Patrakarita: हिंदी पत्रकारिता का उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए

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Current Affairs | Patrakarita: हिंदी पत्रकारिता का उद्भव और विकास पर प्रकाश डालिए,

हिंदी पत्रकारिता का विकास

हिंदी पत्रकारिता में सर्वप्रथम प्रकाशित हिंदी समाचार पत्र के रूप में उदंत मार्तंड का नाम सर्वमान्य है। परंतु वेद प्रताप वैदिक द्वारा संपादित हिंदी पत्रकारिता विविध आहम नामक पुस्तक में प्रकाशित जानकारी में डॉक्टर महादेव साहा में दिग्दर्शन को हिंदी का प्रथम पत्र घोषित किया है।

उनकी यही मान्यता 1959 और 1960 के राष्ट्रीय भारती और सरस्वती के अगस्त एवं जनवरी के अंकों में प्रकाशित हुई है। इस जानकारी के अनुसार अप्रैल 1818 से मार्च 1819 में श्रीरामपुर बंगाल मिशनरियों ने दिग्दर्शन नाम का एक मासिक समाचार पत्र निकाला जिसके संपादक जॉन क्लर्क मार्सकमेन इस दौरान इस पत्रिका के हिंदी में कुल 16 अंक निकले बाद में इसे अंग्रेजी और बंगला में भी प्रकाशित किया गया इस तरह दिग्दर्शन बंगला तथा हिंदी दोनों ही भाषाओं का पहला समाचार पत्र माना जा सकता है।

एक अन्य विद्वान जोगेंद्र सक्सेना के अनुसार 1818 से 1820 तक दरबार रोजनामचा दैनिक नामक एक अखबार निकला करता था। अखबार राजस्थान के बूंदी से निकलता था। इस अखबार की हिंदी प्रति उपलब्ध नहीं है। इसीलिए हिंदी के पहले अखबार होने का श्रेय दिग्दर्शन या दरबार रोजनमचा को नहीं जाता है स्पष्ट प्रमाण के अभाव में घोषित रूप से हिंदी का पहला समाचार पत्र उदांत मार्तंड को माना गया है।

उदंत मार्तंड को हिंदी को पहला अखबार घोषित करने का श्रेय मॉडन के संपादक बजेंद्र मोहन बंदोपाध्याय को जाता है। 1931 के पहले तक बनारस अखबार जो गोविंद रघुनाथ के संपादक में 1843 में हुआ था को हिंदी का पहला अखबार माना जाता था। हिंदी पत्रकारिता के उद्गम एवं विकास को पांच निम्नलिखित भागों में बांट कर देख सकते हैं-

1. पूर्व भारतेंदु युग (1826 से 18 66)
2. भारतेंदु युग (1866 से 1885)
3. उत्तर भारतेंदु युग (1888-1902)

4. द्विवेदी युग (1903-1920)
5. वर्तमान युग (1921 से अब तक)

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1. पूर्व भारतेंदु युग (1826 से 1873)

उदंत मार्तंड सर्वमान्य रूप से हिंदी का पहला समाचार पत्र हैं जो 30 मई 1826 में प्रकाशित हुआ लेकिन उस समय के बाद धन के अभाव के कारण 11 दिसंबर 1827 में बंद हो गया इस युग का दूसरा महत्वपूर्ण पत्र बंग दूत था जो 10 मई 1829 में कोलकाता से ही प्रकाशित हुआ यह एक सप्ताहिक समाचार पत्र था हिंदी के अतिरिक्त यह अंग्रेजी, बांग्ला और फारसी में भी प्रकाशित होता था।

हिंदी समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले ‘प्रजा मिश्र’ का नाम उल्लेखनीय हैं यह 1834 में कोलकाता से छापना आराम हुआ बनारस अखबार बनारस से 1845 में प्रकाशित हुआ पहली बार इस समाचार पत्र में हिंदुस्तानी भाषा का प्रयोग किया गया।

इसके संपादक तारा मोहन मिश्रित है ऐसा माना जाता है कि अंग्रेजी शब्दों की हिंदी वर्तनी पहली बार किसी समाचार पत्र में प्रयोग की गई। बनारस से ही 1846 में सुधाकर प्रकाशित हुआ यह अखबार हिंदी का पहला ऐसा अखबार माना जाता है जिसमें एक ही स्थान हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू तथा फारसी भाषाओं के अलग-अलग पृष्ठ प्रकाशित होते थे।

यह 10 पृष्ठों का अखबार था और इसे तब तक का सबसे अधिक पृष्ठ वाला अखबार होने का श्रेय भी जाता है। 1849 में मलावा अखबार नाम एक और अखबार प्रकाशित होता था। 1850 में सम्य दण्ड मार्तंड 1852 में बुद्धि प्रकाश 1853 में ग्वालियर गजट आदि उस समय के कुछ महत्वपूर्ण समाचार पत्र थे।

हिंदी का प्रथम दैनिक समाचार पत्र सुधावर्शन है य 1845 में कोलकाता से प्रकाशित हुआ यह समाचार पत्र 1868 तक नियमित रूप से प्रकाशित होता रहा पर बाद में अर्थाभाव में इसके प्रकाशन को बंद करना पड़ा हिंदी का दूसरा दैनिक समाचार पत्र तत्वबोधिनी था यह भी कोलकाता से प्रकाशित हुआ इसके संपादक थे गुलाब शंकर हिंदी पत्रकारिता के इस युग में उर्दू अखबारों की संख्या बहुत अधिक थी।

सरकार की हिंदी विरोधी नीति के कारण हिंदी के समाचार पत्रों को आर्थिक कठिनाइयां झेलनी पड़ती थी हिंदी में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों की संख्या बहुत अधिक होने के बाद भी यह अधिक समय तक नियमित रूप से प्रकाशित नहीं हो पाये। इस योग को हिंदी पत्रकारिता का प्रयोग काल कहा जा सकता है।

भारतेंदु युग के पूर्व हिंदी समाचार पत्रों का उदय हो चुका था पर प्रतिकूल वातावरण साधनों एवं सहायकों के अभाव तथा अपेक्षित संख्या में पाठक उपलब्ध नहीं होने के कारण इनमें से अधिकांश बंद हो गए।

1826 ई. से 1873 ई. तक को हम हिंदी पत्रकारिता का पहला चरण कह सकते हैं। 1873 ई. में भारतेन्दु ने “हरिश्चंद्र मैगजीन” की स्थापना की। एक वर्ष बाद यह पत्र “हरिश्चंद्र चंद्रिका” नाम से प्रसिद्ध हुआ। वैसे भारतेन्दु का “कविवचन सुधा” पत्र 1867 में ही सामने आ गया था और उसने पत्रकारिता के विकास में महत्वपूर्ण भाग लिया था; परंतु नई भाषाशैली का प्रवर्तन 1873 में “हरिश्चंद्र मैगजीन” से ही हुआ।

इस बीच के अधिकांश पत्र प्रयोग मात्र कहे जा सकते हैं और उनके पीछे पत्रकला का ज्ञान अथवा नए विचारों के प्रचार की भावना नहीं है। “उदन्त मार्तण्ड” के बाद प्रमुख पत्र हैं :

बंगदूत (1829), प्रजामित्र (1834), बनारस अखबार (1845), मार्तंड पंचभाषीय (1846), ज्ञानदीप (1846), मालवा अखबार (1849), जगद्दीप भास्कर (1849), सुधाकर (1850), साम्यदन्त मार्तंड (1850), मजहरुलसरूर (1850), बुद्धिप्रकाश (1852), ग्वालियर गजेट (1853), समाचार सुधावर्षण (1854), दैनिक कलकत्ता, प्रजाहितैषी (1855), सर्वहितकारक (1855), सूरजप्रकाश (1861), जगलाभचिंतक (1861), सर्वोपकारक (1861), प्रजाहित (1861), लोकमित्र (1835), भारतखंडामृत (1864), तत्वबोधिनी पत्रिका (1865), ज्ञानप्रदायिनी पत्रिका (1866), सोमप्रकाश (1866), सत्यदीपक (1866), वृत्तांतविलास (1867), ज्ञानदीपक (1867), कविवचनसुधा (1867), धर्मप्रकाश (1867), विद्याविलास (1867), वृत्तांतदर्पण (1867), विद्यादर्श (1869), ब्रह्मज्ञानप्रकाश (1869), अलमोड़ा अखबार (1870), आगरा अखबार (1870), बुद्धिविलास (1870), हिंदू प्रकाश (1871), प्रयागदूत (1871), बुंदेलखंड अखबर (1871), प्रेमपत्र (1872) और बोधा समाचार (1872)।
इन पत्रों में से कुछ मासिक थे, कुछ साप्ताहिक। दैनिक पत्र केवल एक था “समाचार सुधावर्षण” जो द्विभाषीय (बंगला हिंदी) था और कलकत्ता से प्रकाशित होता था। यह दैनिक पत्र 1871 तक चलता रहा। अधिकांश पत्र आगरा से प्रकाशित होते थे जो उन दिनों एक बड़ा शिक्षाकेंद्र था और विद्यार्थीसमाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे।
शेष ब्रह्मसमाज, सनातन धर्म और मिशनरियों के प्रचार कार्य से संबंधित थे। बहुत से पत्र द्विभाषीय (हिंदी उर्दू) थे और कुछ तो पंचभाषीय तक थे। इससे भी पत्रकारिता की अपरिपक्व दशा ही सूचित होती है। हिंदीप्रदेश के प्रारंभिक पत्रों में “बनारस अखबार” (1845) काफी प्रभावशाली था और उसी की भाषानीति के विरोध में 1850 में तारामोहन मैत्र ने काशी से साप्ताहिक “सुधाकर” और 1855 में राजा लक्ष्मणसिंह ने आगरा से “प्रजाहितैषी” का प्रकाशन आरंभ किया था। राजा शिवप्रसाद का “बनारस अखबार” उर्दू भाषाशैली को अपनाता था तो ये दोनों पत्र पंडिताऊ तत्समप्रधान शैली की ओर झुकते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि 1867 से पहले भाषाशैली के संबंध में हिंदी पत्रकार किसी निश्चित शैली का अनुसरण नहीं कर सके थे। इस वर्ष ‘कवि वचनसुधा’ का प्रकाशन हुआ और एक तरह से हम उसे पहला महत्वपूर्ण पत्र कह सकते हैं। पहले यह मासिक था, फिर पाक्षिक हुआ और अंत में साप्ताहिक। भारतेन्दु के बहुविध व्यक्तित्व का प्रकाशन इस पत्र के माध्यम से हुआ, परंतु सच तो यह है कि “हरिश्चंद्र मैगजीन” के प्रकाशन (1873) तक वे भी भाषाशैली और विचारों के क्षेत्र में मार्ग ही खोजते दिखाई देते हैं।

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2. भारतेंदु युग (1873 से 1900)

इस युग में बहुत बड़ी संख्या में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ। 1867 में भारतेंदु ने बनारस से कवि वचन सुधा का प्रकाशित किया इसकी गिनती हिंदी में प्रकाशित समाचार पत्रों में सबसे महत्वपूर्ण समाचार पत्र के रूप में की जाती है प्रकाशन के प्रारंभिक काल में यह एक मासिक समाचार पत्र था जो बाद में सप्ताह ही किया गया अपने नाम के अनुरूप इसमें कविता के प्रमुखता दी जाती थी और समाचारों की संख्या सीमित होती थी।

पर बाद में समाचारों के साथ-साथ इसमें समाचार आधारित लेख आलेख टिप्पणियां और विश्लेषण आदि प्रकाशित होने लगे। इस में प्रकाशित होने वाले सामग्री अपने समय से कई साल आगे का था इसीलिए प्रबुद्ध वर्ग में इसकी प्रसार संख्या तेजी से आगे बढ़ी 1871 में सदानंद सनवाल ने अलमोड़ा अखबार का प्रकाशन किया और अट्ठारह सौ बहत्तर में पंडित केशव रामभाट्ट ने कलकाता से बिहार बंधु का प्रकाशन संबंधी ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि इन में प्रकाशित समाचार बहुत ज्यादा पुराने और अक्सर अनुपयोगी होते थे स्थान भरने के उद्देश्य से कई बार व्यक्तिगत बातों को भी समाचार के रूप प्रस्तुत कर दिया जाता था इसका प्रकाशन अधिक समय तक संभव नहीं हो सका।

कवि वचन सुधा के अनुकरण पर हिंदू और ज्ञान प्रदायनी नाम से दो समाचार पत्र प्रकाशित हुए परंतु पाठकों की संख्या नहीं बढ़ा पाने के कारण इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा इसी समय में 1873 में हरिश्चंद्र मैगजीन का प्रकाशन हुआ जिसे एक प्रकार से समाचार पत्रिका माना जा सकता है।

इसमें प्रकाशित सामग्री उच्च कोटि की होती थी परंतु व्यवहारिक तौर पर इसमें समाचार के बदले समाचार पर आधारित लेख आलेख टिप्पणियां विचार और विश्लेषण आदि दिए जाते थे। कभी-कभी दो या चार समाचारों पर ही पूरी पत्रिका केंद्रित रहते थे। समाचार की दृष्टि से इसका महत्व इसी अर्थ में कम हो जाता था।

इसीलिए केवल 8 अंकों के बाद इसका प्रकाशन बंद हो गया। 1874 में भारतेंदु द्वारा बालबोधिनी, हरिश्चंद्र चंद्रिका और स्त्री जन प्यारी इन तीन समाचार पत्रों का प्रकाशन आरंभ किया गया इसका उद्देश्य अलग-अलग आयु वर्ग के पाठकों के लिए उपयुक्त समाचार सामग्री प्रस्तुत करना था।

बालबोधिनी जहां किशोर वाय पाठकों का समाचार पत्र था वही स्त्री जन की प्यारी में महिलाओं से संबंधित समाचार प्रमुखता के साथ प्रकाशित किए जाते थे। इन समाचार पत्रों के महत्व और उद्देश्यों को देखते हुए प्रारंभिक तौर पर इन्हें सरकार से आर्थिक सहायता मिलती रही।

परंतु बाद में इन समाचार पत्रों में निर्भीकता के साथ सरकार के विरोध लेख और समाचार आदि प्रकाशित होने लगे इसलिए सरकारी सहायता बंद कर दी गई और इन अखबारों को बंद करना पड़ा 1876 में काशी पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ समाचार पत्र होने के कारण बाद में भी इसे पत्रिका का दर्जा इसलिए दिया गया कि इसका प्रकाशन अनियमित था।

पृष्ठों की संख्या भी कम और ज्यादा होती रहती थी 1877 में बालकृष्ण भट्ट द्वारा हिंदी प्रदीप का प्रकाशन हुआ हिंदी पत्रकारिता के इतिहास का इससे मील स्तंभ माना जाता है क्योंकि यह तब तक का पहला समाचार पत्र था जो लगातार 25 वर्ष से ज्यादा नियमित रूप से प्रकाशित होता रहा।

हिंदी प्रदीप लगातार 33 वर्ष जीवित रहा बीच में कुछ वर्ष बंद रहने के बाद इसका पूर्ण प्रकाशन हुआ और इसने 8 दशकों का सफर तय किया। 1878 में कलकाता से भारत मित्र का प्रकाशन शुरू हुआ हिंदी पत्रकारिता का यह अत्यंत महत्वपूर्ण समाचार पत्र था क्योंकि इसमें पहली बार समाचार पत्र के स्थान मूल्य संपादक का नाम आदि बातों का उल्लेख किया जाने लगा।

इस समाचार पत्र में राजनैतिक और सामाजिक विषयों के अतिरिक्त हास्य और मनोरंजन की सामग्री भी प्रस्तुत की जाती थी। इसमें पहली बार फिल्म जगत से जुड़ी खबरें प्रकाशित हुई 18 79 पर सुधा निधिक यह उदयपुर के राजाओं के सहयोग से 12 वर्षों तक प्रकाशित रहा इसमें प्रकाशित सामग्री नवीनतम जानकारी से पूर्ण और महत्वपूर्ण होते थी परंतु अपने अत्यंत कठिन भाषा के कारण यह समाचार पत्र आम लोगों अधिक लोकप्रिय नहीं हो सका प्रभुत वर्ग ने इसे सराहा लेकिन प्रसार संख्या नहीं बढ़ने के कारण इसका प्रकाशन बंद हो गया।

1880 के बाद के समय में जो समाचार प्रकाशित हुए हैं उनमें से कुछ महत्वपूर्ण उचित वक्ता, सजन कृर्ति, सुधाकर, क्षत्रिय पत्रिका, आनंद कदंबिनी, वैष्णव, ब्राह्मण और हिंदुस्तान आदि इस काल में अनगिनत पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में पत्रकारिता काल में परिपक्वता आती गई समाचार पत्रों के प्रकाशन की दृष्टि से इसे सबसे समृद्ध युग माना जाता है। इस युग में 200 से भी अधिक समाचार पत्रों का आरंभ हुआ।

हिंदी पत्रकारिता का दूसरा युग 1873 से 1900 तक चलता है। इस युग के एक छोर पर भारतेन्दु का “हरिश्चंद्र मैगजीन” था ओर नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा अनुमोदनप्राप्त “सरस्वती”। इन 27 वर्षों में प्रकाशित पत्रों की संख्या 300-350 से ऊपर है और ये नागपुर तक फैले हुए हैं। अधिकांश पत्र मासिक या साप्ताहिक थे।

मासिक पत्रों में निबंध, नवल कथा (उपन्यास), वार्ता आदि के रूप में कुछ अधिक स्थायी संपत्ति रहती थी, परन्तु अधिकांश पत्र 10-15 पृष्ठों से अधिक नहीं जाते थे और उन्हें हम आज के शब्दों में “विचारपत्र” ही कह सकते हैं। साप्ताहिक पत्रों में समाचारों और उनपर टिप्पणियों का भी महत्वपूर्ण स्थान था।

वास्तव में दैनिक समाचार के प्रति उस समय विशेष आग्रह नहीं था और कदाचित् इसीलिए उन दिनों साप्ताहिक और मासिक पत्र कहीं अधिक महत्वपूर्ण थे। उन्होंने जनजागरण में अत्यंत महत्वपूर्ण भाग लिया था।

उन्नीसवीं शताब्दी के इन 25 वर्षों का आदर्श भारतेन्दु की पत्रकारिता थी। “कविवचनसुधा” (1867), “हरिश्चंद्र मैगजीन” (1874), श्री हरिश्चंद्र चंद्रिका” (1874), बालबोधिनी (स्त्रीजन की पत्रिका, 1874) के रूप में भारतेन्दु ने इस दिशा में पथप्रदर्शन किया था।

उनकी टीकाटिप्पणियों से अधिकरी तक घबराते थे और “कविवचनसुधा” के “पंच” पर रुष्ट होकर काशी के मजिस्ट्रेट ने भारतेन्दु के पत्रों को शिक्षा विभाग के लिए लेना भी बंद करा दिया था। इसमें संदेह नहीं कि पत्रकारिता के क्षेत्र भी भारतेन्दु पूर्णतया निर्भीक थे और उन्होंने नए नए पत्रों के लिए प्रोत्साहन दिया। “हिंदी प्रदीप”, “भारतजीवन” आदि अनेक पत्रों का नामकरण भी उन्होंने ही किया था। उनके युग के सभी पत्रकार उन्हें अग्रणी मानते थे।

उत्तर भारतेंदु युग 1889 में अजमेर से राजस्थान समाचार का प्रकाशन आरंभ हुआ यह स्वामी दयानंद के विचारों और सिद्धांतों का प्रचारक माना जाता था। इसके बाद 1890 में सर्वहित और हिंदी में बंगवासी का प्रकाशन हुआ 1888-1889 के बीच महिला पाठकों के लिए सुगृहिणी और भारत भगिणी जैसे समाचार पत्र प्रकाशित हुए परंतु यह दोनों समाचार पत्र के युग में वस्तुत: महिला पत्रिकाएं थी भारतेंदु और उत्तर भारतेंदु में प्रकाशित होने वाली पर पत्रिकाओं की संख्या करीब 500 थी।

उस समय दैनिक पत्र की मांग और साप्ताहिक की मांग अधिक थी इस पूरे काल में खंड का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी इस काल में प्रकाशित सभी समाचार पत्र किसी ना किसी रूप में भारतेंदु की पत्रकारिता से प्रभावित रहे। डॉ राम रतन भटनागर ने इसे हिंदी पत्रकारिता के विकास का प्रकाशन काल माना है।

इसी काल में पत्रकारिता साहित्य से अलग एक विद्या के रूप में विकसित हुई भारतेंदु ने ही सामाजिक राजनीतिक और साहित्यिक विचार धाराओं का अलग-अलग विकास किया पत्रकारिता को धर्म के प्रचार से अलग किया इसी कालखंड में हिंदी पत्रकारिता में उन्नति के शिखर को छूने का प्रयास किया।

3. उत्तर भारतेंदु युग (1901-1918)उत्तर भारतेंदु युग 1889 में अजमेर से राजस्थान समाचार का प्रकाशन आरंभ हुआ यह स्वामी दयानंद के विचारों और सिद्धांतों का प्रचारक माना जाता था। इसके बाद 1890 में सर्वहित और हिंदी में बंगवासी का प्रकाशन हुआ 1888-1889 के बीच महिला पाठकों के लिए सुगृहिणी और भारत भगिणी जैसे समाचार पत्र प्रकाशित हुए परंतु यह दोनों समाचार पत्र के युग में वस्तुत: महिला पत्रिकाएं थी भारतेंदु और उत्तर भारतेंदु में प्रकाशित होने वाली पर पत्रिकाओं की संख्या करीब 500 थी।

उस समय दैनिक पत्र की मांग और साप्ताहिक की मांग अधिक थी इस पूरे काल में खंड का आदर्श भारतेंदु की पत्रकारिता थी इस काल में प्रकाशित सभी समाचार पत्र किसी ना किसी रूप में भारतेंदु की पत्रकारिता से प्रभावित रहे। डॉ राम रतन भटनागर ने इसे हिंदी पत्रकारिता के विकास का प्रकाशन काल माना है।

इसी काल में पत्रकारिता साहित्य से अलग एक विद्या के रूप में विकसित हुई भारतेंदु ने ही सामाजिक राजनीतिक और साहित्यिक विचार धाराओं का अलग-अलग विकास किया पत्रकारिता को धर्म के प्रचार से अलग किया इसी कालखंड में हिंदी पत्रकारिता में उन्नति के शिखर को छूने का प्रयास किया।

भारतेन्दु के बाद इस क्षेत्र में जो पत्रकार आए उनमें प्रमुख थे पंडित रुद्रदत्त शर्मा, (भारतमित्र, 1877), बालकृष्ण भट्ट (हिंदी प्रदीप, 1877), दुर्गाप्रसाद मिश्र (उचित वक्ता, 1878), पंडित सदानंद मिश्र (सारसुधानिधि, 1878), पंडित वंशीधर (सज्जन-कीर्त्ति-सुधाकर, 1878), बदरीनारायण चौधरी “प्रेमधन” (आनंदकादंबिनी, 1881), देवकीनंदन त्रिपाठी (प्रयाग समाचार, 1882), राधाचरण गोस्वामी (भारतेन्दु, 1882), पंडित गौरीदत्त (देवनागरी प्रचारक, 1882), राज रामपाल सिंह (हिंदुस्तान, 1883), प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण, 1883), अंबिकादत्त व्यास, (पीयूषप्रवाह, 1884), बाबू रामकृष्ण वर्मा (भारतजीवन, 1884), पं. रामगुलाम अवस्थी (शुभचिंतक, 1888), योगेशचंद्र वसु (हिंदी बंगवासी, 1890), पं. कुंदनलाल (कवि व चित्रकार, 1891) और बाबू देवकीनंदन खत्री एवं बाबू जगन्नाथदास (साहित्य सुधानिधि, 1894)। 1895 ई. में “नागरीप्रचारिणी पत्रिका” का प्रकाशन आरंभ होता है।

इस पत्रिका से गंभीर साहित्यसमीक्षा का आरंभ हुआ और इसलिए हम इसे एक निश्चित प्रकाशस्तंभ मान सकते हैं। 1900 ई. में “सरस्वती” और “सुदर्शन” के अवतरण के साथ हिंदी पत्रकारिता के इस दूसरे युग पर पटाक्षेप हो जाता है।

इन 25 वर्षों में हिन्दी पत्रकारिता अनेक दिशाओं में विकसित हुई। प्रारंभिक पत्र शिक्षाप्रसार और धर्मप्रचार तक सीमित थे। भारतेन्दु ने सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक दिशाएँ भी विकसित कीं। उन्होंने ही “बालाबोधिनी” (1874) नाम से पहला स्त्री-मासिक-पत्र चलाया।

कुछ वर्ष बाद महिलाओं को स्वयं इस क्षेत्र में उतरते देखते हैं – “भारतभगिनी” (हरदेवी, 1888), “सुगृहिणी” (हेमंतकुमारी, 1889)। इन वर्षों में धर्म के क्षेत्र में आर्यसमाज और सनातन धर्म के प्रचारक विशेष सक्रिय थे। ब्रह्मसमाज और राधास्वामी मत से संबंधित कुछ पत्र और मिर्जापुर जैसे ईसाई केंद्रों से कुछ ईसाई धर्म संबंधी पत्र भी सामने आते हैं, परंतु युग की धार्मिक प्रतिक्रियाओं को हम आर्यसमाज के और पौराणिकों के पत्रों में ही पाते हैं।

आज ये पत्र कदाचित् उतने महत्वपूर्ण नहीं जान पड़ते, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने हिन्दी की गद्यशैली को पुष्ट किया और जनता में नए विचारों की ज्योति भी। इन धार्मिक वादविवादों के फलस्वरूप समाज के विभिन्न वर्ग और संप्रदाय सुधार की ओर अग्रसर हुए और बहुत शीघ्र ही सांप्रदायिक पत्रों की बाढ़ आ गई। सैकड़ों की संख्या में विभिन्न जातीय और वर्गीय पत्र प्रकाशित हुए और उन्होंने असंख्य जनों को वाणी दी।

आज वही पत्र हमारी इतिहासचेतना में विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन्होंने भाषा शैली, साहित्य अथवा राजनीति के क्षेत्र में कोई अप्रतिम कार्य किया हो। साहित्यिक दृष्टि से “हिंदी प्रदीप” (1877), ब्राह्मण (1883), क्षत्रियपत्रिका (1880), आनंदकादंबिनी (1881), भारतेन्दु (1882), देवनागरी प्रचारक (1882), वैष्णव पत्रिका (पश्चात् पीयूषप्रवाह, 1883), कवि के चित्रकार (1891), नागरी नीरद (1883), साहित्य सुधानिधि (1894) और राजनीतिक दृष्टि से भारतमित्र (1877), उचित वक्ता (1878), सार सुधानिधि (1878), भारतोदय (दैनिक, 1883), भारत जीवन (1884), भारतोदय (दैनिक, 1885), शुभचिंतक (1887) और हिंदी बंगवासी (1890) विशेष महत्वपूर्ण हैं।

इन पत्रों में हमारे 19वीं शताब्दी के साहित्यरसिकों, हिंदी के कर्मठ उपासकों, शैलीकारों और चिंतकों की सर्वश्रेष्ठ निधि सुरक्षित है। यह क्षोभ का विषय है कि हम इस महत्वपूर्ण सामग्री का पत्रों की फाइलों से उद्धार नहीं कर सके।

बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, सदानं मिश्र, रुद्रदत्त शर्मा, अंबिकादत्त व्यास और बालमुकुंद गुप्त जैसे सजीव लेखकों की कलम से निकले हुए न जाने कितने निबंध, टिप्पणी, लेख, पंच, हास परिहास औप स्केच आज में हमें अलभ्य हो रहे हैं। आज भी हमारे पत्रकार उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अपने समय में तो वे अग्रणी थे ही।

4. द्विवेदी युग (1901-1920)

सन् 1900 में सरस्वती मासिक पत्रिका का आरंभ हुआ इसके साथ ही हिंदी पत्रकारिता का दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता पहले से अधिक समृद्ध हुई इस काल में मैथिली निराला प्रेमचंद प्रसाद गणेश शंकर विद्यार्थी आदि ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया स्वरूप प्रदान किया इस युग में पत्रकारिता की विविधता और बहुरुपता में विकास हुआ धार्मिक तथा सामाजिक सुधार आंदोलन के बदले राजनीतिक और साहित्यिक चेतना ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया।

1907 में अभ्युदय पत्र निकला स्वराज्य सैनिक संदेश नवशक्ति जैसे समाचार पत्रों और सप्ताहिक पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ 1914 में कलकाता समाचार 1917 में विश्वमित्र 1915 में विज्ञान आदि का प्रकाशन हुआ साहित्यिक चेतना के दृष्टि से इस युग को साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्ष युग कहा जा सकता है।

यद्यपि इस युग का राजनैतिक नेतृत्व मुख्यता बांग्ला तथा मराठी समाचार पत्रों के हाथ में रहा किंतु हिंदी पत्रकारिता में अभ्युदय प्रताप कर्म योगी और हिंदी केसरी आदि ने उसी दिशा में महत्वपूर्ण उत्तर दायित्व निभाया। इस योग के अनेक साहित्यकारों ने पत्रकारिता के जगत में बढ़-चढ़कर अपनी भूमिका निभाई भाषा सीखने के लिए समाचार पत्रों का सहारा लेने का धरणा भी इसी युग में स्थापित हुई।

बीसवीं शताब्दी की पत्रकारिता हमारे लिए अपेक्षाकृत निकट है और उसमें बहुत कुछ पिछले युग की पत्रकारिता की ही विविधता और बहुरूपता मिलती है। 19वीं शती के पत्रकारों को भाषा-शैलीक्षेत्र में अव्यवस्था का सामना करना पड़ा था। उन्हें एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के पत्रों के सामने अपनी वस्तु रखनी थी।

अभी हिंदी में रुचि रखनेवाली जनता बहुत छोटी थी। धीरे-धीरे परिस्थिति बदली और हम हिंदी पत्रों को साहित्य और राजनीति के क्षेत्र में नेतृत्व करते पाते हैं। इस शताब्दी से धर्म और समाजसुधार के आंदोलन कुछ पीछे पड़ गए और जातीय चेतना ने धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना का रूप ग्रहण कर लिया।

फलत: अधिकांश पत्र, साहित्य और राजनीति को ही लेकर चले। साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में पहले दो दशकों में आचार्य द्विवेदी द्वारा संपादित “सरस्वती” (1903-1918) का नेतृत्व रहा। वस्तुत: इन बीस वर्षों में हिंदी के मासिक पत्र एक महान साहित्यिक शक्ति के रूप में सामने आए।

शृंखलित उपन्यास कहानी के रूप में कई पत्र प्रकाशित हुए – जैसे उपन्यास 1901, हिंदी नाविल 1901, उपन्यास लहरी 1902, उपन्याससागर 1903, उपन्यास कुसुमांजलि 1904, उपन्यासबहार 1907, उपन्यास प्रचार 1912। केवल कविता अथवा समस्यापूर्ति लेकर अनेक पत्र उन्नीसवीं शतब्दी के अंतिम वर्षों में निकलने लगे थे।

वे चले रहे। समालोचना के क्षेत्र में “समालोचक” (1902) और ऐतिहासिक शोध से संबंधित “इतिहास” (1905) का प्रकाशन भी महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। परंतु सरस्वती ने “मिस्लेनी” () के रूप में जो आदर्श रखा था, वह अधिक लोकप्रिय रहा और इस श्रेणी के पत्रों में उसके साथ कुछ थोड़े ही पत्रों का नाम लिया जा सकता है, जैसे “भारतेन्दु” (1905), नागरी हितैषिणी पत्रिका, बाँकीपुर (1905), नागरीप्रचारक (1906), मिथिलामिहिर (1910) और इंदु (1909)। “सरस्वती” और “इंदु” दोनों हिन्दी की साहित्यचेतना के इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं और एक तरह से हम उन्हें उस युग की साहित्यिक पत्रकारिता का शीर्षमणि कह सकते हैं।

“सरस्वती” के माध्यम से आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी और “इंदु” के माध्यम से पंडित रूपनारायण पांडेय ने जिस संपादकीय सतर्कता, अध्यवसाय और ईमानदारी का आदर्श हमारे सामने रखा वह हिन्दी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने में समर्थ हुआ।

परंतु राजनीतिक क्षेत्र में हिन्दी पत्रकारिता को नेतृत्व प्राप्त नहीं हो सका। पिछले युग की राजनीतिक पत्रकारिता का केंद्र कलकत्ता था। परंतु कलकत्ता हिंदी प्रदेश से दूर पड़ता था और स्वयं हिंदी प्रदेश को राजनीतिक दिशा में जागरूक नेतृत्व कुछ देर में मिला।

हिंदी प्रदेश का पहला दैनिक राजा रामपालसिंह का द्विभाषीय “हिंदुस्तान” (1883) है जो अंग्रेजी और हिंदी में कालाकाँकर से प्रकाशित होता था। दो वर्ष बाद (1885 में), बाबू सीताराम ने “भारतोदय” नाम से एक दैनिक पत्र कानपुर से निकालना शुरू किया। परंतु ये दोनों पत्र दीर्घजीवी नहीं हो सके और साप्ताहिक पत्रों को ही राजनीतिक विचारधारा का वाहन बनना पड़ा।

वास्तव में उन्नीसवीं शतब्दी में कलकत्ता के भारत मित्र, वंगवासी, सारसुधानिधि और उचित वक्ता ही हिंदी प्रदेश की रानीतिक भावना का प्रतिनिधित्व करते थे। इनमें कदाचित् “भारतमित्र” ही सबसे अधिक स्थायी और शक्तिशाली था। उन्नीसवीं शताब्दी में बंगाल और महाराष्ट्र लोक जाग्रति के केंद्र थे और उग्र राष्ट्रीय पत्रकारिता में भी ये ही प्रांत अग्रणी थे।

हिंदी प्रदेश के पत्रकारों ने इन प्रांतों के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया और बहुत दिनों तक उनका स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व विकसित नहीं हो सका। फिर भी हम “अभ्युदय” (1905), “प्रताप” (1913), “कर्मयोगी”, “हिंदी केसरी” (1904-1908) आदि के रूप में हिंदी राजनीतिक पत्रकारिता को कई डग आगे बढ़ाते पाते हैं।

प्रथम महायुद्ध की उत्तेजना ने एक बार फिर कई दैनिक पत्रों को जन्म दिया। कलकत्ता से “कलकत्ता समाचार”, “स्वतंत्र” और “विश्वमित्र” प्रकाशित हुए, बंबई से “वेंकटेश्वर समाचार” ने अपना दैनिक संस्करण प्रकाशित करना आरंभ किया और दिल्ली से “विजय” निकला।

1921 में काशी से “आज” और कानपुर से “वर्तमान” प्रकाशित हुए। इस प्रकार हम देखते हैं कि 1921 में हिंदी पत्रकारिता फिर एक बार करवटें लेती है और राजनीतिक क्षेत्र में अपना नया जीवन आरंभ करती है। हमारे साहित्यिक पत्रों के क्षेत्र में भी नई प्रवृत्तियों का आरंभ इसी समय से होता है। फलत: बीसवीं शती के पहले बीस वर्षों को हम हिंदी पत्रकारिता का तीसरा चरण कह सकते हैं।

4. छायावाद/ गांधी युग (1921 से 1947 तक)

1921 के बाद हिंदी पत्रकारिता का समसामयिक युग आरंभ होता है। इस युग में हम राष्ट्रीय और साहित्यिक चेतना को साथ साथ पल्लवित पाते हैं। इसी समय के लगभग हिंदी का प्रवेश विश्वविद्यालयों में हुआ और कुछ ऐसे कृती संपादक सामने आए जो अंग्रेजी की पत्रकारिता से पूर्णत: परिचित थे और जो हिंदी पत्रों को अंग्रेजी, मराठी और बँगला के पत्रों के समकक्ष लाना चाहते थे।

फलत: साहित्यिक पत्रकारिता में एक नए युग का आरंभ हुआ। राष्ट्रीय आंदोलनों ने हिंदी की राष्ट्रभाषा के लिए योग्यता पहली बार घोषित की ओर जैसे-जैसे राष्ट्रीय आंदोलनों का बल बढ़ने लगा, हिंदी के पत्रकार और पत्र अधिक महत्त्व पाने लगे। 1921 के बाद गांधी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन मध्यवर्ग तक सीमित न रहकर ग्रामीणों और श्रमिकों तक पहुंच गया और उसके इस प्रसार में हिंदी पत्रकारिता ने महत्वपूर्ण योग दिया।

सच तो यह है कि हिंदी पत्रकार राष्ट्रीय आंदोलनों की अग्र पंक्ति में थे और उन्होंने विदेशी सत्ता से डटकर मोर्चा लिया। विदेशी सरकार ने अनेक बार नए नए कानून बनाकर समाचारपत्रों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया परंतु जेल, जुर्माना और अनेकानेक मानसिक और आर्थिक कठिनाइयाँ झेलते हुए भी हिन्दी पत्रकारों ने स्वतंत्र विचार की दीपशिखा जलाए रखी।

यद्यपि उपयुक्त काल खंडों में बहुत बड़ी दैनिक अर्ध्द सप्ताहिक पाक्षिक मासिक त्रैमासिक और अर्धवार्षिक पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित हुई परंतु उनमें से अधिकांश ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल पायी।
हिंदी प्रदीप भारत मिश्र हिंदुस्तान आज स्वदेश जागरण आर्यभट्ट नवभारत और हिंदू पंच जैसे कुछ समाचार पत्र आज भी अस्तित्व में है।

1921 के बाद साहित्यक्षेत्र में जो पत्र आए उनमें प्रमुख हैं-

स्वार्थ (1922), माधुरी (1923), मर्यादा, चाँद (1923), मनोरमा (1924), समालोचक (1924), चित्रपट (1925), कल्याण (1926), सुधा (1927), विशालभारत (1928), त्यागभूमि (1928), हंस (1930), गंगा (1930), विश्वमित्र (1933), रूपाभ (1938), साहित्य संदेश (1938), कमला (1939), मधुकर (1940), जीवनसाहित्य (1940), विश्वभारती (1942), संगम (1942), कुमार (1944), नया साहित्य (1945), पारिजात (1945), हिमालय (1946) आदि।
वास्तव में आज हमारे मासिक साहित्य की प्रौढ़ता और विविधता में किसी प्रकार का संदेह नहीं हो सकता। हिंदी की अनेकानेक प्रथम श्रेणी की रचनाएँ मासिकों द्वारा ही पहले प्रकाश में आई और अनेक श्रेष्ठ कवि और साहित्यकार पत्रकारिता से भी संबंधित रहे। आज हमारे मासिक पत्र जीवन और साहित्य के सभी अंगों की पूर्ति करते हैं और अब विशेषज्ञता की ओर भी ध्यान जाने लगा है। साहित्य की प्रवृत्तियों की जैसी विकासमान झलक पत्रों में मिलती है, वैसी पुस्तकों में नहीं मिलती। वहाँ हमें साहित्य का सक्रिय, सप्राण, गतिशील रूप प्राप्त होता है।

राजनीतिक क्षेत्र में इस युग में जिन पत्रपत्रिकाओं की धूम रही वे हैं –

कर्मवीर (1924), सैनिक (1924), स्वदेश (1921), श्रीकृष्णसंदेश (1925), हिंदूपंच (1926), स्वतंत्र भारत (1928), जागरण (1929), हिंदी मिलाप (1929), सचित्र दरबार (1930), स्वराज्य (1931), नवयुग (1932), हरिजन सेवक (1932), विश्वबंधु (1933), नवशक्ति (1934), योगी (1934), हिंदू (1936), देशदूत (1938), राष्ट्रीयता (1938), संघर्ष (1938), चिनगारी (1938), नवज्योति (1938), संगम (1940), जनयुग (1942), रामराज्य (1942), संसार (1943), लोकवाणी (1942), सावधान (1942), हुंकार (1942) और सन्मार्ग (1943),

5. आधुनिक युग (1921 से अब तक)

राजनीतिक चेतना के स्वरूप 1921 से हिंदी पत्रकारिता ने भी करवत ली गांधी के अगमन हिंदी को विश्वविद्यालय में स्थान मिला राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठा और स्वाधीनता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन की प्रगति आदि के कारण इस युग की हिंदी पत्रकारिता ने अपने विशिष्ट और महत्व को और अधिक स्थापित किया 1921 में माधुरी नामक पत्रिका का प्रकाशन हुआ यह पत्रिका होने के बाद भी पत्रकारिता से जुड़े लगभग सभी प्रमुख मुद्दों को उठाती रही।

इसकी लोकप्रियता इतनी बढ़ी की उस दौर में श्री शरदा और मनुरमा सहित लगभग दो दर्जन पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ हुआ जिनमें समाचार आधारित विवरण समीक्षा और विश्लेषण आदि प्रकाशित होते थे। 1923 में चांद का प्रकाशन हुआ फांसी अंक स्वाधीनता अंक और नवजागरण अंक इत्यादि इतिहास के अंक बन गए बात में महादेवी वर्मा भी इसकी संपादक बनी और उस दौरान महिला अपर आधारित के महत्वपूर्ण अंक प्रकाशित हुए इस युग की पत्रिकाओं का भी हिंदी पत्रकारिता में महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इनमें साहित्यिक विधाओं के साथ-साथ राजनैतिक सामाजिक धार्मिक या अन्य समसामयिक विषयों और समस्याओं संबंधित विषम प्रकाशित होते थे।

इनमें से अधिकांश साप्ताहिक हैं, परंतु जनमन के निर्माण में उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जहाँ तक पत्र कला का संबंध है वहाँ तक हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि तीसरे और चौथे युग के पत्रों में धरती और आकाश का अंतर है। आज पत्रसंपादन वास्तव में उच्च कोटि की कला है।

राजनीतिक पत्रकारिता के क्षेत्र में “आज” (1921) और उसके संपादक स्वर्गीय बाबूराव विष्णु पराड़कर का लगभग वही स्थान है जो साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्राप्त है। सच तो यह है कि “आज” ने पत्रकला के क्षेत्र में एक महान संस्था का काम किया है और उसने हिंदी को बीसियों पत्रसंपादक और पत्रकार दिए हैं।

आधुनिक साहित्य के अनेक अंगों की भाँति हिन्दी पत्रकारिता भी नई कोटि की है और उसमें भी मुख्यत: हमारे मध्यवित्त वर्ग की सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक औ राजनीतिक हलचलों का प्रतिबिंब भास्वर है।

वास्तव में पिछले २०० वर्षों का सच्चा इतिहास हमारी पत्रपत्रिकाओं से ही संकलित हो सकता है। बँगला के “कलेर कथा” ग्रंथ में पत्रों के अवतरणों के आधार पर बंगाल के उन्नीसवीं शताब्दी के मध्यवित्तीय जीवन के आकलन का प्रयत्न हुआ है।

हिंदी में भी ऐसा प्रयत्न वांछनीय है। एक तरह से उन्नीसवीं शती में साहित्य कही जा सकनेवाली चीज बहुत कम है और जो है भी, वह पत्रों के पृष्ठों में ही पहले-पहल सामने आई है। भाषाशैली के निर्माण और जातीय शैली के विकास में पत्रों का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण रहा है, परंतु बीसवीं शती के पहले दो दशकों के अंत तक मासिक पत्र और साप्ताहिक पत्र ही हमारी साहित्यिक प्रवृत्तियों को जन्म देते और विकसित करते रहे हैं।

द्विवेदी युग के साहित्य को हम “सरस्वती” और “इंदु” में जिस प्रयोगात्मक रूप में देखते हैं, वही उस साहित्य का असली रूप है। 1921 ई. के बाद साहित्य बहुत कुछ पत्रपत्रिकाओं से स्वतंत्र होकर अपने पैरों पर खड़ा होने लगा, परंतु फिर भी विशिष्ट साहित्यिक आंदोलनों के लिए हमें मासिक पत्रों के पृष्ठ ही उलटने पड़ते हैं। राजनीतिक चेतना के लिए तो पत्रपत्रिकाएँ हैं ही। वस्तुत: पत्रपत्रिकाएँ जितनी बड़ी जनसंख्या को छूती हैं, विशुद्ध साहित्य का उतनी बड़ी जनसंख्या तक पहुँचना असंभव है। जनवार्ता (1972)।

6. वर्तमान युग 90 के दशक से अब तक

90 के दशक में भारतीय भाषाओं के अखबारों, हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में अमर उजाला, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण आदि के नगरों-कस्बों से कई संस्करण निकलने शुरू हुए। जहां पहले महानगरों से अखबार छपते थे, भूमंडलीकरण के बाद आयी नई तकनीक, बेहतर सड़क और यातायात के संसाधनों की सुलभता की वजह से छोटे शहरों, कस्बों से भी नगर संस्करण का छपना आसान हो गया।

साथ ही इन दशकों में ग्रामीण इलाकों, कस्बों में फैलते बाजार में नई वस्तुओं के लिए नये उपभोक्ताओं की तलाश भी शुरू हुई। हिंदी के अखबार इन वस्तुओं के प्रचार-प्रसार का एक जरिया बन कर उभरा है। साथ ही साथ अखबारों के इन संस्करणों में स्थानीय खबरों को प्रमुखता से छापा जाता है। इससे अखबारों के पाठकों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है।

मीडिया विशेषज्ञ सेवंती निनान ने इसे ‘हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार’ कहा है। वे लिखती हैं, “प्रिंट मीडिया ने स्थानीय घटनाओं के कवरेज द्वारा जिला स्तर पर हिंदी की मौजूद सार्वजनिक दुनिया का विस्तार किया है और साथ ही अखबारों के स्थानीय संस्करणों के द्वारा अनजाने में इसका पुनर्विष्कार किया है।

1990 में राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती थी कि पांच अगुवा अखबारों में हिन्दी का केवल एक समाचार पत्र हुआ करता था। पिछले (सर्वे) ने साबित कर दिया कि हम कितनी तेजी से बढ़ रहे हैं। इस बार (२०१०) सबसे अधिक पढ़े जाने वाले पांच अखबारों में शुरू के चार हिंदी के हैं।

एक उत्साहजनक बात और भी है कि आईआरएस सर्वे में जिन 42 शहरों को सबसे तेजी से उभरता माना गया है, उनमें से ज्यादातर हिन्दी हृदय प्रदेश के हैं। मतलब साफ है कि अगर पिछले तीन दशक में दक्षिण के राज्यों ने विकास की जबरदस्त पींगें बढ़ाईं तो आने वाले दशक हम हिन्दी वालों के हैं।

ऐसा नहीं है कि अखबार के अध्ययन के मामले में ही यह प्रदेश अगुवा साबित हो रहे हैं। आईटी इंडस्ट्री का एक आंकड़ा बताता है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में नेट पर पढ़ने-लिखने वालों की तादाद लगातार बढ़ रही है।

मतलब साफ है। हिन्दी की आकांक्षाओं का यह विस्तार पत्रकारों की ओर भी देख रहा है। प्रगति की चेतना के साथ समाज की निचली कतार में बैठे लोग भी समाचार पत्रों की पंक्तियों में दिखने चाहिए। पिछले आईएएस, आईआईटी और तमाम शिक्षा परिषदों के परिणामों ने साबित कर दिया है कि हिन्दी भाषियों में सबसे निचली सीढ़ियों पर बैठे लोग भी जबरदस्त उछाल के लिए तैयार हैं।

हिन्दी के पत्रकारों को उनसे एक कदम आगे चलना होगा ताकि उस जगह को फिर से हासिल सकें, जिसे पिछले चार दशकों में हमने लगातार खोया।

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