मै बीज हूँ – सरिता महाबलेश्वर सैल

मै बीज हूँ असीम सहनशक्ति से भरा
मैं गलूँगा मिट्टी में और फिर पनपुंगा इसी मिट्टी में
जब-जब सूरज धरा को रूई सम जलायेगा
मैं अपनी कवच पर असीम पीड़ा झेलूँगा
मैं भूख कि आंखो में चमकता चाँद हूँ
मैं खलिहानों के खुशहाली का गीत हूँ
मै बैलों के गले की घंटियों के घुँघरू की आवाज़ हूँ
मै कड़कती बिजली में खडा़ सिपाही हूँ
मै पाषणी ह्रदय में पनपती नमी हूँ
मै धरा की उर्वरता का नाजुक-सा अंग हूँ
मै चूल्हे की लपटों का स्मित-सा हास्य हूँ
मै तश्तरी में बैठी वंसुधरा का अंश हूँ
मै बोरियों से घिरे मज़दूर के पसीने की बूंद हूँ
मै संसद कि गलियारों में उमडती भीड़ हूँ
मै कच्ची पगडंडियों से निकली न्याय कि पूकार हूँ
मै किसान की आँखों का सवाल हूँ
मै सियासती दावपेंच का नीरस-सा जवाब हूँ…

साभार कविता कोश 
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सरिता महाबलेश्वर सैल

सांगेम, गोवा.

 

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