्मा लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं। ‘लेख़क के अपने विचार है. इसके कंटेंट के लिए हिन्द मित्र जिम्मेदार नहीं है.)

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