Rani Laxmibai: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की अमर वीरांगना

Laxmibai

इतिहास ।। रानी लक्ष्मी बाई (Rani Laxmibai) का जन्म 19 नवंबर 1828 को वाराणसी में हुआ था। उनका वास्तविक नाम मणिकर्णिका था, लेकिन प्यार से उन्हें मनु बुलाया जाता था। उनके पिता मोरोपंत तांबे बिठूर के पेशवा बाजी राव द्वितीय के दरबार में काम करते थे।

और उनकी माता भागीरथीबाई एक धार्मिक महिला थीं। मनु की शिक्षा बचपन से ही उच्च कोटि की थी। उन्होंने घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्धकला में महारत हासिल की।

Laxmibai का विवाह और झाँसी की रानी बनना

1842 में, 14 वर्ष की आयु में, मणिकर्णिका का विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर राव न्यूवाले से हुआ और वे झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई बनीं। 1849 में उनके पुत्र का जन्म हुआ, लेकिन कुछ महीनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई।

इसके बाद गंगाधर राव और लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र गोद लिया, जिसका नाम दामोदर राव रखा। 1853 में महाराज गंगाधर राव के निधन के बाद अंग्रेजों ने झाँसी राज्य को अपने अधीन करने की योजना बनाई।

Laxmibai

ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने “डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स” नीति के तहत झाँसी को अपने कब्जे में ले लिया। इस नीति के अनुसार, किसी भी रियासत का शासक यदि बिना पुरुष उत्तराधिकारी के मर जाता, तो वह राज्य कंपनी के अधीन हो जाता। रानी लक्ष्मी बाई ने इस नीति का विरोध किया और अंग्रेजों के खिलाफ झाँसी की सुरक्षा का संकल्प लिया।

1857 का भारतीय विद्रोह

1857 का भारतीय विद्रोह, जिसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम भी कहा जाता है, ने रानी लक्ष्मी बाई को एक योद्धा के रूप में प्रकट होने का अवसर दिया। विद्रोह के दौरान, उन्होंने झाँसी की सेना का नेतृत्व किया और अदम्य साहस के साथ अंग्रेजों का सामना किया।

मार्च 1858 में ह्यूग रोज़ के नेतृत्व में अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण किया। रानी लक्ष्मी बाई ने वीरतापूर्वक झाँसी की रक्षा की, लेकिन अंग्रेजों की सेना अधिक संगठित और सशक्त थी।

Rani Laxmibai ने लड़ा कालपी और ग्वालियर का संग्राम

जब झाँसी का किला अंग्रेजों के कब्जे में आ गया, तो रानी लक्ष्मी बाई अपने बेटे दामोदर राव के साथ कालपी की ओर चली गईं, जहाँ उन्होंने तात्या टोपे और अन्य विद्रोही नेताओं के साथ मिलकर अंग्रेजों का सामना किया। इसके बाद, उन्होंने ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया, लेकिन अंग्रेजों ने इसे फिर से अपने अधीन कर लिया।

Rani Laxmibai का अंतिम युद्ध और बलिदान

18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में रानी लक्ष्मी बाई ने अंतिम युद्ध में लड़ीं। इस युद्ध में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ अपने जीवन की अंतिम लड़ाई लड़ी और वीरगति प्राप्त की। उनके साहस और बलिदान ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी और उन्हें एक अमर योद्धा के रूप में स्थापित किया।

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विरासत और प्रेरणा

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन और बलिदान भारतीय इतिहास में एक प्रेरणादायक गाथा है। उनकी वीरता, साहस और निष्ठा ने उन्हें एक महान राष्ट्रनायक के रूप में प्रतिष्ठित किया।

उनकी गाथा ने न केवल महिलाओं को प्रेरित किया, बल्कि पूरे राष्ट्र को एकजुट होकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनकी मृत्यु के बाद भी, रानी लक्ष्मी बाई का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर है।

उन्होंने दिखाया कि एक नारी भी युद्धभूमि में अपराजेय हो सकती है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि कर्तव्यनिष्ठा, साहस और आत्मसम्मान के साथ हर चुनौती का सामना किया जा सकता है।

रानी लक्ष्मी बाई की जीवन कथा आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरित करती रहेगी और उनके बलिदान को सम्मानित करती रहेगी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की इस अमर वीरांगना ने न केवल इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाई, बल्कि हर भारतीय के दिल में एक अमिट छाप छोड़ी है।

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