साहित्य,
जे अँगना अवतरत हे, बेटी
घर उजियारा करत हे, बेटी।
कतको दीया जला लौ घर मा,
सबले सुघ्घर बरत हे, बेटी।
रूढ़ी-वादी आग बुता गे,
चुलहा मा नइ जरत हे,बेटी।
मरियादा ला तोप के राखव,
लज्जा के कइ परत हे, बेटी।
गरभ- कोख मा मत मारौ जी,
दुख – पीरा ला हरत हे, बेटी।
– बलराज सिंह ‘बल्लू-बल’