और फिर वे इन्फोसिस के मूर्तिभंजन के लिये आये, नारायण ! नारायण !!

आलेख : बादल सरोज

आरएसएस और भाजपा की दीदादिलेरी काबिलेगौर है। वे जितनी फटाफट द्रुत गति से अपने मुखौटे उतार रहे हैं, उससे जिन्हे अब भी यह भ्रम था कि पहले तोहमतें लगाकर बदनाम करना, उसके बाद नफरतें उभारना और आखिर में मॉब-लिंचिंग कर निबटा देने का काम सिर्फ किसी ख़ास धार्मिक समुदाय या वर्ण या महिलाओं के लिए ही है, वह दूर हो जाना चाहिए। उन्माद की हवस और हिंसक विभाजन की लत अत्यंत तेजी से बढ़ती है — वह किसी को भी नहीं बख्शती है। मौजूदा हुकूमत उसकी मिसाल है, जहां हम दो (अम्बानी और अडानी) और हमारे दो (मोदी-शाह) को छोड़कर हरेक शख्स संदेह के घेरे में है, अपना भी और जो अपना नहीं है वह भी ; और किसी ने भी ज़रा सी चूं-चां की, तो उसके लिए राष्ट्रविरोधी का तमगा तैयार है।

इस बार वे इन्फोसिस के लिए आये हैं। आरएसएस के हिंदी मुखपत्र ‘पांचजन्य’ ने भक्तों को उसके प्रमुख नारायण मूर्ति के पीछे “छू” कर दिया है। कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण द्वारा बजाये गए शँख ‘पाञ्चजन्य’ का नाम धर उसे नारायण के खिलाफ ही फूंक दिया गया है। पाञ्चजन्य के मुताबिक़ इन्फोसिस प्रमुख नारायण मूर्ति नक्सल, लैफ्टिस्ट और टुकड़े-टुकड़े गैंग तीनों के सगे हैं। हालांकि खुद इस संघी अखबार के मुताबिक़ उसके पास इस सबके कोई प्रमाण नहीं है, मगर इसके बावजूद उसकी मांग यह है कि यह नारायण मूर्ति की जिम्मेदारी है कि वह सप्रमाण सफाई दें कि वे यह सब नहीं है। यह ठीक वही पैटर्न है, जो आरएसएस अब तक जेएनयू से लेकर अल्पसंख्यक समुदाय, साहित्यकारों से लेकर संविधान निर्माताओं और किसान आंदोलन तथा दलितों से लेकर कम्युनिस्टों सहित अपने सभी चिन्हांकित विरोधियों के खिलाफ आजमाता रहा है। कुछ को ताज्जुब हुआ, जब इस बार निशाने पर नारायण मूर्ति आये, जो खुद एक विशाल कारपोरेट कंपनी के चीफ है।

हालांकि अपनी चिरपरिचित चतुराई दिखाते हुए आरएसएस ने इस से गाँठ भी बाँध रखी है और पल्ला भी झाड़ लिया है। आरएसएस प्रवक्ता ने इन्फोसिस की आलोचना से अलग होते हुए ‘पाञ्चजन्य’ को अपना मुखपत्र ही मानने से इंकार कर दिया है। दो जुबानों से बोलना और दुविधा में पड़ने पर साफ़ मुकर जाना, आरएसएस का मूल स्वभाव है। अपने एकमात्र चिंतक-विचारक सावरकर को, जब तक वे जीवित रहे तब तक, कभी अपना नहीं माना। खुद अपने “परमपूज्य गुरु जी” गोलवलकर की 1939 में लिखी किताब “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड ” (हम और हमारी राष्ट्रीयता की परिभाषा) की खतरनाक प्रस्थापनाओं पर लोगों में आक्रोश दिखने पर 2006 में आरएसएस ने आधिकारिक बयान जारी कर उससे भी नाता तोड़ लिया था। ‘साफ़ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं’ की कलाकारी कब-कब आजमाई गयी, इसका ब्यौरा लिखने के लिए एक इनसाइक्लोपीडिया भी छोटा पड़ जाएगा।

बहरहाल नारायण मूर्ति और उनकी इन्फोसिस को निशाने पर लेने की फौरी वजह इनकम टैक्स और जीएसटी की ऑनलाइन प्रणाली के कथित दोष भर नहीं है। ‘पाञ्चजन्य’ में लिखे की पंक्तियों के बीच भी कुछ है।

जिन नारायण मूर्ति को ‘पाञ्चजन्य’ ने टुकड़े-टुकड़े गैंग का संरक्षक, नक्सल और वामपंथी बताया है, वे पद्म विभूषण और पद्मश्री के अलावा भारत के आईटी सेक्टर के पिता – फादर ऑफ़ इंडियन आई टी सेक्टर – माने जाते हैं। इन्फोसिस भारत की वह आई टी कंपनी है, जिसने सूचना क्रान्ति और आईटी क्रान्ति, जिस पर सवार होकर नवउदारीकरण का तूफ़ान भी आया, को भारत में ही संभव नहीं बनाया, बल्कि दुनिया के 50 देशों में अपने तकनीकी योगदान से वहां की आईटी क्रान्ति में भी भूमिका निबाही। करीब तीन लाख से ज्यादा को रोजगार देने वाली इन्फोसिस का मार्केट कैपिटलाइजेशन 7 ट्रिलियन (7 लाख 21 हजार 244 करोड़) रुपये का है। कायदे से कारपोरेट के लिए – कारपोरेट की – कारपोरेट के द्वारा चलने वाली सरकार के लिए नारायण मूर्ति को आँखों का तारा होना चाहिए था। मगर कहानी लिपे-लिपाये से बाहर अनलिपे में जा रही है। डिजिटल दुनिया में गूगल के साथ कारोबारी भागीदारी करने वाली यह संभवतः अकेली भारतीय कंपनी है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के आधार पर आई टी सेक्टर में नवोन्मेष और अनुसंधानों के मांमले में भी इन्फोसिस की साख और धाक है। उस पर आघात के लिए एकाध पोर्टल में रह गयी सुधारी जाने योग्य कमियां भर होंगी, यह मानने की कोई वजह नहीं है।

इसकी एक वजह तो नारायण मूर्ति और इन्फोसिस की फिलेंथ्रोपी – कुछ कुछ लोकोपकारी गतिविधियां – हो सकती हैं। मगर वे कोई इतनी विराट या निर्णायक नहीं है कि उनसे इन्द्रासन डोल जाये। पिछले चार वर्षों और खासकर कोरोना काल में इनके लोकोपकार की बजाय किये गए अनाचार कहीं ज्यादा है। एक बात जरूर है कि अंततः सिन्फोसिस के कमजोर होने का लाभ इस कारोबार की महाकाय शार्क बिल गेट की मोनोपोली को ही मिलेगा। अपने अनगिनत औजारों और उपकरणों और प्रोग्राम्स के जरिये डिजिटल दुनिया के इस जार ने पहले ही लगभग सब कुछ हड़प रखा है। क्या यह शँख उनके लिए है?

यदि नहीं, तो क्या उन ‘हम दो’ के लिए है, जिन्होंने ‘हमारे दो’ को राज में लाने के बाद देश का हर उद्योग, हर क्षेत्र , तकरीबन प्रत्येक रणनीतिक क्षेत्र और वित्तीय इदारा अपने इजारे में ले लिया है। बस यही सेक्टर है, जो अभी तक उनकी काली छाया से बचा है। यही (और अज़ीम प्रेमजी की विप्रो ) कंपनी हैं, जिन्हें शेयर खरीद कर कब्जाने और बांह मरोड़कर अपना बनाने में अम्बानी, अडानी कम-से-कम फिलहाल कामयाब नहीं हुए है। ताज्जुब नहीं होगा कि खोखले शँख की इस ध्वनि के बाद ईडी और सीबीआई अपने जूतों के फीते बांधकर इन संस्थानों की तरफ बढ़ें।

मुसोलिनी ने कहा था कि “फासिज्म को कार्पोरेटिज्म कहना ज्यादा सही होगा, क्योंकि यह सत्ता और कारपोरेट का एक दूसरे में विलय है।” आज मुसोलिनी अपने कहे को अपडेट करते हुए इसे और साफ़ करते हुए कारपोरेट के आगे दरबारी शब्द और जोड़ते। अच्छे शिष्यों का काम है गुरु का पंथ आगे बढ़ाना ; संघ और पाञ्चजन्य “नारायण-नारायण” कहते-कहते इसी गुरु-शिष्य परम्परा का पालन कर रहे हैं।

लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक तथा अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here