सरकारें चाहें कांग्रेस की हों, भाजपा की हों – आदिवासियों हक की लड़ाई ठान रखी है

सरकारें चाहें कांग्रेस की हों, भाजपा की हों या मिलीजुली, यह बरदाश्त करने को तैयार ही नहीं कि देश या राज्य का कोई वर्ग आजाद रहने का हक रखता है.

लगभग पूरे देश के पहाड़ों पर रहने वाले आदिवासियों को शहरी धार्मिक जीवन पसंद नहीं आया है. वे पहाड़ों में खुश हैं, मस्त हैं. वे अपनी सूखी रोटी, जानवरों के शिकार और फलफूल के सेवन से तंदुरुस्त हैं. अफसोस यह है कि शहरी लोग उन्हें जबरन अपने ढांचे में ढालना चाह रहे हैं और उन के पहाड़ों, जमीन, जंगलों पर कब्जा करना चाह रहे हैं. ज्यादातर आदिवासियों ने तो शहरी हमलों का मुकाबला नहीं किया पर छत्तीसगढ़, उत्तराखंड , पश्चिम बंगाल में ऐसे टुकड़े हैं जहां आदिवासियों ने माओवादी झनडे के नीचे इकट्ठे हो कर सत्ता से लड़ने की ठान रखी है.
पिछले 10 सालों में जहां 1,700 शहरी, पुलिस व सुरक्षाकर्मी मारे गए हैं, वहीं कई गुना बेगुनाह आदिवासी मारे गए हैं और हजारों विभिन्न जेलों में सड़ रहे हैं. माओवादियों को कौन बहका रहा है, यह सवाल इतना जरूरी नहीं है जितना कि हम क्यों नहीं उन को उन के हाल पर छोड़ सकते. क्या उन के जीवन में दखल देने के पीछे जंगलों में छिपे पेड़, जमीन के नीचे के कोयले व लोहे पर गिद्द नजर होने के साथ आदिवासियों को गुलाम बना कर उन से सेवा लेने की इच्छा है?
सरकारें चाहें कांग्रेस की हों, भाजपा की हों या मिलीजुली, यह बरदाश्त करने को तैयार ही नहीं कि देश या राज्य का कोई वर्ग आजाद रहने का हक रखता है. हर सरकार को अपनी धौंस जमाने की इतनी आदत हो गई है कि वह जबरन आदिवासियों के इलाकों में पहुंच रही है. कुछ जगह आदिवासियों ने अपने बचाव में हथियार उठा लिए हैं और छत्तीसगढ़ में अप्रैल के प्रथम सप्ताह में हुआ खूनी संघर्ष इसी का नतीजा है. जहां सरकारविरोधी शहरी को मारनेपीटने के बाद उसे जेल में ठूंस कर उस के घर की औरतों का रेप कर व पैसा जब्त कर उसे जबरन चुप किया जा सकता है, वहीं ये आदिवासी चुप होने को तैयार नहीं हैं, हार मानने को तैयार नहीं हैं.
सरकार का दखल असल में ज्यादा जिम्मेदार है बजाय इस के कि आदिवासियों को ट्रेनिंग देना या हथियार मुहैया करवा देना. आदिवासी अपनी मेहनत का बहुत बड़ा हिस्सा अपना वजूद बनाए रखने में खर्च कर रहे हैं, पेट काट कर वे हथियार जमा करते हैं, पुलिस व प्रशासन में घुसपैठ करते हैं, मीलों अपने गांवों को छोड़ कर जंगलों में छिपते हैं, जान दे कर अपने साथियों को बचाते हैं. असल में यह हक हर नागरिक का है, हर स्त्रीपुरुष का है, पर ज्यादातर को हांक कर, फुसला कर, लालच दे कर, बहला कर, भगवा या राष्ट्रप्रेम का पाठ पढ़ा कर उन का ब्रेनवाश कर लिया जाता है. शहरी लोग अब विरोध करना भूल गए हैं. वे पालतू कुत्ते जैसे हो गए हैं जो सुरक्षा के बदले अपनी स्वतंत्रता खो चुके हैं.
आदिवासियों से किसी तरह की सहानुभूति नहीं रखी जा सकती पर सरकारों को भी उन के जीवन में दखल न देने की आदत डालनी होगी. आदिवासी चाहे गुजरात के हों, हिमाचल के हों, अंडमान के हों, सब को अपनी आजादी मिलनी चाहिए. शहरी सुविधाएं हरेक पर थोपने और बदले में अपनी जीवनशैली छोड़ने को मजबूर करना ठीक नहीं है. यह आदत समाजों और देशों को तोड़ती है और यही देशों के बीच लड़ाई की वजह बनती है.
साभार सरिता

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