सनातन संस्कृति के पीछे समर्पित होकर कार्य करने से उस पुण्य का कभी क्षय नहीं होता-श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी)

आज पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने अक्षय तृतीया का महत्व एवम के विषय मे यह बताएं कि अक्षय अर्थात कभी क्षय ना होना , वह दान पुण्य और सत्कर्म जिसका कभी क्षय नहीं होता और बढ़ते जाता है। अनवरत रहती है। आज के दिन किया गया सत्कर्म का क्षय नहीं होता है ।अक्षय तृतीया एक युगांतर तिथि है, उसका कभी क्षय होता है, और भगवान परशुराम हर युग में ऐसे ही अवतार लेते हैं कभी उनका कधय नहीं होता उनके धर्म का ,उनके कर्मों का शिष्टाचार का उनके समर्पण भावना का कभी क्षय नही होता।इस प्रकार से सभी कार्यो में उनकी भूमिका रही जो आज भी अनवरत अक्षय फल दे रही है
परशुराम जी ने गलत का विरोध किया, कुप्रवृत्तियों का भी सदुपयोग करना सिखाए, क्रोध का भी सदुपयोग करना बताएं परशुराम जी ने । राजा जनक की सभा में जब सभी राजा भगवान राम से युद्ध करने के लिए तैयार थे उस समय परशुराम जी का आगमन होता है और उस समय परशुराम जी के क्रोध को देख सभी राजा महाराजा चुपचाप वहां से चले जाते हैं, इस तरह भगवान राम को सब लोग साधारण मनुष्य समझ रहे थे उसको परशुराम जी ने बताया कि वह स्वयं नारायण है । परशुराम जी ने भगवान राम को सत्ता सौंपकर समाधि में लीन हुए। अनवरत चल रही सत्कर्म का अक्षय ही फल दे रही है , कभी क्षय नहीं होना इन्हीं के कार्य को भगवान ने आगे बढ़ाया तरीके अलग है । कार्य वही था ।
भगवान के 52 अवतार , इसके अलावा दशावतार 21 सबको उतना ही श्रद्धा पूर्वक देखना सनातन धर्म के प्रति समर्पित होकर कार्य करना भगवान परशुराम ने हमेशा धर्म के लिए कार्य किए ।

भगवान परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) में एक ब्राह्मण ऋषि के यहां जन्मे थे। जो भगवान विष्णु केछठा अवतार हैं । पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को जानापाव पर्वत में हुआ। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार हैं। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। वे जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी  द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से शार्ङ्ग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

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