क्यों सुलग और दहक रही है लंका -बादल सरोज

आलेख : बादल सरोज

श्रीलंका धधक रही है। भीड़ से घिर जाने के चलते एक मंत्री खुद को कमरे में बंद करके गोली मार चुके हैं। एक मंत्री को खदेड़ते हुए जनता कार समेत नदी में धकेल चुकी है। भीड़ से घिरने के चलते एक सांसद आत्महत्या कर चुके हैं। दो सांसद मारे जा चुके हैं। सत्ता पार्टी से जुड़े पार्षदों को जनता दौड़ा;दौड़ा कर पीट रही है। राजधानी कोलंबो से लेकर छोटे-बड़े शहरों तक यही गुस्सा चार्रों तरफ दिखाई दे रहा है।

श्रीलंका में जो कुछ होता दिखाई दे रहा है, उसे सही तरीके से पढ़ने के लिए पहली बात तो यह साफ़ होनी चाहिए कि यह हिंसा अपने आप नहीं भड़की। अप्रैल के आखिर में लाखों मजदूरों की आम हड़ताल, 5 मई को हुयी दूसरी आम हड़ताल के बाद हजारों नागरिक राजधानी में राष्ट्रपति निवास के सामने धरना दिए बैठे थे। बजाय उनकी मांगों पर चर्चा या संवाद के राजपक्षे भाईयों – एक राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे, दूसरा प्रधान मंत्री महिंदा राजपक्षे, तीसरा वित्तमंत्री बासिल राजपक्षे – ने अपनी पार्टी श्रीलंका पोडुजाना पेरुमना के लोगो को बसों में भर-भर कर इकट्ठा किया और इस शांतिपूर्ण धरने पर बर्बर हमला बोल दिया।

जिसे मीडिया का एक हिस्सा अराजकता कह रहा है, वह दरअसल सत्ता पार्टी की अराजक हिंसा के खिलाफ फूट पड़ा जनता का आक्रोश है।

राजपक्षे परिवार और उनकी पार्टी ने राजनीति के लिए धार्मिक कट्टरता को अपना जरिया बनाया था :
पहले अहिंसा के लिए जाने जाने वाले बौद्ध धर्म के भीतर कट्टरता पैदा की गयी, उसके बाद भाषाई गौरव के नाम पर संकीर्णता भड़काई गयी और,
इसी के साथ कथित अतीत के गौरव को लेकर अंधराष्ट्रवाद का उन्माद पैदा किया गया।
विकास – विकास और विकास का शोर मचाया गया।
विरोध और असहमतियों को कुचलने के लिए हिंसा और बर्बरता के हर संभव तरीके अपनाये गए। हमले करना और आग लगाना आम प्रचलन में लाया गया।

पहले इन हमलों का निशाना तमिल हिन्दू बनाये गए, उसके बाद मुसलमानों को शिकार बनाया गया। जनता से विवेक पूरी तरह छीन लिया गया। और जैसा कि दुनिया भर के अनुभवों से जाहिर है, धर्मान्धता का सहारा लेकर राष्ट्रवादी उन्माद पैदा करने वाली ताकतें देश और जनता को आर्थिक रूप से लूटने वाले गिरोह की पक्की साथी होती हैं, यहां भी वही हुआ। जैसे-जैसे जनता बर्बाद होती गयी, वैसे-वैसे धर्मान्धता और कट्टरता हमलावर होती गयी।

इस बीच राजपक्षे एंड ब्रदर्स और उनकी पार्टी ने जनता के पैसे लूटने के सारे तरीके आजमा डाले :

पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतें आसमान छूने लगीं। सरकार के खजाने का दीवालिया पिट गया। इसके पीछे अतीत के गौरव की बेहूदी समझदारी के चलते अपनाई गयी मूर्खतापूर्ण नीतियां मुख्य रूप से जिम्मेदार थी।

पुरातनपंथी पार्टी ने पूरे श्रीलंका में खेती में रासायनिक खाद के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। नतीजा यह निकला कि चावल, शक्कर सहित खाद्यान्नों की उपज घटकर एक तिहाई रह गयी। लोगों की भूख मिटाने के लिए खाद्यान्नों —

विशेषकर गेहूं, दाल, अनाज और चीनी का आयात करने के लिए अरबों डॉलर खर्च करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
नतीजा यह निकला कि विदेशी मुद्रा का 70 प्रतिशत से ज्यादा भण्डार खाली हो गया। आयात-निर्यात का संतुलन एकदम गड़बड़ा गया।

श्रीलंका के खजाने में सिर्फ 2 अरब डॉलर रह गए, जबकि कर्ज चुकाने के लिए ही 4 अरब डॉलर से ज्यादा चाहिए थे। जीडीपी के 10 प्रतिशत से अधिक की आमदनी जिस पर्यटन से होती थी, कोरोना महामारी ने उसे ठप्प करके रख दिया। रही-सही कसर रूस यूक्रेन के युद्ध ने पूरी कर दी।

इस अत्यंत संकटपूर्ण स्थिति में भी राजपक्षे और उनकी पार्टी एक तरफ अतीत के गौरव, दूसरी तरफ धर्मान्धता के रेडियो की आवाज तेज करती रही – बर्दाश्त की सारी सीमाएं टूट गयीं, तो 9 मई आ गयी और जनता का रोष सड़कों पर फूट कर बह निकला।

श्रीलंका सिर्फ घटनाविकास नहीं है — यह एक सबक है और वह यह है कि देश और दुनिया के लुटेरों की गोद में बैठकर घंटे-घंटरियाँ बजाने वाले, धर्म आधारित राष्ट्र का नारा लगाने वाले फर्जी राष्ट्रवादी खुद तो डूबते ही हैं, देश को भी डुबोकर मानते हैं।

संयोग की बात है कि श्रीलंका में यह सब 9 मई को सडकों पर नजर आया — वर्ष 1945 में 9 मई की यही तारीख थी, जब लाल झंडे की अगुआई में पूरी दुनिया की लोकतंत्र और इंसानियत पसंद जनता ने हिटलर को निर्णायक रूप से हराया था। श्रीलंका हिटलरी विचार और व्यवहार वाले नेताओं और संगठनो के लिए एक संदेश भी है।

ध्यान दें : ऐसी ही परिस्थितियां भारत नाम के देश में भी नजर आ रही हैं। यदि लक्षण वही हैं, तो बीमारी भी वही होगी और यदि बीमारी वही है तो इलाज भी वही होगा। दुनिया में हुआ है – यहां भी होगा।

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं,)

लेखक के अपने विचार है

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