sholay 50 years : शोले : पचास साल बाद भी ज़िंदा जादू

sholay 50 years zinda jadoo now
sholay 50 years zinda jadoo now

बॉलीवुड;पंकज गर्ग । sholay 50 years zinda jadoo now :  फिल्में सिर्फ़ मनोरंजन नहीं होतीं, कई बार वे जीवन का गहरा सच भी समझा देती हैं।

फिल्म नहीं बल्कि जीवन का फलसफ़ा

sholay 50 years zinda jadoo now : शोले भी ऐसी ही फिल्म है। यह सिर्फ़ एक फिल्म नहीं बल्कि जीवन का फलसफ़ा है, जो गहराई से देखने पर साफ नज़र आता है। इसका हर पात्र जीवन की है प्रेरणा ; जय और वीरू हमें दोस्ती और साथ निभाने का सबक देते हैं। बसंती हमें मुश्किल हालात में भी हिम्मत और जोश से जीना सिखाती है। ठाकुर का धैर्य और बदला लेने का जज़्बा हमें अन्याय के खिलाफ खड़े होने की ताकत दिखाता है। और गब्बर… वह हमें यह चेतावनी देता है कि बुराई चाहे कितनी भी ताकतवर क्यों न हो आखिरकार हारती ज़रूर है।

इसीलिए शोले का तिलिस्म सिर्फ़ एक फिल्म तक सीमित नहीं है। यह हमारी ज़िंदगी की किताब जैसा है, जो हमें दोस्ती, साहस, संघर्ष और इंसानियत की सीख देता है। यही कारण है कि आधी सदी बाद भी यह फिल्म और इसके पात्र हमारे दिलों में ज़िंदा हैं।

दादी-नानी की कहानी के जादू में बंध जाते

sholay 50 years zinda jadoo now : जब कोई चीज़ हमें अपनी तरफ खींच लेती है और हमारी सोच-समझ को शांत कर देती है, तो वही मोहपाश में बंधे लोग मायालोक में पहुंच जाते हैं। ऐसे जादुई अनुभव सिर्फ़ हमारे देश में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया की परंपराओं का हिस्सा हैं। हमारी लोककथाएँ और दास्तानें जिन्हें हमारी दादी-नानी ने हमें सर्द रातों में अलाव के पास बैठकर या गर्मियों में छत पर ठंडी हवा खाते हुए सुनाया है। इन कहानियों की शुरुआत और अंत से ज्यादा अहम होता है वो पल, जब हम सब उस कहानी के जादू में बंध जाते हैं।

बच्चा पैदा होते ही पहली ‘स्माइल पिक’ खींची जाती है

sholay 50 years zinda jadoo now : आज ज़माना बदल गया है। अब बच्चा पैदा होते ही कहानियों की दुनिया में नहीं, बल्कि मोबाइल कैमरे में मुस्कुराते हुए दर्ज होता है। उसकी पहली ‘स्माइल पिक’ खींची जाती है और धीरे-धीरे वह गूगल और एनिमेशन की दुनिया में चला जाता है। आज की एनिमेशन दुनिया के खलनायक गब्बर से भी ज़्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि वे सिर्फ गांव या 50 कोस तक ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को डराना चाहते हैं वो भी दुनिया को मिटाने की शर्त पर। ऐसे में शोले का गब्बर उनके सामने मामूली लगने लगता है।

sholay 50 years zinda jadoo now : शोले : पचास साल बाद भी ज़िंदा जादू

sholay 50 years zinda jadoo now : फिल्म शोले का जादू आज भी बरकरार

फिर भी गब्बर और फिल्म शोले का जादू आज भी बरकरार है। लगभग पचास साल गुजरने के बाद भी उसका असर कम नहीं हुआ है और चार पीढ़ियां आज भी उसके सम्मोहन में बंधी हुई हैं। पिछले पचास सालों में बहुत सी फिल्में बनीं और ढेरों कहानियाँ कही गईं, लेकिन शोले के सामने वे सब फीकी लगती हैं। इस फिल्म का जादू ऐसा है कि आप इसे कहीं से भी देखना शुरू करें, यह आपको अपने साथ बाँध लेती है और अंत तक छोड़ेगी नहीं।

sholay 50 years zinda jadoo now : कहानी को मशहूर जोड़ी सलीम-जावेद

इस कहानी को मशहूर जोड़ी सलीम-जावेद यानी सलीम खान और जावेद अख्तर ने लिखा था। फिल्म की रीढ़ उसके संवाद हैं, जिन्हें अकेले जावेद अख्तर ने गढ़ा। यही संवाद आज हमारी रोज़मर्रा की भाषा का हिस्सा बन चुके हैं। “कितने आदमी थे?”, “जो डर गया, समझो मर गया”, “तेरा क्या होगा कालिया” ये सिर्फ संवाद नहीं, बल्कि मुहावरे बन चुके हैं। यही वजह है कि शोले सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और बातचीत का हिस्सा बन गई है।

जावेद अख्तर द्वारा लिखे गए शोले के संवाद लोकभाषा के श्रेष्ठ उदाहरण

sholay 50 years zinda jadoo now : जावेद अख्तर द्वारा लिखे गए शोले के संवाद हिंदी सिनेमा में लोकभाषा के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। ये संवाद सीधे दर्शकों से जुड़ते हैं, जैसे समुद्र की लहरें किनारे पर खड़े व्यक्ति को भी छू जाती हैं। उनकी लय और मिठास न केवल कानों को भाती है, बल्कि मन को झकझोर देती है। यही वजह है कि फिल्म के संवाद केवल शब्द नहीं रहे, बल्कि यादों की ऐसी तस्वीरें बन गए हैं, जो कभी मिटती नहीं।

अरे ओ सांभा या कितने आदमी थे? जैसे डायलॉग अब रोज़मर्रा की ज़ुबान में वन-लाइनर की तरह इस्तेमाल होते हैं और आगे भी होते रहेंगे। यही है शोले की असली दास्तान कुछ शब्दों में पूरी दुनिया बुन देने की कला।

सलीम-जावेद ने किन अनुभवों से इस कहानी और संवादों को गढ़ा

sholay 50 years zinda jadoo now : इस फिल्म को देखते हुए अगर हम इसके लेखकों की पृष्ठभूमि पर भी गौर करें, तो यह और रोचक हो जाता है। आज सोशल मीडिया के दौर में यह जानकारी आसानी से मिल जाती है कि सलीम-जावेद ने किन अनुभवों से इस कहानी और संवादों को गढ़ा ।

शोले की कहानी कई दृष्टिकोण पेश करती है। अगर ठाकुर को एक पात्र न मानकर पूरे भारतीय समाज का प्रतीक समझें, तो उसके बाजू ईमानदारी और ताकत बन जाते हैं, और उसके पैर नैतिकता और हौसला। जब समाज अपनी ताकत से बुराई को जकड़ता है, तो गब्बर जैसे खलनायक असहाय हो जाते हैं। और जब ताकत छूट भी जाए, तो समाज का साहस और नैतिकता ही बुराई को समाप्त करती है।

जय और वीरू, बसंती इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास के प्रतीक

sholay 50 years zinda jadoo now : जय और वीरू उसी समाज के हिस्से हैं, जो कभी नैतिकता से बंधा है, कभी स्वार्थ में डूबा और कभी परोपकार में लीन। वे समाज की इच्छाशक्ति और आत्मविश्वास के प्रतीक हैं। बसंती हमारी अधूरी हसरतों का रूप है। जैसे समाज की सबसे बड़ी प्यास धन है, वैसे ही बसंती का तांगा उस मंज़िल की यात्रा है और उसकी घोड़ी धन्नो वह ताक़त है, जो मंज़िल तक पहुँचाने में मदद करती है। राधा उस मृगतृष्णा का प्रतीक है, जिसे समाज अब तक मुख्यधारा में नहीं ला पाया।

sholay 50 years zinda jadoo now : मौलवी साहब का अंधापन हमारी कुरीतियों की याद दिलाता

मौलवी साहब का अंधापन हमारी धर्मान्धता और कुरीतियों की याद दिलाता है। उनका बेटा हमारी भलमन साहत का प्रतीक है, जिसे बुराइयाँ बार-बार मार डालती हैं और उसकी लाश हमारे सामने पटक देती हैं। उस पर हमारे साहस को ललकारता है यह संवाद इतना सन्नाटा क्यों है भाई? रामगढ़ का गाँव हमारी जड़ों का प्रतीक है, जो हमें हमारी असली पहचान याद दिलाता रहता है।

सूरमा भोपाली उन लोगों की तस्वीर जो ऊँची-ऊँची डींगे हाँकते

sholay 50 years zinda jadoo now : सूरमा भोपाली उन लोगों की तस्वीर है, जो समाज की गंभीर समस्याओं को छोड़कर ऊँची-ऊँची डींगे हाँकते रहते हैं, जैसे आज के नेता। सांभा और कालिया ऊँच-नीच और जातिवाद की तस्वीर हैं, जो सिर झुकाकर मालिक का हुक्म मानते चले जाते हैं। अंग्रेज़ों के ज़माने का जेलर हमारी अफ़सरशाही का प्रतीक है, जो आज भी चाटुकारों से घिरा हुआ है और कहता है “हम अंग्रेजों के ज़माने के जेलर हैं।” यह हमारे बदलते समय में भी न बदलने वाली सोच को उजागर करता है।

sholay 50 years zinda jadoo now : फिल्म आपातकाल के दौर में रिलीज़ हुई 

यह फिल्म आपातकाल के दौर में रिलीज़ हुई थी। उस समय देश नैतिकता और अनैतिकता के संघर्ष से जूझ रहा था। ठाकुर के कटे हुए हाथ उस दौर की सबसे बड़ी तस्वीर बन जाते हैं, जैसे समाज की ताक़त ही काट दी गई हो।

गब्बर सिंह इस फिल्म का सबसे चर्चित चेहरा

sholay 50 years zinda jadoo now : गब्बर सिंह इस फिल्म का सबसे चर्चित चेहरा है। यह पहला डाकू था, जिसने सैनिक की वर्दी पहनी  साधु के वेश में शैतान की तरह। इसकी लोकप्रियता इतनी थी कि असली डाकुओं ने भी वर्दी पहनना शुरू कर दिया। बाद में फूलन देवी, मलखान सिंह और रमेश सिकरवार जैसे डाकुओं की तस्वीरों में वही परंपरा दिखाई देती है।

sholay 50 years zinda jadoo now : शोले का हर पात्र हमें कुछ न कुछ सिखाता

यही वजह है कि शोले को सिर्फ़ फिल्म कहना इसके साथ अन्याय होगा। यह जीवन का फलसफ़ा है। इसका हर पात्र हमें कुछ न कुछ सिखाता है और हर पात्र के पीछे एक गहरा दर्शन छिपा है। यही दर्शन बताता है कि ज़िंदगी वास्तव में इन्हीं पहलुओं के इर्द-गिर्द घूमती है।

sholay 50 years zinda jadoo now : फिल्म की धीमी शुरुआत ने निर्माता-निर्देशक की नींद उड़ा दी

शोले के रिलीज़ होने के बाद शुरुआती तीन हफ़्तों तक फिल्म उद्योग में एक जुमला गूंजता रहा शोले के निकल गए छोले। फिल्म की धीमी शुरुआत ने निर्माता-निर्देशक की नींद उड़ा दी थी। रमेश सिप्पी का एक किस्सा मशहूर है वे संजीव कुमार से मिलने अजंता स्टूडियो गए थे। वहाँ एक बड़े निर्देशक ने उन्हें देखकर अपने सहायक से कहा, जिंदगी में कभी मौका मिले, तो शोले जैसी फिल्म डायरेक्ट मत करना, वरना ऐसी हालत हो जाती है। लेकिन वही फिल्म आगे चलकर इतिहास बन गई।

बेंगलुरु की एक महिला ज्योतिष ने भविष्यवाणी की थी कि शोले 5 साल तक चलेगी। पर यह भविष्यवाणी भी छोटी साबित हुई आज  शोले पर हम 50 साल बाद भी बात कर रहे हैं।

फिल्म के अंत को सेंसर ने आपातकाल के चलते बदल दिया था

sholay 50 years zinda jadoo now : फिल्म के अंत को भी सेंसर ने आपातकाल के चलते बदल दिया था। असल कहानी में ठाकुर गब्बर को मार देता है, लेकिन सेंसर ने इसे हटाकर पुलिस के हवाले करने वाला अंत दिखाया। यह उस दौर की तस्वीर थी, जब समाज की स्वतंत्र सोच पर अंकुश लगाया गया था। बाद की रिलीज़ में गब्बर को ठाकुर के हाथों मरते हुए दिखाया गया। यह बदलाव प्रगति थी या पिछड़ना यह बहस का विषय है।

फिल्म के पीछे भी कई अनकही कहानियाँ हैं। जैसे मशहूर गाने याहू… चाहे कोई मुझे जंगली कहे में रफी साहब के साथ याहू की आवाज प्रयागराज नाम के एक कलाकार ने दी थी, मगर श्रेय केवल रफी को मिला। ठीक वैसे ही, कई ऐसे प्रयागराजों ने शोले को गढ़ा, जिनके नाम बड़े पैमाने पर सामने नहीं आ पाए। सिनेमैटोग्राफर द्वारका द्विवेचा ने फिल्म के हर सीन को इतनी खूबसूरती से रचा कि वे जीवंत पेंटिंग की तरह परदे पर उतर आए।

सलीम-जावेद की किसी और फिल्म में अमजद खान जगह नहीं मिली

sholay 50 years zinda jadoo now : दिलचस्प तथ्य यह भी है कि सलीम-जावेद की किसी और फिल्म में अमजद खान यानी गब्बर सिंह को दोबारा जगह नहीं मिली। शायद ठीक ही हुआ, क्योंकि गब्बर का किरदार मील का पत्थर था। अमजद खान का बाकी कोई काम उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाया।

और नाम की बात शोले क्यों? अगर आप जावेद अख्तर की साहित्यिक कृतियों तरकश और लावा को देखें, तो बात खुद-बखुद समझ आ जाएगी। शोले उनके शब्दों और सोच की उसी कड़ी का हिस्सा है।