गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने कथा के माध्यम से बताएं… दया करना आपका विरद है,स्वभाव है…हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर…

परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) प्रयागराज

कल्पना शुक्ला.

परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने कथा के माध्यम से सुंदरकांड की कथा बताते हुए यह बताएं

जब मनुष्य भगवान को भूल जाता है तो विपत्ति में पड़ जाता हैं लेकिन जब भगवान हमें भूल जाए तब हम महा विपत्ति में पड़ जाते हैं परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने कथा के माध्यम से सुंदरकांड की कथा बताते हुए यह बताएं कि माता सीता प्रभु राम की विरह में महा विप्पति में है, और प्रार्थना कर रही है…
दीनदयाल विरद संभारी, हरहु नाथ मम संकट भारी ।
दुखियों पर दया करना आपका विरद है,स्वभाव है (और मैं दीन हूँ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए॥
मैं दिन हूं आप दयालु हो और आप की शोभा तभी है जब कोई दीन हो मैं दीन हूं, मैं दुखी हूं, मैं विरह वेदना में हूं, मेरा कष्ट बहुत अधिक है ,और आप दीन दयालु हो ,मैं दीन हूं आप बंधु है,आप दीनबंधु हो । मैं दीन हूं और आप नाथ है,आप दीनानाथ हो । तो मुझ दीन की खबर ले लो ,मुझ दीन का दुख समाप्त कर दो ।भगवान मैं बड़ी दुखियारी हूं , बहुत कष्ट में हूं हनुमान जी तुम मेरी तरफ उनके चरणों में गिर कर के इस प्रकार की वर्णन करना और उनको याद दिलाना।
शंकर सम दानी कोउ नाही…
नाथ भगति अति सुखदायनी, देहु कृपा करि अनपायनी।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी, एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥

हे नाथ ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहा॥
जब भगवान के पास मांगने का अवसर मिले तो क्या मांगना चाहिए हनुमान जी ने बताए हनुमान जी निश्चल भक्ति मांगते हैं और भगवान एवमस्तु कहते हैं ।
भगवान शिव हमेशा भक्ति ही मांगते हैं हनुमान जी के रूप में भी आते हैं तो निश्चल भक्ति मानते हैं ,अर्थात बिना छल कपट केप्रभु के लिए समर्पित होना।
कर्ता-धर्ता नियंता स्वयं भगवान ही होते हैं मनुष्य निमित्त मात्र होते हैं भगवान कभी अपने को कर्ता नहीं बताते हैं इसलिए सब मनुष्य को दे देते हैं ,भगवान चाहे तभी कोई कार्य संभव हो पाता ना चाहे तो कोई कार्य नहीं हो पाता ,गीता में भी अर्जुन से भगवान कृष्ण ने यही कहते है।
हनुमान जी कभी निर्भरा भक्ति कभी निश्चल भक्ति भगवान की भक्ति ही स्वीकार किए और भगवान हमेशा उसका ध्यान रखते हैं कभी अभिमान नहीं होने देते जब द्रोण पर्वत पर संजीवनी बूटी लेने जाते हैं तो भरत जी से तिनके का बाण चलवा देते हैं।
हनुमान जी इस तरह यात्रा करते हैं जैसे भगवान की बाण हो, लंका की यात्रा में भी और जब संजीवनी बूटी ले जाते तब भी । जब हम निश्छल भाव से अपने आराध्य के चरणों में समर्पित होते हैं हमारे सारे कार्य की व्यवस्था भगवान स्वयं करते हैं हम निमित्त मात्र होते हैं सुंदरकांड में सब कुछ सुंदर ही बताया गया है।

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