शून्य से शिखर की तरफ बढ़ते रहे कदम,
राहों में कभी उठते कभी गिरते रहे हम।
चलते चलते कही फिर से रुक गये हम,
बोझ जिंदगी का उठा कर थक गये हम।
मंजिल तो सामने थी पर नजर धुंधला गई,
जल्दबाजी की ऊहापोह में थोड़ी अकुला गई।
शून्य आँखो से देखती हूं इस ऊंचे शिखर को,
कभी अपनी चाहों को कभी थकी नजर को।
दिखते नहीं अब वो इस जहाँ में मुझको,
हिम शिखरों के पार आंखे ढूंढती उनको।
रश्मि शर्मा “इंदु”
जयपुर