न्यूटन से विदुर तक : लखीमपुर खीरी पैटर्न और क्रोनोलॉजी – बादल सरोज

अभिव्यक्ति  

गांधी के जन्म दिवस के ठीक अगले दिन लखीमपुर खीरी में विरोध प्रदर्शन करके वापस लौट रहे किसानों को गाड़ियों से रौंदने का, निर्ममता के फ़िल्मी दृश्यों को भी पीछे छोड़ देने का, जो कांड घटा है, वह एक लम्पट अपराधी से अमित शाह का दो नंबर बने गृहराज्य मंत्री के बिगड़ैल बेटे का कारनामा नहीं है। यह मोदी के न्यू इंडिया का अगला एपिसोड है। नाट्यशास्त्र की भाषा में वाचिक से आंगिक हो जाने वाला एपिसोड। रक्षक और खलनायक के एकरूप होकर एक ताल में मसान भैरवी गाने वाला एपिसोड। यह यूपी पुलिस, जिसको कभी इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस आनंद नारायण मुल्ला ने “गुंडों का संगठित गिरोह” कहा था और हर वक़्त सप्तम स्वर में चिंघाड़ने वाले रविशंकर प्रसाद ने “मोदी की सेना” करार दिया था, उसका और संघ-भाजपा का एक दूसरे में गड्डमड्ड हो जाना है। निर्द्वन्द्व और निरंकुश तानाशाही इसका अंतिम लक्ष्य है।

जिन किसानों को तेज रफ़्तार से गाड़ियों से रौंदा गया, वे प्रदर्शन करने नहीं जा रहे थे — प्रदर्शन करके लौटकर वापस आ रहे थे। यूपी के डिप्टी सीएम एक स्थानीय कुश्ती के मुकाबले को देखने जिस हेलीकॉप्टर से उतरने वाले थे, वह किसानों के प्रतिरोध को देखकर वापस लौट चुका था। मंत्री पुत्र की अगुआई में आयी गाड़ियों ने उन्हें पीछे से कुचल कर मारा है। इस बर्बरता की पटकथा कुछ दिन पहले खुद मोदी के गृह राज्य मंत्री टेनी मिश्रा बोलकर सुना गए थे। एक छोटी-सी किसान बैठक में ठेठ गुंडों की भाषा में बोलते हुए उन्होंने इसका आव्हान किया था और स्वयं की फेसबुक आईडी पर उसका वीडियो भी डाला था। आंदोलनकारी किसानों को धमकाते हुए कहा था कि “हम इन सबको सुधार देंगे, दो मिनट लगेगा केवल…”। इसके बाद अपनी हिस्ट्रीशीट का हवाला देते हुए मंत्री ने अपना अतीत याद दिलाया और कहा कि “मैं केवल मंत्री नहीं हूं या केवल सांसद या विधायक नहीं हूं। जो लोग हैं, विधायक या मंत्री बनने से पहले मेरे बारे में जानते होंगे कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं…'”। यह अकेले इस मंत्री का एलान नहीं था। ठीक यही बात, बल्कि इससे आगे की बात हरियाणा के संघ स्वयंसेवक भाजपा मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर अपने “कार्यकर्ताओं” से कह रहे थे कि आंदोलनकारी किसानों के खिलाफ “उठा लो डंडे। ठीक है। मुकद्दमे लगे, तो वो भी देख लेंगे। और दूसरी बात यह है कि जब डंडे उठाएंगे, तो जमानत की परवाह मत करना, महीना, दो महीना, छह महीना अंदर रह आओगे, तो बड़े लीडर अपने आप बन जाओगे। चिंता मत करो। इतिहास में ऐसे ही नाम लिखा जाता है।’” इसके लिए बाकायदा 500-700 या हजार किसानों का दस्ता तैयार करके जगह-जगह टूट पड़ने का आव्हान करते हुए वे धृतराष्ट्र के छोटे भाई विदुर की नीति “कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्विंसिते प्रतिहिंसितम/ तत्र दोषं न पश्यामि शठे शाठ्यं समाचरेत्॥” का पाठ ही नहीं पढ़ा रहे थे – संस्कृत की हिंदी करके जैसे को तैसा करने की दीक्षा भी दे रहे थे। यह बात एक निर्वाचित सरकार का वह मुख्यमंत्री बोल रहा था, जिसके पास पहले से ही सीधे सर तोड़ने का हुकुम देना वाले एसडीएम और उसे लागू करने वाली पुलिस का भरा-पूरा अमला है।

न टेनी मिश्रा को हिस्टीरिया का दौरा पड़ा था, न खट्टर सन्निपात में थे। यह इनकी नहीं, इन दोनों ने प्रधानमंत्री मोदी के “मन की बात” की थी। इसका शुभारम्भ वे ओपन मैगज़ीन को दिए इंटरव्यू में कृषि कानूनों का विरोध करने वाले आंदोलन को “बौद्धिक बेईमानी और राजनीतिक धोखाधड़ी” बताकर कर चुके थे। यह एक पैटर्न, एक क्रोनोलॉजी का हिस्सा है – जिसे ठीक इसी वक़्त सुनवाई के लिए स्वीकार की गयी याचिकाओं के दौरान सुप्रीम कोर्ट की दो अलग-अलग — एक जस्टिस खनविलकर और दूसरी जस्टिस एस के कौल — की खंडपीठों की सन्दर्भ से कटी टिप्पणियों के साथ पढ़ा जाना चाहिये। जिस कथित किसान महापंचायत नाम के याचिकाकर्ता का वर्तमान किसान आंदोलन से दूर-दूर तक संबंध नहीं है, उसे सुनते हुए “या तो कोर्ट आओ या आंदोलन करो” की अयाचित टिप्पणी और जिस रास्ते को दुनिया जानती है कि मोदी-शाह की पुलिस ने रोका हुआ है, उससे होने वाली कथित परेशानी से दिल्ली की सांस घुट जाने जैसी अतिशयोक्तिपूर्ण टिप्पणी इस क्रोनोलॉजी को चाहे-अनचाहे आगे बढ़ाती है। सुप्रीम कोर्ट का यह दावा कि “सरकार ने तीनों किसान अधिनियमों पर पहले ही रोक लगा दी है, कि सरकार ने आश्वासन दिया है कि ये अधिनियम उसके अंतिम फैसले तक निलंबित रहेंगे, इसलिए आंदोलन क्यों हो रहा है?” तो सरासर निराधार है। अब तो यह स्थापित और प्रमाणित तथ्य है कि अडानी के गोदामों में हजारों लाखों टन सरसों और उसका तेल जमा है, जिसके चलते कायम की गयी मोनोपोली की कीमत तेल की बड़ी-चढ़ी कीमतों से देश की जनता चुका रही है। यही नहीं, पूरे देश में, कृषि कानूनों के अध्यादेश के लिखे जाने से पहले ही तनकर खड़े हो गए अडानी के साइलो हजारों टन अनाज से भरे पड़े हैं। अगर नए वाले कृषि क़ानून और आवश्यक वस्तु क़ानून लागू नहीं हुए, तो अडानी किस क़ानून के तहत खरीद कर रहे हैं और असीमित भण्डार भर रहे हैं? (कल सीजेआई रामन्ना की खंडपीठ ने दो वकीलों की जनहित याचिका पर सुनवाई शुरू कर उत्तरप्रदेश सरकार से जवाब माँगा है, जो इन दो खंडपीठों से अलग और स्वागतयोग्य हस्तक्षेप है।)

महाभारत की विदुर नीति के “शठे शाठ्यम समाचरेत:” को गीतोपदेश की तरह सुनाया जाना गुजरात के दंगों के वक़्त उच्चारित किये न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया सिद्धांत के प्रलाप से आगे की बात है। यह सिर्फ फासिस्टी तूफानी दस्तों को अभयदान देकर छुट्टा छोड़ने तक सीमित नहीं है। लखीमपुर खीरी में जो, जिस तरह से किया गया है, उसका एक और उद्देश्य है — किसानों को उकसाना। उन्हें इतना जलील करना कि वे अपना आपा खो बैठें और उसके बाद दस महीने से जबर्दस्त शांतिपूर्ण तरीके से जारी इस किसान आंदोलन को पहले बदनाम करने, फिर कुचलने का कोई “राइख़्स्टाग पल” रचा जा सके। मगर किसान सजग हैं – अपने धीरज का सबूत वे लखीमपुर में भी दे चुके हैं। जहां गंभीर रूप से घायल होने के बाद भी किसान नेता भीड़ को संयमित करने में जुटे थे।

मोदी सरकार द्वारा खड़ा किया जा रहा यह लाक्षागृह 27 सितम्बर के भारत बंद की शानदार सफलता से उपजी खीज का नतीजा है। किसानों के साथ मजदूरों, महिलाओं, छात्र और युवाओं के शामिल होने से देश की जनता की एकता में आये गुणात्मक निखार से सत्तासीनों के चेहरे कुम्हलाये हुए हैं। अगर वे डर रहे हैं, तो ठीक डर रहे हैं – जरूरत इस एकता को और व्यापक और नतीजापरक बनाने की है। मिशन यूपी और मिशन उत्तराखंड को उसकी तार्किक परिणीति तक पहुंचाने की है। आगे बढ़ने और उसके लिए अड़ने की है – जिसे लखीमपुर खीरी के साथ खड़े हुए देश के किसानों ने 4 अक्टूबर की देशव्यापी कार्यवाहियों में उतरकर और योगी सरकार को मोदी के गृहमंत्री और उसके बेटे के खिलाफ हत्या करने और उसके लिए उकसाने का मुकदमा दर्ज करने तथा मृतकों को मुआवजा देने के लिए मजबूर करके साबित किया है।

लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के सम्पादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।

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