जन्मदिन विशेष : मैं हिंदुओं और मुसलमानों को बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन चोटी और दाढ़ी वालों को नहीं: नज़रूल इस्लाम

kaji
Birthday Special: I can tolerate Hindus and Muslims, but not those with braids and beards: Nazrul Islam

साहित्य/उपेंद्र चौधरी

सोचा जा सकता है कि बंटवारे के समय बंगाल में हुई हिंसा और तबाही की क्या प्रकृति रही होगी कि गांधी को पंजाब की तरफ़ नहीं, बंगाल के नोआखाली की ओर भागना पड़ा होगा। यह ट्रेज़डी दोनों तरफ़ की आज़ादी के जश्न के बीच जारी थी। एक तरफ़, भीषण हिंसा, लूट और बलात्कार की घटनायें अपने चरम पर थी, दूसरी तरफ़ नये-नये बने दो देशों में आज़ादी के तराने और राष्ट्रगीत गाये जा रहे थे। मगर, इन सबके बीच बांग्ला का एक विद्रोही कवि हैरत से सबकुछ देखे जा रहा था।

आज़ादी मिलने से ठीक पचीस साल पहले इस कवि ने अपने छोटे से लेख में धर्म के मायने समझाये थे। कृष्ण, ईसा और पैग़म्बर होने के मतलब समझाये थे। 2 सितंबर, 1922 को बंगाली मैगज़ीन ‘गनबानी’ में उनका एक आर्टिकल छपा था और उस आर्टिकल का शीर्षक था-‘हिंदू मुसलमान’। हिंदू-मुसलमान के बीच के रूढ़िवाद पर प्रहार करते हुए उस विद्रोही कवि ने लिखा था:

“मैं हिंदुओं और मुसलमानों को बर्दाश्त कर सकता हूं, लेकिन चोटी वालों और दाढ़ी वालों को नहीं। चोटी हिंदुत्व नहीं है। दाढ़ी इस्लाम नहीं है। चोटी पंडित की निशानी है। दाढ़ी मुल्ला की पहचान है। ये जो एक दूसरे के बाल नोचे जा रहे हैं, ये उन कुछ बालों की मेहरबानी है, जो इन चोटियों और दाढ़ियों में लगे हैं। ये जो लड़ाई है वो पंडित और मुल्ला के बीच की है। हिंदू और मुसलमान के बीच की नहीं। किसी पैगंबर ने नहीं कहा कि मैं सिर्फ मुसलमान के लिए आया हूं, या हिंदू के लिए या ईसाई के लिए आया हूं। उन्होंने कहा, “मैं सारी मानवता के लिए आया हूं, उजाले की तरह।” लेकिन कृष्ण के भक्त कहते हैं, कृष्ण हिंदुओं के हैं। मुहम्मद के अनुयायी बताते हैं, मुहम्मद सिर्फ मुसलमानों के लिए हैं। इसी तरह ईसा मसीह पर ईसाई हक़ जमाते हैं। कृष्ण-मुहम्मद-ईसा मसीह को राष्ट्रीय संपत्ति बना दिया है। यही सब समस्याओं की जड़ है। लोग उजाले के लिए नहीं शोर मचा रहे, बल्कि मालिकाना हक़ पर लड़ रहे हैं।”

यह कवि नज़रूल इस्लाम थे। नज़रूल की बग़ावत के मुरीद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी थे और यही वजह है कि गुरुदेव ने अपना नाटक “बसंता” नज़रूल के नाम समर्पित कर दिया। नज़रूल के विद्रोही तेवर ख़ुद की शादी से भी परवान चढ़ा। आर्य समाजी प्रमिला से शादी की, तो मुल्लों और उलेमाओं ने फ़रमान सुनाया कि प्रमिला को कलमा पढ़ाओं, उसे मुसलमान बनाओ। नज़रूल का फ़रमान था-उलेमाओं, यहां से दफ़ा हो जाओ। नज़रूल भेष-भूषा से नहीं, इस्लाम के मूल्यों से मुसलमान रहे और प्रमिला ताज़िंदगी हिंदू रहीं।

नज़रुल की कविताओं में रहस्यवाद और आध्यात्मिकता नहीं, बल्कि उन्हें दुरुस्त करने की कोशिश है। उन्होंने ग़रीबी को कई कोनों से दिखाया है। उनके लिए निर्धनता सिर्फ़ धन की नहीं होती, उनके लिए निर्धनता का मतलब व्यापक था। वह जुनून, भावनाओं और सार्वभौमिक और व्यावहारिक नहीं होने की स्थिति को भी निर्धनता मानते थे।

नज़रूल का अल्लाह, सिर्फ़ मुसलमानों का अल्लाह नहीं है। वह अल्लाह की पारंपरिक सोच के ख़िलाफ़ बग़ावत करते हुए कहते हैं कि उल्लाह, यानी ऊपर वाला सिर्फ़ रब्ब उल-मुस्लिमीन नहीं है, यानी सिर्फ़ मुसलमानों का ईश्वर नहीं है। वह तो रब्ब-उल-आलमीन है, यानी वह सूंपूर्ण ब्रह्मांड का ईश्वर है। ईश्वर के बारे में अपने विचार रखते हुए उन्होंने कहा था कि ईश्वर उनके लिए महज़ एक विचार है, यह विचार एक सार्वभौमिक रहस्यवाद तक ले जाने वाला विचार है। वे हमेशा इस विचार के संशोधन और व्यावहारिक बनाने के क़ायल रहे।

नज़रूल ने ख़ूब पढ़ा। अंग्रेज़ों के ज़ुल्म पढ़े, बग़ावत के औचित्य पढ़े। उर्दू, फ़ारसी, अरबी, क़ुरान पढ़ी। हिंदी, संस्कृत और पुराण भी पढ़ी। मस्जिद में नमाज़ पढ़वाने का काम किया, यानी मुअज़्ज़िन भी बने, तो बाहरी हुक़ूमत से मुक्ति के गान लिखे, कृष्ण के गीत भी रचे। उनका यक़ीन इस्लाम के मौलिक मूल्यों में था, जो इस बात की बख़ूबी इजाज़त देते थे कि रब के नाम बदल जाने से इस्लाम बदनाम नहीं होता:

अगर तुम राधा होते श्याम।

मेरी तरह बस आठों पहर तुम,

रटते श्याम का नाम।।

वन-फूल की माला निराली

वन जाति नागन काली

कृष्ण प्रेम की भीख मांगने

आते लाख जनम।

तुम, आते इस बृजधाम।।

चुपके चुपके तुमरे हिरदय में

बसता बंसीवाला;
और, धीरे धारे उसकी धुन से
बढ़ती मन की ज्वाला।

पनघट में नैन बिछाए तुम,

रहते आस लगाए
और, काले के संग प्रीत लगाकर
हो जाते बदनाम।।

(उपेंद्र चौधरी वरिष्ठ पत्रकार और डॉक्यूमेंटरी निर्माता हैं।)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here