पितृ पक्ष : ऋषि परंपरा, पितृ तर्पण और यज्ञ का महत्व

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अध्यात्म,8 सितंबर । pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : परम पूज्य गुरुदेव श्री सकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने कथा के माध्यम से समझाया कि हम सब ऋषि परंपरा के संतान हैं। जब भी हम कोई कार्य आरंभ करते हैं, तब सर्वप्रथम अपने गोत्र और ऋषि परंपरा का स्मरण करना चाहिए, न कि केवल पिता का नाम। हमारी पहचान इस बात से है कि हम किस महान ऋषि परंपरा से जुड़े हैं।

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : पितृ पक्ष : ऋषि परंपरा, पितृ तर्पण और यज्ञ का महत्व
परम पूज्य गुरुदेव श्री सकर्षण शरण जी (गुरुजी)

पितृपक्ष में 15 दिनों तक हम अपने पूर्वजों को स्मरण

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : गुरुदेव बताते हैं कि वर्ष में पंद्रह दिन ऐसे आते हैं जब हम अपने पितरों को विशेष रूप से स्मरण करते हैं। यह पितृपक्ष का समय है, जिसमें हम अपने पूर्वजों को श्रद्धा अर्पित करते हैं। हमारे अस्तित्व का आधार वे ही हैं, इसलिए कृतज्ञता स्वरूप उन्हें तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध द्वारा सम्मानित करना चाहिए। हमारे पूर्वजों ने तप, साधना और त्याग से इस परंपरा को जीवित रखा। इसीलिए हर वर्ष पितृपक्ष में 15 दिनों तक हम अपने पूर्वजों को स्मरण कर उन्हें श्रद्धा अर्पित करते हैं।

पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का महत्व

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : हिंदू धर्म के मान्य ग्रंथ गीता, मनुस्मृति, मार्कंडेय पुराण, गरुड़ पुराण सभी में पितरों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का महत्व बताया गया है। श्राद्ध और पिंडदान इसी भाव का प्रतीक है। शास्त्रों में कहा गया है कि पिंडदान लोहे या स्टील के बर्तनों में न करके शुद्ध पात्र में, और वह भी दोपहर के समय करना चाहिए।

केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति भक्ति और श्रद्धा का भाव

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : यह केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति भक्ति और श्रद्धा का भाव है। यदि कोई व्यक्ति पितरों को पिंडदान नहीं करता, तो जीवन में धनाभाव, रोग और मानसिक कष्ट उत्पन्न हो सकते हैं। वहीं श्रद्धापूर्वक तर्पण और पिंडदान करने से पितृगण प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं और परिवार में सुख-समृद्धि आती है।

श्राद्ध करने का अधिकार केवल ज्येष्ठ पुत्र तक सीमित नहीं है, कनिष्ठ पुत्र, परिवार का अन्य सदस्य अथवा शिष्य भी अपने गुरु के लिए पिंडदान कर सकता है। मुख्य बात है पवित्र मन, श्रद्धा और भक्ति से कर्म करना। जब हम अपने पूर्वजों को जल, अन्न और तर्पण अर्पित करते हैं, तो वे सूक्ष्म लोक से हमें आशीर्वाद देते हैं। यही कारण है कि पितृपक्ष में गीता के सातवें अध्याय का पाठ विशेष रूप से करने की परंपरा है।

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : यज्ञ का गूढ़ महत्व

हमारे शास्त्रों में *यज्ञ* को जीवन दर्शन बताया गया है। यज्ञ के तीन अर्थ बताए गए हैं – दान करना, संगति करना और देवत्व की प्राप्ति करना। भागवत पुराण में यज्ञ को श्रेष्ठ आचरण माना गया है, वहीं गीता में कहा गया है कि हर कर्म को कमल के समान निर्मल भाव से करें। यज्ञ केवल अग्नि में आहुति देने का नाम नहीं, बल्कि अपने दोष, कुप्रवृत्तियों और स्वार्थ की आहुति देकर समाज और धर्म के कार्य में सहयोग करना ही सच्चा यज्ञ है।

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण बताए गए हैं देव ऋण, पितृ ऋण और ऋषि ऋण*। देव ऋण से हम भगवान के कार्य में सहयोग देकर मुक्त होते हैं। पितृ ऋण से हम श्राद्ध और तर्पण करके मुक्त होते हैं। और ऋषि ऋण से हम धर्म परंपरा का पालन कर, ज्ञान का संवर्धन करके मुक्त होते हैं।

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : यज्ञ स्वयं नारायण स्वरूप

यज्ञ स्वयं नारायण स्वरूप है, इसीलिए इसे यज्ञनारायण कहा गया है। तन, मन और धन से भगवान के कार्य में सहयोग करना ही यज्ञ की सच्ची साधना है। श्रीकृष्ण ने स्वयं जीवन में इसका संदेश दिया। जब वे गोकुल की गलियों में माखन खाने जाते, तो पहले तन, मन और धन की तृप्ति का संदेश देते और फिर स्वयं आनंद लेते। इसका अर्थ है – जब हम अपने तन, मन, धन को भगवान और धर्म के लिए समर्पित करते हैं, तब भगवान हमें उसका कई गुना फल प्रदान करते हैं।

निष्कर्ष

pitru paksha rishi tarpan yagya mahatva : पितृपक्ष हमें यह स्मरण कराता है कि हमारा अस्तित्व केवल हमारे प्रयासों से नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की कृपा और त्याग से है। श्राद्ध, पिंडदान और यज्ञ के माध्यम से हम पितृऋण और देवऋण से मुक्त होकर जीवन को शुद्ध, संतुलित और समृद्ध बना सकते हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपनी यथाशक्ति, तन-मन-धन से इस परंपरा का पालन करे और पूर्वजों व भगवान से आशीर्वाद प्राप्त करे। यही हमारे जीवन का सच्चा सौभाग्य है।


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