दुर्गाजी के जो प्रतिदिन ॥ देवी का कवच ॥ पाठ करता है, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता

अध्यात्म

आज की कड़ी में ‘दुर्गाजीके इस ॥अथ देव्याः कवचम्॥ का पाठ को पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है | जगज्जननी माँ भगवती श्री दुर्गा जी की कृपा से एवं गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी के आशीर्वचनों से वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो श्री दुर्गा सप्तशती एवं ‘कल्याण’ के विशेषाङ्क ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय ब्रह्मपुराणाङ्क’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  वही सप्तशती भाग एक के क्रम में संक्षिप्त पाठ विधि विधान सहित एवं अर्थ श्लोक सहित दुर्गा जी की महिमा को प्रति दिन दैनिक हिन्द मित्र के वेबसाइट https://dainikhindmitra.com/ पर पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है ।

॥अथ देव्याः कवचम्॥

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तवम श्रीजगदम्बाप्रीत्य सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः ।

                                     ॥ ॐ नमश्चण्डिकायै ॥

मार्कण्डेय उवाच

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् । य कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

ब्रह्मोवाच

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम् । देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने ॥ २ ॥

प्रथमं शैलपुत्री द्वितीयं ब्रह्मचारिणी । च तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥ ३ ॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च । सप्तमं कालरात्रीति महागौरीतिचाष्टमम् ॥ ४ ॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः । उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना ॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे । विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः ॥ ६॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे । न नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि ॥ ७ ॥

चैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते । ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तात्र संशयः ॥ ८ ॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। ऐन्द्री गजसमारूढावैष्णवी गरुडासना ।। ९ ।।

माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना। लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया ॥ १० ॥

श्वेतरूपधरा देवी ईश्वरी वृषवाहना । ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता ॥११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः । नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः ॥ १२ ॥

दृश्यन्ते रथमारूढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः । शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम् ॥ १३ ॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। कुन्तायुधं त्रिशूलं शार्ङ्गमायुधमुत्तमम् ॥ १४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै ॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे । महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि ॥१६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि । प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता ॥ १७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी । प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी ॥ १८ ॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी । ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा ॥ १९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना। जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः ॥२०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता । शिखामुद्योतिनी रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता ॥२१॥

मालाधरी ललाटे च ध्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी । त्रिनेत्रा च ध्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके ॥ २२ ॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारिवासिनी । कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी ॥ २३ ॥

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती ॥ २४ ॥

दत्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका । घण्टिको चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला | ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी ॥ २६॥

नीलग्रीवा बहिः कण्ठे नलिकां नलकूबरी । स्कन्धयोः खड्गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी ॥ २७॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च। नखज्यूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी ॥ २८ ॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी। हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी ॥ २९ ॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्वरी तथा । पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥ ३० ॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी । जङ्गे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ।। ३१ ।।

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी ।पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी ।। ३२ ।।

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्चैवोर्ध्वकेशिनी । रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा ।। ३३ ।।

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती । अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी ॥ ३४ ॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा । ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु ॥ ३५ ॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा । अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी ॥ ३६ ॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम् । वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना ।। ३७ ।।

रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी । सत्त्वं रजस्तमश्चैव रक्षेत्रारायणी सदा ।। ३८ ॥

आयू रक्षतु वाराही धर्म रक्षतु वैष्णवी । यशः कीर्ति च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी ॥ ३९ ।।

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके । पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्या रक्षतु भैरवी ॥ ४० ॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्ग क्षेमकरी तथा । राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता ।। ४१ ।।

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु । तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी ॥ ४२ ॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः । न कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति ॥ ४३ ॥

तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सार्वकामिकः । यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम् ।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान् ॥ ४४ ॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः । त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान् ॥ ४५ ॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् । यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः ॥ ४६ ।।

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः । जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥ ४७ ।।

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः । स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम् ॥ ४८ ॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले । भूचराः खेचराश्चैव जलजाश्चोपदेशिकाः ॥ ४९ ।।

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा । अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबलाः ॥ ५० ॥

ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसाः । ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥ ५१ ॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते । मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥ ५२ ॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले । जपेत्सप्तशर्ती चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा ।। ५३ ।।

यावद्धूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम् । तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी ॥ ५४ ॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम् । प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः ।। ५५ ।।

लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ ॥ ५६ ॥

इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्

हिंदी अनुवाद 

ॐ चण्डिका देवीको नमस्कार है। मार्कण्डेयजीने कहा– पितामह जो इस संसारमें परम गोपनीय तथा मनुष्योंकी सब प्रकार से रक्षा करनेवाला है और जो अबतक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये ॥ १ ॥

ब्रह्माजी बोले- ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवीका कवच ही है, जो गोपनीयसे भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियोंका उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो ॥ २ ॥ देवीको नौ मूर्तियाँ है, जिन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं। उनके पृथक्-पृथक् नाम बतलाये जाते हैं। प्रथम नाम शैलपुत्री है । दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है । तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है । चौथी मूर्तिको कूष्माण्डा कहते हैं । पाँचवीं दुर्गाका नाम स्कन्दमाता५ है । देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं । सातवाँ कालरात्रि’ और आठवाँ स्वरूप महागौरी’ के नामसे प्रसिद्ध है। नवीं दुर्गाका नाम सिद्धिदात्री है । ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेद भगवान्‌के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं ॥ ३ – ५॥ जो मनुष्य अग्निमें जल रहा हो, रणभूमिमें शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गाकी शरणमें प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता। युद्धके समय संकटमें पड़नेपर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखायी देती उन्हें शोक, दुःख और भय की प्राप्ति नहीं होती ॥६-७ ॥ जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवीका स्मरण किया है, उनकाही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम निःसंदेह रक्षा करती हो ॥ ८॥ चामुण्डा देवी प्रेतपर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसेपर सवारी करती हैं। ऐन्द्रीका वाहन ऐरावत हाथी है। वैष्णवीदेवी गरुडपर ही आसन जमाती हैं ॥ ९॥ माहेश्वरी वृषभपर आरूढ़ होती हैं। कौमारीका वाहन मयूर है। भगवान् विष्णुकी प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमलके आसनपर विराजमान हैं और हाथोंमें कमल धारण किये हुए हैं ॥१०॥ वृषभपर आरूढ़ ईश्वरी देवीने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मी देवी हंसपर बैठी हुई हैं और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं ॥ ११ ॥ इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकारकी योगशक्तियोंसे सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे युक्त तथा नाना प्रकारके रखोंसे सुशोभित हैं॥ १२ ॥
ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोधमें भरी हुई हैं और भक्तोंकी रक्षाके लिये स्थपर बैठी दिखायी देती हैं। ये शङ्ख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मुसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथों में धारण करती हैं। दैत्योंके शरीरका नाश करना, भक्तोको अभयदान देना और देवताओंका कत्ल्याण करना- यही उनके शस्त्र धारणका उद्देश्य है ॥१३-१५॥ [कवच आरम्भ करनेके पहले इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये-] महान रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साहवाली देवि! तुम महान भयका नाश करनेवाली हो, तुम्हें नमस्कार है ॥१६॥ तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है। शत्रुओंका भय बढ़ानेवाली जगदम्बिके! मेरी रक्षा करो ।

पूर्व दिशामें ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा करे। अग्निकोणमें अग्निशक्ति, दक्षिण दिशामें वाराही तथा नैर्ऋत्यकोणमें खड्गधारिणी मेरी रक्षा करें। पश्चिम दिशामें वारुणी और वायव्यकोणमें मृगपर सवारी करनेवाली देवी मेरी रक्षा करे ॥१७-१८॥

उत्तरदिशामें कौमारी और ईशान कोणमें शूलधारिणी देवी रक्षा करे। ब्रह्माणि ! तुम ऊपरकी ओरसे मेरी रक्षा करो और वैष्णवीदेवी नीचेकी ओरसे मेरी रक्षा करे ॥ १९॥ इसी प्रकार शवको अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डादेवी दसों दिशाओंमें मेरी रक्षा करे।

जया आगेसे और विजया पीछे की ओरसे मेरी रक्षा करे ॥२०॥ वामभागमें अजिता और दक्षिणभाग मे अपराजिता रक्षा परे। उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे ॥२१॥ ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनीदेवी मेरी भौहो का संरक्षण करे। भौहोंक मध्यभाग में त्रिनेत्रा और नथुनोंकी यमघण्टादेवी रक्षा करे ॥२२॥ दोनों नेत्रोंके मध्यभाग में शङ्खिनी और कानों में द्वारवासिनी रक्षा करे। कालिका देवी कपोलोकी तथा भगवती शांकरी कानोंक मूलभागकी रक्षा करे ॥ २३॥ नासिकाएँ सुगन्धा और ऊपरके ओठमें चर्चिकादेवी रक्षा करे। नीचेके ओठमें अमृतकला तथा जिह्नामें सरस्वती देवी रक्षा करे ॥२४॥

कौमारी दाँतोंकी और चण्डिका कण्ठप्रदेश की रक्षा करे। चित्रघण्टा गलेकी घाँटीकी और महामाया तालुमें रहकर रक्षा करे ॥ २५ ॥ कामाक्षी ठोढ़ीकी और सर्वमङ्गला मेरी वाणीकी रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवामें और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करे ॥ २६ ॥ कण्ठके बाहरी भागमें नीलग्रीवा और कण्ठकी नलीमें नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधोंमें खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओंकी वज्रधारिणी रक्षा करे ॥ २७ ॥ दोनों हाथों में दण्डिनी और अंगुलियोंमें अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखोकी रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में रहकर रक्षा करे ।। २८ ।।

महादेवी दोनों स्तनोंकी और शोकविनाशिनी देवी मनकी रक्षा करे। ललिता देवी हृदयमें और शूलधारिणी उदरमें रहकर रक्षा करे ॥ २९ ॥ नाभिमें कामिनी और गुह्यभागकी गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिङ्गको और महिषवाहिनी गुदाकी रक्षा करे ॥ ३० ॥

भगवती कटिभागमें और विन्ध्यवासिनी घुटनोंकी रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओंको देनेवाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियोंकी रक्षा करे ॥ ३१ ॥ नारसिंही दोनों घुट्ठियोंकी और तैजसी देवी दोनों चरणोंके पृष्ठभागकी रक्षा करे। श्रीदेवी पैरोंकी अंगुलियोंमें और तलवासिनी पैरोंके तलुओंमें रहकर रक्षा करे ॥ ३२ ॥ अपनी दाढ़ोंके कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखोंकी और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशोंकी रक्षा करे । रोमावलियोंके छिद्रोंमें कौबेरी और त्वचाकी वागीश्वरी देवी रक्षा करे ॥ ३३ ॥ पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, मांस, हड्डी और मेदकी रक्षा करे। आँतोकी कालरात्रि और पित्तकी मुकुटेश्वरी रक्षा करे ॥ ३४ ॥ मूलाधार आदि कमल कोशोंमें पद्मावती देवी और कफमें चूडामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे। नखके तेजकी ज्वालामुखी रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्रसे भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीरको समस्त संधियोंमें रहकर रक्षा करे ।। ३५ ।। ब्रह्माणि ! आप मेरे वीर्यकी रक्षा करें। छत्रेश्वरी छायाकी तथा धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धिकी रक्षा करे ॥ ३६॥ हाथमें वज्र धारण करनेवाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायुकी रक्षा करे। कल्याणसे शोभित होनेवाली भगवती कल्याणशोभना मेरे प्राणकी रक्षा करे ॥ ३७ ॥ रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श- इन विषयोंका अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी रक्षा सदा नारायणी देवी करे ॥ ३८ ॥ वाराही आयुकी रक्षा करे । वैष्णवी धर्मकी रक्षा करे तथा चक्रिणी (चक्र धारण करनेवाली) देवी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्याकी रक्षा करे ॥ ३९ ॥ इन्द्राणि | आप मेरे गोत्रकी रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओंकी रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रोंकी रक्षा करे और भैरवी पत्नीकी रक्षा करे ॥ ४० ॥ मेरे पथकी सुपथा तथा मार्गकी क्षेमकरी रक्षा करे। राजाके दरबारमें महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहनेवाली विजया देवी सम्पूर्ण भयोंसे मेरी रक्षा करे ॥ ४१ ।।

देवि ! जो स्थान कवचमें नहीं कहा गया है. अतएव रक्षासे रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो, क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो ॥ ४२ ॥ यदि अपने शरीरका भला चाहे तो मुनष्य बिना कवचके कहीं एक पग भी न जाय- -कवचका पाठ करके ही यात्रा करे । कवचके द्वारा सब ओरसे सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है, वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करनेवाली विजयकी प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस अभीष्ट वस्तुका चित्तन करता है, उस उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है । वह पुरुष इस पृथ्वीपर तुलनारहित महान् ऐश्वर्यका भागी होता है ॥ ४३-४४ ॥ कवचसे सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्धमें उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकोंमें पूजनीय होता है ॥ ४५ ॥ देवीका यह कवच देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओंके समय अद्धाके साथ इसका पाठ करता है, उसे दैवी कला प्राप्त होती है। तथा वह तीनों लोकोंमें कहीं भी पराजित नहीं होता है। इतना ही नहीं, वह अपमृत्युसे रहित हो सौसे भी अधिक वर्षोंतक जीवित रहता है ॥ ४६-४७ ॥ मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर, भाँग, अफीम, धतूरे आदिका स्थावर विष, साँप और बिच्छू आदिके काटनेसे चढ़ा हुआ जङ्गम विष तथा अहिफेन और तेलके संयोग आदिसे बननेवाला कृत्रिम विष – ये सभी प्रकारके विष दूर हो जाते हैं, उनका कोई असर नहीं होता ॥ ४८ ॥ इस पृथ्वी पर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकारके जितने मन्त्र, यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवचको हृदयमें धारण कर लेने पर उस मनुष्यको देखते ही नष्ट हो जाते हैं । ये ही नहीं, पृथ्वी पर विचरने वाले ग्रामदेवता, आकाशचारी देवविशेष, जलके सम्बन्धसे प्रकट होनेवाले गण, उपदेशमात्रसे सिद्ध होनेवाले निम्म्रकोटिके देवता, अपने जन्मके साथ प्रकट होनेवाले देवता, कुलदेवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्षमें विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदयमें कवच धारण किये रहनेपर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुषको राजासे सम्मान वृद्धि प्राप्त होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है ॥ ४९-५२ ॥ कवचका पाठ करनेवाला पुरुष अपनी कीर्तिसे विभूषित भूतलपर अपने सुयशके साथ-साथ वृद्धिको प्राप्त होता है। जो पहले कवचका पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डीका पाठ करता है, उसकी जबतक वन, पर्वत और काननोसहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तबतक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतानपरम्परा बनी रहती है ॥ ५३-५४॥ फिर देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसादसे उस नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ॥ ५५ ॥ वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याणमय शिवके साथ आनन्दका भागी होता है ॥ ५६ ।।

इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्

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