लेख
।। महाराजा प्रवीर अमर रहे ।।
आदिवासियों के भगवान, जिनके बलिदान की आज 57वीं पुण्यतिथि है. वे मात्र 37 वर्ष ही जीवित रह सके. आदिवासियों ने जब उन्हें भगवान मान लिया तो सरकार की क्रुरता ने उनकी जान ले ली, साथ ही हजारों आदिवासियों की भी. सरकारी आंकड़ों में सच छुपाया गया, लेकिन हकीक़त तो यह थी कि महल के हर कमरे में पांच फीट तक आदिवासियों की लाशों के ढेर और हर तरफ दो इंच खुन फैला हुआ था.
प्रवीरचंद्र भंजदेव उस ‘बस्तर’ रियासत के महाराजा थे, जो कभी भारत का सबसे बड़ा जिला हुआ करता था. बस्तर रियासत भारत के केरल राज्य एवं इस्राइल व बेल्जियम देश से बड़ी रियासत हुआ करती थी. वर्तमान में भी बस्तर संभाग भारत के सबसे बडे़ संभागों में से एक है. देश की आजादी के तुरंत बाद महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव ने संतुष्ट होकर अपनी रियासत का भारत गणराज्य में विलय करवा दिया था. उस दौरान हैदराबाद के निजाम ने बस्तर महाराजा को खूब प्रलोभन देकर भारत गणराज्य में ना मिलने की सलाह भी दी, पर महाराजा ने उसके प्रलोभनों को ठुकराते हुए भारत गणराज्य में ही मिलने का संकल्प लिया. 1 जनवरी 1948 को विलय-पत्र पर हस्ताक्षर कर महाराजा ने बस्तर को भारतीय गणराज्य में शामिल कर दिया.
जब भारत आजाद हो चुका था और झारखंड के आदिवासी नेता डॉ. जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के हक़ की बात कर रहे थे, डॉ. अंबेडकर संविधान के भाग पांच और छ: में आदिवासियों के हक़ में तमाम प्रावधानों को निर्मित कर चुके थे. तो एक तरह से संविधानगत रोडमैप तैयार हो चुका था, जरुरत थी बस संवैधानिक अधिकारों को अमल में लाने की. जयपाल सिंह मुंडा कहीं न कहीं तत्कालीन बड़ी राजनीतिक पार्टी की चाल को समझ नहीं पा रहे थे, यह बात महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव को पसंद नहीं आ रही थी. वे पहले बस्तर और बाद में गोंडवाना और उसके बाद पूरे देश के आदिवासियों को राजनीतिक रूप से जागरूक करने की कोशिश करने लगे. सन 1957 में वे जगदलपुर विधानसभा का चुनाव लड़े और भारी मतों से विजयी भी हुए. जीतने के बाद उन्होंने स्थानीय लोगों का काम बेहद ईमानदारी से करना शुरू किया.
चार साल के अल्प समय में ही महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव अविभाजित मध्यप्रदेश के सबसे बड़े नेता के रूप में उभर चुके थे. सत्ताधारी पार्टी राजा से नेता बने महाराजा प्रवीरचंद भंजदेव को तमाम प्रलोभन के बाद भी आदिवासी दमनकारी वाले खेमे में नहीं कर पाई, तल्खियां बढ़ती जा रही थीं, हालांकि कांग्रेस का सदस्य रहते हुए ही 1957 में वे विधायक बने थे, लेकिन आदिवासियों के प्रति सरकार के रवैए से निराश होकर 1959 में उन्होंने विधानसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया, मामला था मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार कांड का.
बस्तर रियासत के दौरान ही कानून बना था कि आदिवासी की जमीन गैर आदिवासी नहीं ले सकता, लेकिन आजादी के बाद उसमें संशोधन कर उसमें कई छेद कर दिये गये. नतीजा यह हुआ कि एक बोतल शराब या कुछ पैसों में ही बाहरी लोग आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन हड़पने लगे, साल और सांगवान के जंगल खत्म होने लगे, इसे मालिक-मकबूजा भ्रष्टाचार कांड नाम दिया गया. महाराजा प्रवीर ने इस भ्रष्टाचार और संशोधन का व्यापक विरोध किया. आदिवासी विरोधी सरकारी नीतियों के खिलाफ जब पूर्व महाराजा की सक्रियता बढ़ गई तब फरवरी 1961 में उन्हें कुछ दिनों के लिए हिरासत में भी लिया गया. केंद्र सरकार ने कार्रवाई आगे बढ़ाते हुए राष्ट्रपति के एक आदेश के जरिए महाराजा के रूप में मिली उनकी सुविधाएं भी षड्यंत्रपूर्वक समाप्त कर दी.
बस्तर के आदिवासी सरकार के इस कदम से बहुत हैरान थे, एक तरह से बस्तर में विद्रोह की स्थिति खड़ी हो गई. अपने राजा के समर्थन में आदिवासियों ने व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया. आदिवासियों में राजा के प्रति लोकप्रियता से चिढ़कर प्रशासन ने आदिवासियों का दमन करने का निश्चय किया. मार्च 1961 में बीस हजार आदिवासियों पर निर्ममतापूर्वक गोलियों की बौछार की गई, जिसमें अनेक बेक़सूर आदिवासी बेमतलब मारे गये. राजा को लग चुका था कि हमें अलग से राजनीतिक राह बनानी ही होगी, इसलिए सन 1962 के आते-आते वे पूरे देश के आदिवासियों के लिए एक आदिवासी पार्टी की नींव रखने के विषय में गंभीरता से विचार करने लगे. सारी योजना व व्यवस्था तैयार कर ली गयी थी. इसी साल होने वाले विधानसभा में उनके साथियों ने विधानसभा चुनाव का सामना किया और ‘बस्तर के दस विधानसभा सीटों में से 9 सीट पर बड़ी ऐतिहासिक जीत हासिल कर ली’. उनके बढ़ते राजनीतिक प्रभाव से देश की सबसे बड़ी सत्ता परेशान हो गई. राजा की यह जीत सरकार को आदिवासियों के जनसंहार का एक मजबूत प्रत्युत्तर था.
इस बीच अनेक मुद्दों जबरन लेवी वसूली, आदिवासी महिलाओं से पुलिस का दुर्व्यवहार व शोषण, भुखमरी, दण्डकारण्य प्रोजेक्ट इत्यादि पर भंजदेव का सरकार से सामना होता रहा. आदिवासी मुद्दों को लेकर उन्होंने अनेक अनशन और शांतिपूर्ण प्रदर्शन भी किये. महाराजा प्रवीर तत्कालीन प्रशासन के लिए हमेशा चुनौती बने रहे, क्योंकि वे हमेशा जन मुद्दों पर सरकार को पूरी मजबूती से घेरते रहे. आदिवासियों के बीच उनकी अपार लोकप्रियता भी सरकार को अखर रही थी. महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के रहते बस्तर में जंगल काटने वाले या खनिज निकालने वाले उद्योगपतियों का घुसना मुश्किल हो गया था. वह इसलिए भी कि उद्योगपतियों के तरफ से तमाम अनियमितताएं की जा रही थी, जिसे सरकार में बैठे लोगों का स्पष्ट समर्थन मिल रहा था. सरकार किसी तरह से इन समस्याओं से पूरी तरह निजात पाना चाहती थी.
इसी बीच 25 मार्च 1966 को एक घटना घट गई, पूरे बस्तर से बड़ी संख्या में आदिवासी लोग एक स्थानीय त्यौहार को मनाने को लेकर अपने अभिभावक महाराजा भंजदेव के जगदलपुर स्थित महल में इकट्ठा हुए थे. उस दौरान पुलिस ने महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव व आदिवासियों को शासन के खिलाफ़ षड्यंत्र रचने के झूठे आरोपों के बहाने से आनन-फानन में पूरे राजमहल को चारों तरफ से घेर लिया. भयग्रस्त समस्त आदिवासी सुरक्षा की दृष्टि से राजमहल के अंदर जा चुके थे. पुलिस ने सभी को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा, महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव ने बेक़सूर आदिवासियों की जान बचाने की पहल करते हुए पहले महिलाओं और बच्चों को आत्मसमर्पण करने के लिए भेजा, इस दौरान पुलिस ने निहत्थे औरतों और बच्चों पर फायरिंग शुरु कर दी, बड़ी संख्या में महिलाएं और बच्चें निर्ममतापूर्वक मार दिए गए. पुलिस की इस नापाक हरक़त से फिर किसी की आत्मसमर्पण करने की हिम्मत नहीं हुई. महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव ने राजमहल से बाहर निकालकर अपना आक्रोश जताया, लेकिन इसके बाद और अधिक पुलिस बल मंगा लिया गया और राजमहल में घुसकर पुलिस ने हजारों आदिवासियों समेत उनके मसीहा महाराजा को अंधाधुंध गोलियों से भून दिया. दोपहर तक राजमहल में सन्नाटा पसर चुका था, बेरहम पुलिस ने पापी आकाओं के इशारों पर अत्याचार की पराकाष्ठा का प्रदर्शन किया था. उस समय के युवा जो किसी भी तरह से वहाँ से जिंदा बच गये थे, वे बताते है कि उस दौरान इतने अधिक लोग मारे गये थे कि बस्तर के आसपास के जंगलों में लाशे ही लाशे नज़र आती थी और इस सच को छिपाने के लिए क्रुर सरकार ने करीब तीन साल तक राजमहल को अपने कब्जे में रखकर महल की सफाई और अपनी क्रुरता के सुबूत मिटाए थे.
एक ऐसा राजा जिसने कभी राज नहीं किया, लेकिन हमेशा अपने लोगों के अंतस में देवता के रुप में विद्यमान रहा… एक ऐसा राजा जो एक ही बार में नौ आदिवासियों को विधानसभा भेज चुका था… प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों में आदिवासियों का हक चाहता था… बस्तर की आदिवासी आबादी उम्मीदों से जगमगा रही थी… वह राजा जो आदिवासियों के लिए शिक्षा और रोजगार चाहता था… वह 25 मार्च 1966 को अपने ही महल की सीढ़ियों पर सीने में अनगिनत गोलियां लिए पड़ा था.
यह उस समय की बात है जब लाल गलियारा नहीं बना था, भारत में नक्सलवाद नहीं था, महाराजा प्रवीर लाल गलियारा और नक्सलवाद दोनों से आदिवासियों को बचाना चाह रहे थे. महाराजा की मौत से सरकार के प्रति आदिवासियों के मन में अविश्वास का जो भाव पैदा हुआ, वह आज तक झलकता है. तब से लेकर आज तक बस्तर जल रहा है. हर दिन आदिवासी हलाक हो रहे हैं. आदिवासियों का बड़ा जत्था कभी पत्थलगड़ी, तो कभी लाल सलाम के माध्यम से अपनी पहचान और हक़ के लिए लड़ने पर मजबूर है. एक सवाल जिसे महाराजा प्रवीर हल करना चाहते थे, वह आज भी मुंह बाए खड़ा है और वहां की समस्याएं निरंतर बड़ी होती जा रही हैं.
ऐसे जननायक व अमर शहीद को आज उनके “बलिदान दिवस” पर कोटि-कोटि नमन…
- आशीष राज सिंघानिया