जहाँ पर संतो का, गुरु जनों का अनादर हो, जो गुरु का, संत का अपमान करें उसकी लंका में आग लग जाती है …”श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी)”

गुरु वाणी, 

रामचरितमानस के कथा के माध्यम से परम् पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) की मुखारबृन्द से कथा अमृतधारा का रसपान करने का सौभाग्य हम सभी को मिल रही है, कथा में हनुमान जी और रावण के माध्यम से यह बताया गया कि अभिमान और मोह से ग्रसित लोग संत को पहचान नही पाते, जब मनुष्य के पास अहंकार आ जाता है वही कर बैठता है जो रावण ने किया, कीड़ी की बात सुनने को तैयार नही है, सभी समझाते है लेकिन स्वयं को ही श्रेष्ठ समझते है। रावण अपने अभिमान में आकर हनुमान जी की पूंछ में आग लगा देते हैं ,उसकी सोने की लंका जल जाती है, भगवान इस माध्यम से शिक्षा देते हैं कि अपने अंदर की संतत्व को, ज्ञान को, अपमान नहीं होने देना है । अपनी अंदर की सुनना अन्यथा यह शरीर रूपी लंका उसी तरह जल जाती जिस तरह रावण की सोने की लंका जल जाती है । अर्थात जीवन में कलह आ जाता है , दुख,भय,चिंता, संताप प्रवेश कर जाता है सब कुछ होते हुए प्रसन्नता नही होती है, जो अपना ही नहीं अपितु पूरे समाज का पूरे परिवार का विनाश कर डालता है ।
भगवान राम शत्रु का भी कल्याण चाहते हैं वही संतत्व है जो शत्रु का भी भलाई चाहे,कल्याण चाहे वही संतत्व है लेकिन अहंकारी रावण मानने को तैयार नहीं है।

जब कीचड़ को साफ करना हो तो कीचड़ में उतरना पड़ता है अर्थात सज्जन व्यक्ति को सामने आना पड़ता है.

समाज में जब दुष्टों का अत्याचार बढ़ जाए तो सज्जनों को सामने आना पड़ता है भगवान राम भी लंका में धर्म की स्थापना करने के लिए प्रवेश करते हैं ।
हमारी भारत भूमि में पहले सज्जनता दिखाई जाती है साधुता दिखाई जाती है लेकिन जब लोग इसका महत्व ना समझे ,इसको ना माने , उसका तिरस्कार कर दे ,उसका अपमान कर दे फिर जो भारत की यह संस्कृति है भारत की , प्रकृति की रक्षा के लिए फिर वहां सैनिक भी भेज देते हैं
फिर भारत की आत्मा भारत के लोग सैनिक भी भेज देते हैं ।
भगवान राम पहले हनुमान जी को भेजते हैं जब रावण समझने को तैयार नहीं होते फिर दूत के रूप में अंगद जी को भेजते हैं ।
महावीर मात्र हनुमान जी को कहा गया और किसी को नहीं राम को भी नहीं , अंगद जी हनुमान जी को बहुत छोटा बताया क्योंकि हनुमानजी में कोई अभिमान नहीं है और हनुमान जी कभी अपना प्रशंसा नहीं सुनना चाहते जो अभिमान से रहित हो वह स्वयं की प्रशंसा नहीं सुनना चाहते अपने आराध्य की प्रशंसा में प्रसन्न रहते हैं और जो अभिमानी है वह स्वयं की प्रशंसा में खुश होते हैं यह अंगद जी और रावण के संवाद के माध्यम से बताया गया ।

प्रेम और शत्रुता यह हमेशा बराबरी वालों में होती है 

रावण तमोगुणी है और राम सतोगुण है , रावण के अंदर ना तो प्रेम है ,अपितु शत्रुता है, विचार नहीं मिल पा रही है।
अंगद जी कहते हैं कहां राम रघुनायक सकल सुखदायक … और कहां तुम ?

यह तो बराबर वालों की भाव में होती है साथ में टूटे हुए मन से हारे हुए मन से कभी भी कोई खड़ा नहीं हो सकता है ।
रावण टूट गया था अंगद जी उसको यह भी कह गए थे, रावण तुम पूरे परिवार के साथ त्राहिमाम त्राहिमाम करते हाथ जोड़कर भगवान राम के शरण में चले जाओ और माता जानकी को आगे रखिए पीछे आप और पूरा परिवार भगवान राम परम दयालु है शरणागत वत्सल है वाह आपकी अपराध क्षमा कर देंगे ।

अंगद जी ने क्षत्रिय जाति की महत्व बताया

जो सबके अंदर क्षत्र दिया है धर्म की स्थापना के लिए इस भारत के लिए ,प्रकृति के लिए, मूल आत्मा के लिए, भारत माता के लिए,राष्ट्र के लिए, हमेशा रक्षा करने के लिए खड़े रहते हैं धर्म जिसका साधन है वह व्यवस्था के बिगड़ने पर बिगड़ते हुए देखकर बिगड़ जाता है फिर उसे कोई नहीं बचा सकता भगवान राम भी क्षत्रिय है ,अंगद जी रावण को चेतावनी देते हैं कि राम भगवान का क्षत्रिय कहीं जागृत हो गई तो तुम्हें कोई नहीं बचा सकता परशुराम जी भी बहुत क्रोधित होकर आए थे लेकिन जनक जी की सभा में जब भगवान राम एक बार मुस्कुरा देते हैं उसका क्रोध शांत हो जात हैं ।

जिसके रोम- रोम में आनंद हो जिसका रोम-रोम गदगद हो वही अंगद हो सकता है 

रोम -रोम में आनंद और गदगद हो, भगवान मे जो लीन है वही गदगद रहेगा । अंगद जी दो प्रकार की लोग बताए , एक जो शरीर से जीने वाला है और दूसरा त्याग से जीने वाला । यह दोनों का वर्णन किया , देही और वैदेही । अंगद जी सतोगुणी है शांत है और रावण तमोगुणी है, रावण शरीर से जी रहा है। जो नाशवान है लेकिन रावण शरीर को ही सब कुछ समझते हैं। कथा में अंगद और रावण के संवाद के माध्यम से यह बताया गया कि दोनों में क्यों बहस होती है? क्योंकि यह हमारे अंदर ही है हमारे अंदर ही लंका है हमारे अंदर अंगद है और हमारे अंदर रावण भी है अर्थात हमारी अपने गुण ही रावण और अंगद है । दोनों में बहस हो रही है ,रावण मोह का प्रतीक है, वह अपनी प्रशंसा सुनना चाहता है ,अभिमानी है, सब कुछ स्वयं पा लेना चाहता है और जब मोह हो जाता है तो महाभारत हो जाता है वो हमेशा अपने ही प्रशंसा में खुश रहता है । जबकि अंगद जी संत है, अंगद जी के अंदर त्याग है ।
यह दोनों में तारतम्यता नहीं होती, दोनों के विचार नहीं मिल रहे हैं। यह सब हमारे अंदर होता है हमारे शरीर के अंदर एक तरफ तमोगुण होता है , दूसरी तरफ सतोगुण । तमोगुण जो हमें आगे नहीं बढ़ने देता जबकि सतोगुण हमे सतर्क करता है हर चीज में रोक लगाते हैं कि हम गलत कर रहे हैं।
यह दोनों में तारतम्यता नहीं होती, अंगद जी और रावण में बहस हो रही है, दोनों के विचार नहीं मिल रहे हैं। यह सब हमारे अंदर होता है हमारे शरीर के अंदर एक तरफ तमोगुण होता है , दूसरी तरफ तमोगुण जो हमें आगे नहीं बढ़ने देता जबकि सतोगुण हमे सतर्क करता है हर चीज में रोक लगाते हैं कि हम गलत कर रहे हैं।
मनुष्य जिसमें अपना भलाई समझता है वह रावण बताना चाहता है सब कुछ प्राप्त करके शारीरिक सुख में ही हमारी भलाई है । अपितु अंगद जी यह बताना चाहते हैं कि आनंद की प्राप्ति कैसे होती है ? धर्म के मार्ग में चलकर, भगवान में विलीन रहकर, आनंद की प्राप्ति होती है ।

अंगद जी रावण को दर्पण दिखाते हैं

संत और गुरु हमेशा हमें दर्पण दिखाते हैं सच्चाई से अवगत कराते हैं लेकिन दर्पण को वही देख सकता जिसके पास विवेक रूपी नेत्र हो ।
रावण तो मोह में,अभिमान में ढके हुए हैं कालिख है उसको दर्शन का कोई लाभ नहीं होता है, अभिमानी व्यक्ति कभी दर्पण में स्वयं का सत्य का दर्शन नहीं कर सकता ।
जो मोह से ग्रसित हो अभिमान से ग्रसित हो उसको दर्पण दिखाई नहीं देता ना ही वह देख सकता है ना सुन सकता है इसके लिए रावण को दिखाया गया ।
अंगद जी रावण को टकटकी लगाकर देखते हैं रावण पूछते क्या देख रहे हो अंगद जी कहते हैं हनुमान जी ने कहा था कि लंका में एक विचित्र दिखाई देगा रावण पूछते हैं कि वह क्या? अर्थात दस सिर , 20 कान वाले अंधे और बहरे है ,उसी को देख रहा हूं ।
अंगद जी कहते हैं कि भगवान शिव और ब्रह्मा जिनकी आराधना करते हैं, जिनकी सेवा करते हैं, जिनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं मैं उनके चरणों का दास हूं । मैं दूत हूं, संतो को धारण करके किसी स्त्री का चोरी करना ,हरण करना, क्या यही धर्म है ? इसी कारण लोग संत पर संदेह करने लगे है।
एक तरफ भगवान राम है जो भाई के लिए राज्य त्याग दिए वन में है ,
रावण ने अंगद जी को कहा जिस प्रकार नदी के वृक्ष पानी में बह जाते तुम लोग उसी प्रकार हो ।
जो भगवान के शरण में होते हैं वह कभी भयभीत नहीं होते अंगद जी बिना किसी डर के रावण की सभा में अपने स्वामी का गुणगान कर रहे हैं, और रावण को सत्य का दर्शन करा रहे हैं। अंगद जी कहते हैं कि तुम कौन से रावण हो एक जो जटायु और संपाती बार बार निकल गए थे फिर बाहर निकाले दूसरा जिस है मेरे पिताजी बाली ने काक में दबा लिए थे और तीसरा जिसे जटायु ने मूर्छित के थे । रावण अपनी प्रशंसा अपने ही मुख से स्वयं करते हैं लेकिन अंगद जी हितकार्य देते हैं दुष्ट व्यक्ति अपनी तारीफ स्वयं करते हैं अभी तो सज्जन व्यक्ति कभी प्रशंसा सुनना ही नहीं चाहते। पूज्य गुरुदेव जी दैनिक जीवन से जुड़ी कई बातें कथा के माध्यम से बताए।

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