लेख/ हर्षवर्धन

पहचान की राजनीति के इस दौर में शहीद अशफ़ाक़उल्ला ख़ान को आम तौर पर सिर्फ़ एक ‘मुसलमान’ क्रांतिकारी के तौर पर याद किया जाता है। एक तरफ़ देश की प्रगतिशील धारा उनको भारत के स्वतंत्रता संग्राम की धर्मनिरपेक्ष भावना और सांप्रदायिक सद्भाव के उत्कृष्ट प्रतिनिधि के रूप में  याद करती हैं तो वही दूसरी ओर दक्षिणपंथी धारा उनको एक ऐसे ‘अच्छे मुसलमान’ की तरह जिसने भारत माता के लिए जान दे दी। और ऐसा करते हुए दक्षिणपंथी धारा अपने को तथाकथित ‘सच्ची धर्मनिरपेक्षता’ की तरह पेश करती है। आम तौर पर दोनों ही धाराओं में अशफ़ाक़ के सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ‘मुसलमान’ होने पर जोर दिया जाता है। इस वजह से उनसे संबंधित कई पहलू और विचार पीछे छूट जाते हैं।

आज अशफ़ाक़ का 121 जन्मदिन है। आइये, इस मौके पर हम उनकी  वैचारिकी की थोड़ी चर्चा करते हैं।

अशफ़ाक़ का जन्म 22 अक्टूबर सन् 1900 में शाहजहांपुर के एक संपन्न जमींदार परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शफ़ीक़ुल्ला खान और माता जी का नाम मज़हरुनीसा था। अशफ़ाक़ जब सातवीं कक्षा में थे तभी उनके स्कूल में अंग्रेज़  पुलिस ने `मैनपुरी षडयंत्र केस’ (1918) के सिलसिले में राजाराम भारतीय को पकड़ने के लिए छापा मारा था। यूं तो अशफ़ाक़ बंगाल के क्रांतिकारी खुदीराम बोस और कन्हाई लाल दत्त की शहादत से प्रभावित थे लेकिन उनकी आँखों के सामने हुई इस घटना ने उनके ऊपर काफी असर डाला और वे क्रांतिकारी पार्टी, `हिप्रस’ यानी हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ (जो बाद `हिसप्रस’ यानी `हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ बना) से संपर्क करने की कोशिश करने लगे। बहुत जद्दोजहद के बाद उनकी मुलाकात `मैनपुरी षडयंत्र’ में ही फरार रामप्रसाद बिस्मिल से हुई और वे क्रांतिकारी पार्टी में शामिल हुए।

हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ (हिप्रस) के सदस्य रहते हुए अशफ़ाक़ ने संगठन की तरफ से कई  `एक्शन’ में हिस्सा लिया।  जब क्रान्तिकारियों ने काकोरी में ट्रेन में मौजूद सरकारी खजाने को लूटने का निर्णय किया तब अशफ़ाक़ उस ‘एक्शन’ के खिलाफ थे क्योंकि उनका मानना था कि सरकारी खजाने को लूट कर क्रांतिकारी दल सीधा अंग्रेज़ सरकार पर हमला कर रहे हैं जिसके परिणाम संगठन के लिए विनाशकारी साबित हो सकते हैं। चूंकि दल अभी भी छोटा था इसलिए ये आशंका जायज भी थी। लेकिन जब दल ने ऐसा करने का फैसला किया तो एक अच्छे सिपाही की तरह वह उस कार्यवाही को अंजाम देने में अग्रिम पंक्ति में रहे।

अशफ़ाक़ के विचार

अशफ़ाक़ जब जेल में बंद थे तब उन्होंने अपनी एक छोटी ही आत्मकथा लिखी जिसमें उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन यात्रा पर प्रकाश डाला। अपने शुरुआती जीवन में वे ‘सर्व इस्लामवाद’ के पैरोकार थे। उनके ये विचार बाल्कन युद्ध और ओटोमन साम्राज्य के विघटन से प्रभावित थे। उनका राष्ट्रवाद की तरफ झुकाव स्कूल में पढ़ाई करते हुए हुआ, जिसमें उनके एक शिक्षक की बहुत अहम् भूमिका थी। इस शिक्षक ने उनको एक किताब दी थी जिसका नाम था ‘दुनिया भर के मुहिब्बाने वतन’। अपने ‘सर्व-इस्लामवाद’ की अपने पूर्व विचारों पर सोचते हुए अशफ़ाक़ लिखते हैं, “गरज कि उस वक़्त का ख्याल आज मुझे बहुत ज़लील मालूम होता है…वह मेरी नासमझी का जमाना था।”

अशफ़ाक़ को सबसे ज़्यादा प्रभावित किया था सर वॉटरस्कॉट की लिखी एक कविता जिसका शीर्षक था, ‘लव ऑफ कंट्री’। ये कविता पुबिलियस होरटियस कोक्लिस (रोमन साम्राज्य का एक सैनिक, जिसने रोम को एट्रस्केन सेना के हमले से बचाया था) पर लिखी गई थी। इसको उन्होंने अपनी आत्मकथा और देशवासियो के नाम आखिरी चिट्टी में उद्धृत किया।  अंग्रेजी की इस कविता की कुछ पंक्तियां  इस प्रकार हैं…

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