‘न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व’ है दिव्यचक्षु पुस्तक समीक्षा- डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया

साहित्य ।। रूद्रपुर (ऊधमसिंह नगर, उत्तराखण्ड) की डॉ. पूनम अरोरा द्वारा रचित ‘न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व’ पढ़ने का अवसर मिला। वर्तमान में लिखे जाने वाले साहित्यों में बाल साहित्य, नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी जीवन पर आधारित साहित्य आदि पर प्रचुर मात्रा में लेखनी चलाई जा रही है। लगभग सभी में एक-सी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, मानसिक आदि स्थिति दिखाई देती है। कहीं तथ्यों को सीमित दायरे में समेट लिया गया है, तो कहीं विस्तृत रूप में परोसा गया है। डॉ. पूनम की पुस्तक का विषय चलन से हटकर है । यह सनातन धर्म के धरातल पर न्याय को तर्कशास्त्र, प्रमाणशास्त्र, वादविद्या और आन्वीक्षिकी भी कहा गया है। पुस्तक को 6 अध्यायों में लिखा गया है तथा कुल 143 पृष्ठ हैं।

न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व
न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व

शास्त्रों में जीवन से संबंधित दर्शन के अंतर्गत 6 दर्शनों की बात की गई है, जैसे- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। ‘न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व’ पुस्तक में डॉ. पूनम ने 6 दर्शनों में से न्याय दर्शन को प्रस्तुत किया है। प्रथम अध्याय में लेखिका ने ‘दर्शन’ के आशय को समझाने हेतु अनेक भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों की परिभाषा को माध्यम बनाया है। जैसे-प्लेटो लिखते हैं-“पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।” डॉ. राधा कृष्णन लिखते हैं-“दर्शन यथार्थता के रूप का तार्किक ज्ञान है।” आदि।

इन्होंने जीवन में दर्शन और शिक्षा के संबंध को बड़ी मार्मिकता से दर्शाया है। अनेक स्थानों पर संस्कृत श्लोकों को अर्थ सहित रखा गया है, ताकि पाठक वर्ग सरलता से आत्मसात कर सके। शिक्षा के मूल बताते हुए लेखिका लिखती हैं कि, शिक्षा का प्रमुख कार्य स्वस्थ मनोवृत्तियों का निर्माण करना है, अत: दर्शन से शिक्षा को प्रेरणा ग्रहण करनी पड़ती है।

अक्सर यह माना जाता है कि, शिक्षा और दर्शन का कोई मेल नहीं होता, लेकिन लेखिका ने जॉन डिवी की परिभाषा द्वारा बताया, -” शिक्षा का अपना स्वतंत्र दर्शन है, जिसे हम दर्शन शास्त्र कहते है।” डॉ. अरोरा ने षड दर्शन के वर्गीकरण में सभी दर्शनों के नाम के साथ उनके आचार्यों, कालावधि (सदी) आदि का भी उल्लेख किया है। इतना ही नहीं, भारतीय दर्शन को बड़ी सरलता से एक प्रवाह तालिका (चार्ट) द्वारा दर्शाया है।

द्वितीय अध्याय में लेखिका ने न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम (अक्ष पाद गौतम) का जीवन परिचय, न्याय दर्शन का अर्थ, षड दर्शन तथा न्याय दर्शन के विकास की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को रखा है। महर्षि गौतम के जीवन परिचय में उनकी पत्नी अहिल्या (जिसे श्राप मिलने पर वह पाषाण बन गई थी, लेकिन त्रेता युग में प्रभु श्रीराम की चरण रज से शापमुक्त हो गई थी), वर्तमान में जिस छाते का उपयोग धूप, बरसात आदि से बचने तथा पैरों में पहने जाने वाले जूतों की उत्पत्ति का भी जिक्र किया गया है। महर्षि गौतम तथा अन्य मुनियों को गंगा ने कैसे पाप से मुक्ति दी, गंगा का ‘गौतमी’ कहलाना और उसके तट पर त्र्यंबकम शिवलिंग की स्थापना क्यों की गई ?, आदि का भी वर्णन किया गया है।

अगले अध्याय में पाठकों को न्याय दर्शन की दार्शनिक विचारधारा, तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा, जगत विचार, ईश्वर, नीति विचार, जीवात्मा तथा मोक्ष संबंधी विचार पढ़ने को मिलते हैं। न्यायिकों ने कितनी सुंदरता से परमात्मा का वर्णन किया है,-“एक बढ़ई लकड़ी काट कर, जोड़कर फर्नीचर बना लेता है, परमात्मा को भी इसी भांति अणुओं की सहायता से कार्य करते हुए दिखाया गया है।” कहने का तात्पर्य है कि, परमात्मा अनादि काल से चले आ रहे अणुओं से एक सुनिश्चित क्रम में संसार को चला रहे हैं। लेखिका ने तत्व मीमांसा के 16 पदार्थों को एक पाई तालिका द्वारा दर्शाया है और प्रत्येक पदार्थ की व्याख्या भी प्रस्तुत की है। ज्ञान क्या है, तथा उसके कितने प्रकार हैं, उसका उल्लेख भी प्रवाह तालिका सहित व्याख्या द्वारा भी किया गया है।

लेखिका पुस्तक का सफर आगे बढ़ाते हुए लिखती हैं- न्याय की भूमिका, न्याय का अर्थ, न्याय दर्शन में शिक्षा की भूमिका, पाठ्यक्रम, विधियाँ, शिक्षक-छात्र संबंध, विद्यालय, अनुशासन, न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व। कोई भी शिक्षक अपने छात्रों को विषय और जीवन संबंधी तभी पूर्ण ज्ञान प्रदान कर सकता है, जब उसकी विषय पर मजबूत पकड़ होगी। विषय पर अच्छी पकड़ और छात्रों के प्रश्नों के प्रति हाजिर जवाब होने पर ही छात्रों के हृदयतल पर वह विश्वास बना सकता है।

लेखिका ने दार्शनिकों के शब्दों में शिक्षा की व्याख्या प्रस्तुत की है, जैसे-महात्मा गांधी के शब्दों में,-“शिक्षा से मेरा अभिप्राय उन सर्वश्रेष्ठ गुणों का प्रकटीकरण है, जो बालक और मनुष्य के शरीर, मस्तिष्क और आत्मा में विद्यमान है।” वहीं फ्रॉबेल कहते हैं,-“शिक्षा वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा बालक की जन्मजात शक्तियाँ बाहर प्रकट होती है।”

लेखिका ने पुस्तक सुमन स्वरूप श्री गुरुनानक देव जी के शुभ चरणों सहित श्रद्धेय पिता स्व. रामप्रकाश भल्ला जी को समर्पित की है। पुस्तक को शुभकामनाओं से फलीभूत किया है डॉ. रंजना गुप्ता, श्रीमती अनिता मेहता तथा रीमा दीवान चड्ढा ने।

‘न्याय दर्शन का शैक्षिक महत्व’ शोधकर्ताओं और पाठकों के लिए अनूठा उपहार है, जो जीवन में शिक्षा और न्याय को दर्शाता है। पुस्तक में कुछ बिंदुओं के और अधिक विस्तार की आवश्यकता थी, जिससे शोधकर्ताओं और पाठकों को एक ही पुस्तक में विशेष जानकारी विस्तार पूर्वक प्राप्त हो सकती थी।

लेखिका की भाषाशैली सुंदर, सरल, प्रभावी तथा विषयानुसार होने के नाते प्रत्येक घटक को स्पष्ट करती चलती है। पुस्तक में विषय संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी के साथ उनके संदर्भ भी प्रस्तुत किए गए हैं। पुस्तक का मुख्य एवं मलय पृष्ठ रंगीन, आकर्षक व मन को प्रभावी लगने वाला है।आपकी कलम सदा साहित्य और समाज हित में ऐसा ही सार्थक सृजन करती रहे। लेखिका डॉ. पूनम अरोरा को उत्तम शोध पर आधारित पुस्तक प्रकाशन के लिए अशेष शुभकामनाएँ।

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