आरी तुतारी : “रील्स का जाल” युवाओं में “वायरल” होने की चाह और कमाई “ढेला भर”

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Reel to viral now
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आरी तुतारी ;26 जून by कुलदीप शुक्ला । Reel to viral now : आज का युग डिजिटल मीडिया और सोशल नेटवर्किंग का है। हर हाथ में मोबाइल और हर उंगली पर स्क्रॉलिंग की लत है। विशेष रूप से “रील्सइंस्टाग्राम, यूट्यूब शॉर्ट्स और स्नैपचैट जैसी प्लेटफॉर्मों पर चलने वाले लघु वीडियो ने युवाओं के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है।

ऐसा लगता है मानो पूरे विश्व को रील्स बनाने और देखने का भूत सवार हो गया है, लेकिन भारत में यह जुनून एक अलग ही स्तर पर पहुँच चुका है। इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में केवल सोशल मीडिया कंपनियाँ ही नहीं, बल्कि सरकारें भी अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका निभा रही हैं।

इंफ्लुएंसर का सपना सिर्फ “वायरल” होना 

Reel to viral now : भारत में सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स की संख्या तेजी से बढ़ रही है। विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक, यह संख्या 25 लाख से 40 लाख के बीच पहुँच चुकी है और यह आंकड़ा हर महीने बढ़ता जा रहा है। यह केवल एक आँकड़ा नहीं, बल्कि एक डिजिटल बुखार की तस्वीर है, जो भारत के युवाओं को अपनी गिरफ्त में ले चुका है।

Reel to viral now : हर सुबह लाखों युवा इस उम्मीद के साथ जागते हैं कि आज शायद उनका बनाया हुआ वीडियो वायरल हो जाए, आज शायद उनके फॉलोवर्स की संख्या एक झटके में हज़ारों बढ़ जाए, आज शायद कोई ब्रांड उन्हें ‘कोलैब’ के लिए बुला ले। यह एक ऐसा सपना है जिसमें कोई पाठ्यक्रम नहीं, कोई कौशल का मापदंड नहीं सिर्फ कैमरे के सामने कुछ भी करने की हिम्मत है।

Reel to viral now : यह ‘कुछ भी’ करने की सोच ही इस चलन को सामाजिक संकट बना रही है। युवाओं के लिए लोकप्रियता अब मेहनत, ज्ञान या कौशल से नहीं, बल्कि वायरल ट्रिक्स और ट्रेंडिंग ऑडियो से तय हो रही है। वे यह भूल जाते हैं कि जिन बड़े इंफ्लुएंसरों की जिंदगी के पीछे वे भाग रहे हैं, उनमें से अधिकांश के पीछे टीम, पूँजी और डिजिटल मार्केटिंग की गहरी समझ होती है  जो एक औसत मोबाइल यूजर के पास नहीं है।

“वायरल” बनने की चाह और “ढेला भर” की कमाई

Reel to viral now : मगर हकीकत यह है कि रील्स बनाकर रातों-रात स्टार बनने का सपना देखने वाले लाखों युवाओं में से 90 फीसदी के करीब इंफ्लुएंसर्स इस रास्ते से ढेला भर भी नहीं कमा पा रहे हैं। जी हां, ढेला भर ! बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (BCG) की एक रिसर्च इस भ्रम को तोड़ती है कि रील्स बनाना कोई लॉटरी का टिकट है। रिपोर्ट कहती है कि अधिकतर सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स या कंटेंट क्रिएटर्स, खासकर माइक्रो और नैनो लेवल वाले, न तो स्थायी आमदनी बना पा रहे हैं, न ही ब्रांड डील्स तक पहुँच पा रहे हैं। वहीं मात्र 10 फीसदी इंफ्लुएंसर्स ही पैसा छाप रहे हैं ।

Reel to viral now : रील्स: जब सामाजिक बुराई बन जाए

भारत के गाँव-शहर, गलियों-चौराहों से लेकर कॉलेज-कैंपस और ऑफिस के कैबिन तक हर जगह एक चीज़ समान है रील्स कुछ सेकंड की ये चमक-दमक वाली वीडियो क्लिप अब केवल मनोरंजन नहीं रही; यह समय का अपव्यय, ध्यान भटकाव, और अब तो कह सकते हैं एक सामाजिक बुराई बन चुकी है। और आश्चर्य की बात यह है कि इस बुराई को बढ़ावा देने में सोशल मीडिया कंपनियों के साथ-साथ सरकारें भी अप्रत्यक्ष रूप से भागीदार बन गई हैं।

 Reel to viral now : शिक्षा, रोजगार और डिजिटल छलावा

जब देश में लाखों युवा उच्च शिक्षा के बाद बेरोजगार हैं, तो रील्स जैसे मंच एक “भागने का रास्ता” बन जाते हैं। वे कुछ सेकंड की लोकप्रियता को अपनी उपलब्धि मान लेते हैं। यह डिजिटल छलावा न केवल उनके करियर को रोकता है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य पर भी गहरा प्रभाव डालता है। और सरकारें, जो इस डिजिटल उन्माद को नियंत्रित कर सकती हैं, या दिशा दे सकती हैं, वे अक्सर मौन या सहायक बनी रहती हैं।

 Reel to viral now : युवा ऊर्जा का अपहरण

भारत की सबसे बड़ी ताकत उसका युवा वर्ग है। लेकिन यह ताकत आज कैमरा एंगल, ट्रेंडिंग साउंड और फॉलोअर्स की गिनती में उलझ चुकी है। हर तीसरा युवा “क्रिएटर” बनने की दौड़ में है मगर ज्ञान, शोध, सामाजिक काम, विज्ञान, या उद्यमिता में नहीं बल्कि रील्स में; रील्स का यह आकर्षण धीरे-धीरे लत, फिर सामाजिक बुराई बन चुका है। युवाओं का समय, ऊर्जा और सोच सब कुछ इस चमकती परछाई में समा रहा है।

Reel to viral now : सरकारें क्यों मौन हैं?

एक ओर देश में बेरोजगारी चरम पर है, शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल हैं, स्वास्थ्य सेवाएं चरमराई हैं — पर इन मुद्दों पर युवाओं की आवाज़ सुनाई नहीं देती। क्यों ? क्योंकि वे रील्स में मशगूल हैं। सरकारें, जिन्हें इस बुराई को रोकने के उपाय खोजने चाहिए थे, वे इसे “डिजिटल क्रिएटिविटी” के नाम पर बढ़ावा दे रही हैं। सरकारी अभियानों में सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसरों को स्थान मिलता है, पर शिक्षाविदों और वैज्ञानिकों को नहीं।

Reel to viral now : क्या किया जा सकता है ?

डिजिटल आचरण शिक्षा – स्कूल और कॉलेज स्तर पर यह सिखाया जाए कि कैसे तकनीक का संयमित और उद्देश्यपूर्ण उपयोग किया जाए।
समाज की भागीदारी – माता-पिता, शिक्षक और सामाजिक संस्थाएँ युवाओं को केवल “फेम” नहीं, “वैल्यू” के लिए प्रेरित करें।
सरकारी दिशा-निर्देश – कंटेंट प्लेटफॉर्म्स के लिए जिम्मेदारी तय की जाए, और समय-सीमा या नियंत्रण के सुझाव लागू किए जाएं।

सोचिए, क्या यह एक नई डिजिटल गुलामी नहीं ?

ज़वाब – हा या ना 


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