रायपुर: छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर को देश-दुनिया के मंचों पर प्रतिष्ठा दिलाने वाले जनजातीय वाद्ययंत्र निर्माता व काष्ठ शिल्पकार पंडीराम मंडावी (Pandiram Mandavi) को पद्मश्री सम्मान 2025 से अलंकृत किया गया। राष्ट्रपति भवन नई दिल्ली में आयोजित समारोह में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने यह सम्मान प्रदान किया। मंडावी नारायणपुर जिले के ग्राम गढ़बेंगाल निवासी हैं।
68 वर्षीय पंडीराम पिछले पांच दशकों से प्रदेश की विलुप्तप्राय पारंपरिक वाद्य व काष्ठ शिल्पकला को संरक्षित कर रहे हैं। साथ ही उसे जीवंत मंचों पर प्रस्तुत करते हुए नई पीढ़ी तक पहुंचा रहे हैं। वे बांसुरी, टेहण्डोंड, डूसीर, सिंग की तोड़ी, कोटोड़का, उसूड़ जैसे लोक वाद्य यंत्रों के निर्माण व प्रदर्शन में अद्वितीय दक्षता रखते हैं। उनकी काष्ठ-कला न केवल लोकगीतों की आत्मा को जीवंत करती है, बल्कि सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण की मिसाल भी प्रस्तुत करती है।
Pandiram Mandavi: विदशों में भी किया अपनी कला का प्रदर्शन
मंडावी की कला यात्रा देश की सीमाओं तक सीमित नहीं रही। वे अब तक रूस, फ्रांस, जर्मनी, जापान और इटली सहित कई देशों में सांस्कृतिक प्रतिनिधिमंडल के रूप में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। उनकी कला ने न केवल छत्तीसगढ़ बल्कि संपर्ण भारत की पारंपरिक छवि को वैश्विक मंचों पर प्रतिष्ठा दिलाई है।
छत्तीसगढ़ी संरक्षण और संवर्धन में उनके योगदान को सराहते हुए छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मंडावी को दाऊ मंदराजी सम्मान 2024 से भी विभूषित किया जा चुका है। यह सम्मान छत्तीसगढ़ी लोक परंपराओं को जीवित रखने वाले उत्कृष्ट कलाकारों को प्रदान किया जाता है।
Pandiram Mandavi: पंडी राम मंडावी अब तक 8 से अधिक देशों में भारत की पारंपरिक लोककला का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। उन्होंने लकड़ी के पैनलों पर उभरी कलाकृतियां, मूर्तियां और परंपरागत शिल्पकृतियों के माध्यम से बस्तर की आत्मा को उकेरा है। वह सिर्फ कलाकार नहीं, संस्कृति के संरक्षक हैं, जिन्होंने अपने काम के जरिए एक खोती हुई विरासत को फिर से जिंदा कर दिया है।
जिले में पद्मश्री प्राप्त करने वाले दूसरे व्यक्ति
Pandiram Mandavi गढ़ रहे कला का नया भविष्य
पंडी राम मंडावी केवल खुद तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने अपने अनुभव और इस आदिवासी कला को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का जिम्मा भी उठाया। वे विभिन्न कार्यशालाएं आयोजित करते हैं, जिनमें युवाओं को पारंपरिक कला और शिल्प सिखाई जाती है। उनके मार्गदर्शन में कई नए कारीगरों ने अपनी पहचान बनाई है और बस्तर की कला को आगे बढ़ाया है।
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