बस्तर की माटी आज भी भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श की गाथा को संजोए हुए

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The soil of Bastar Now
The soil of Bastar Now

पर्यटन; 7 अप्रैल । The soil of Bastar Now : बस्तर अंचल प्राचीन काल से ही अपनी समृद्ध आदिवासी संस्कृति, घने वनों और प्राकृतिक वैभव के लिए विख्यात रहा है। यह क्षेत्र ‘दंडकारण्य’ के नाम से भी जाना जाता है, जहां घने जंगलों, सुरम्य जलप्रपातों और गुफाओं के बीच आदिवासी जीवन अपनी मौलिकता के साथ पनपता रहा है।

बस्तर की धरती को श्रीराम के वनवास यात्रा से जोड़ा जाता

बस्तर की धरती को विशेष रूप से श्रीराम के वनवास यात्रा से जोड़ा जाता है। लोकमान्यता है कि भगवान श्रीराम अपने वनवास के दौरान इसी क्षेत्र से गुजरे थे और यहां के भील, कोल, किरात जैसे जनजातीय समुदायों के साथ आत्मीयता का संबंध स्थापित किया था। यही कारण है कि आज भी बस्तर के आदिवासी समाज में श्रीराम के प्रति गहरी श्रद्धा और आस्था विद्यमान है।

The soil of Bastar Now : बस्तर की माटी आज भी भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श की गाथा को संजोए हुए

बस्तर के ग्रामीण जीवन में प्रकृति और संस्कृति का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। यहां के प्रमुख आदिवासी समुदाय गोंड, मुरिया, मारिया, हल्बा, भतरा आदि अपनी विशिष्ट जीवनशैली, रीति-रिवाज और लोककथाओं के माध्यम से बस्तर की पहचान को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। पर्व-त्योहारों से लेकर नामकरण परंपराओं तक बस्तर की हर धड़कन में ‘राम’ की मधुर प्रतिध्वनि सुनाई देती है।

यह वनांचल केवल प्राकृतिक संपदा का भंडार नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक विविधता और आध्यात्मिक विरासत का एक जीवंत प्रतीक है।

बस्तर में श्रीराम नाम का जीवंत प्रमाण

इस गहरी आस्था का जीवंत प्रमाण यह है कि बस्तर के अनेक ग्रामीण अपने नाम के साथ ‘राम’ शब्द जोड़ते हैं। सुबाहुराम, बैदूराम, बलिराम, आशाराम, हुंगाराम, अंतूराम, भुरसूराम जैसे नाम आज भी इस क्षेत्र में आम हैं, जो भगवान श्रीराम के प्रति यहां के जनमानस की निष्ठा और सम्मान को दर्शाते हैं। बस्तर की मिट्टी आज भी प्रभु श्रीराम के चरण-स्पर्श की स्मृतियों को संजोए हुए है, और यहां की संस्कृति में रामभक्ति गहराई से रची-बसी है।

बस्तर के वनवासी समाज ने श्रीराम के इस उपकार को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोकर रखा

ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो बस्तर का प्राचीन नाम ‘दंडकारण्य’ था; वही पावन भूखंड जहां भगवान श्रीराम ने अपने वनवास काल के दौरान राक्षसी शक्तियों का संहार कर धर्म और न्याय की स्थापना की थी। बस्तर के वनवासी समाज ने श्रीराम के इस उपकार को पीढ़ी दर पीढ़ी संजोकर रखा है। यही कारण है कि यहां श्रीराम केवल एक आराध्य नहीं, बल्कि जीवन के मूल्यों और आदर्शों का प्रतीक बन गए हैं।

The soil of Bastar Now : बस्तर की माटी आज भी भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श की गाथा को संजोए हुए

आज भी जब बस्तर अंचल में श्रीरामनवमी का पर्व आता है, तो पूरा क्षेत्र श्रद्धा, उल्लास और भक्ति में सराबोर हो उठता है। श्रीराम के प्रति यहां का यह प्रेम और समर्पण भारतीय संस्कृति के उस स्थायी भाव का प्रतीक है, जो युगों-युगों से आस्था और परंपरा के सूत्र में समाज को बाँधे हुए है।

कैकई का हठ बस्तर और जनसामान्य के लिए एक महान वरदान

हाल ही में आयोजित ‘बस्तर पंडुम 2025’ महोत्सव में प्रख्यात कवि एवं श्रीरामकथा वाचक डॉ. कुमार विश्वास ने ‘बस्तर के श्रीराम’ विषय पर काव्यपाठ करते हुए गहन भावनाएं प्रकट कीं। उन्होंने कहा “हमें कैकई माता का आभारी होना चाहिए, जिनके कारण भगवान राम के चरण दंडकारण्य की इस पुण्यभूमि पर पड़े। कई बार शाप भी वरदान बन जाता है; कैकई का हठ बस्तर और जनसामान्य के लिए एक महान वरदान बन गया।”

भगवान श्रीराम ने वनवासी के बीच का भेद समाप्त कर दिया

डॉ. विश्वास ने इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला कि बस्तर आकर भगवान श्रीराम ने वनवासी और नगरीय सभ्यता के बीच का भेद समाप्त कर दिया। यह बस्तर ही था जहां आकर भगवान श्रीराम ने भील, कोल, किरात जैसे वनवासी समुदायों को गले लगाया। उन्होंने मानवता के उन वर्गों से प्रेम और अपनत्व का परिचय दिया, जिन्हें तत्कालीन समाज मुख्य धारा से अलग मानता था। श्रीराम ने अपने व्यवहार से यह संदेश दिया कि धर्म केवल आडंबर नहीं, बल्कि करुणा और समता का आचरण है।

The soil of Bastar Now : बस्तर की माटी आज भी भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श की गाथा को संजोए हुए

यदि चित्रकूट से ही श्रीराम लौट जाते तो शायद हम उन्हें केवल एक आदर्श पुत्र या भाई के रूप में जानते; किंतु दंडकारण्य की तपोभूमि ने उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम, जगतपति श्रीराम के रूप में स्थापित किया।

यह भी विदित है कि अपने वनवास के चौथे चरण में भगवान श्रीराम बस्तर के दंडकारण्य क्षेत्र में पहुंचे थे। यही वह धरा है, जिसकी मिट्टी में उनके चरित्र का सर्वाधिक उत्कर्ष हुआ जहाँ उन्होंने साधारण वनवासियों के साथ मिलकर आदर्श धर्मराज्य की नींव रखी और दुष्ट शक्तियों का संहार कर धर्म की पताका फहराई।

बस्तर की यह पुण्यभूमि आज भी श्रीराम के पदचिह्नों की साक्षी है, जहां की हवाओं में उनके तप, प्रेम और मर्यादा की गंध समाई हुई है।

ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो भगवान श्रीराम अपने वनवास के चौथे चरण में बस्तर के दंडकारण्य पहुंचे थे। उनकी यात्रा धमतरी से प्रारंभ होकर कांकेर, रामपुर, जुनवानी, केशकाल घाटी, राकसहाड़ा, नारायणपुर, चित्रकोट, तीरथगढ़ जलप्रपात, सीताकुंड, रामपाल, कोटी माहेश्वरी, कुटुंबसर गुफा तथा ओडिशा के मलकानगिरी (गुप्तेश्वर) और सुकमा जिले के रामाराम मंदिर होते हुए कोंटा तक विस्तृत रही। यहीं से उन्होंने दक्षिण भारत की ओर प्रस्थान किया था।

बस्तर की माटी आज भी भगवान श्रीराम के चरण स्पर्श की गाथा को संजोए हुए है। यहां की संस्कृति, परंपरा और जनजीवन में श्रीराम न केवल एक आराध्य हैं, बल्कि एक जीवनमूल्य बनकर रच-बस गए हैं।

दुनियाभर में ‘राम’ नाम की लोकप्रियता  

उल्लेखनीय है कि दुनियाभर में ‘राम’ नाम की लोकप्रियता अद्भुत और विलक्षण है। भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में लाखों लोग ऐसे हैं, जिनका नाम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भगवान श्रीराम के नाम से जुड़ा हुआ है। ‘राम’ न केवल एक धार्मिक या पौराणिक प्रतीक है, बल्कि आस्था, सुरक्षा और परिपूर्णता का भी पर्याय बन चुका है।

लोगों की मान्यता है कि ‘राम’ का नाम एक दिव्य रक्षा कवच की तरह कार्य करता है। इसी विश्वास के चलते माता-पिता अपने बच्चों के नामकरण में ‘राम’ शब्द को जोड़ना शुभ और मंगलकारी मानते हैं। यह परंपरा केवल धार्मिक भावना से नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक ऊर्जा और सांस्कृतिक मूल्यों की गहरी समझ से भी जुड़ी हुई है।

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‘राम’ नाम एक अलौकिक आकर्षण और गहन श्रद्धा का स्रोत

चर्चित डेटा एजेंसी फॉरबियर्स डॉट इन के एक अध्ययन के अनुसार भारत में सबसे लोकप्रिय नामों में ‘राम’ शीर्ष पर है। आंकड़ों के अनुसार, देश में लगभग 56 लाख 48 हजार लोगों का नाम ‘राम’ है। इसका अर्थ है कि औसतन हर 245वें भारतीय का नाम ‘राम’ है।

इसके अतिरिक्त देशभर में लगभग 7 करोड़ से अधिक महिला-पुरुष ऐसे हैं जिनके नाम में कहीं न कहीं ‘राम’ शब्द जुड़ा हुआ है, चाहे वह नाम के प्रारंभ में हो, मध्य में हो या अंत में।

दुनिया भर की बात करें तो वैश्विक स्तर पर 57 लाख 43 हजार से भी अधिक लोग ऐसे हैं जिनका नाम ‘राम’ है। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि ‘राम’ का नाम न केवल भारतीय संस्कृति में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी श्रद्धा, भक्ति और पहचान का प्रतीक बन चुका है।

‘राम’ का नाम एक सार्वभौमिक भाव का प्रतिनिधित्व करता है एक ऐसा भाव जो धर्म, देश और भाषा की सीमाओं को पार कर मानवता को जोड़ता है। यही कारण है कि आज भी ‘राम’ नाम एक अलौकिक आकर्षण और गहन श्रद्धा का स्रोत बना हुआ है।

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