अध्यात्म | Chhath Puja : छठ पूजा एक प्राचीन हिंदू पर्व है, जो सूर्य उपासना और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को प्रकट करने का एक अनोखा तरीका है। यह पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, और नेपाल के तराई क्षेत्रों में बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। इसे मैथिल, मगही, और भोजपुरी संस्कृतियों में विशेष महत्त्व प्राप्त है और इसे इन क्षेत्रों का सबसे प्रमुख लोकपर्व भी माना जाता है।
छठ पर्व में चार दिनों का विशेष अनुष्ठान
Chhath Puja : छठ पर्व में चार दिनों का विशेष अनुष्ठान होता है, जिसमें व्रत, स्नान, सूर्य को अर्घ्य अर्पण, और संध्या तथा प्रातःकालीन पूजा शामिल है। इसमें व्रती उपवास रखकर सूर्य देव और छठी माता की उपासना करते हैं। छठ पर्व को वैदिक काल से संबंधित बताया गया है, और यह प्राचीन आर्य परंपरा तथा ऋग्वेद में वर्णित सूर्य और उषा पूजन का अनुसरण करता है।
यह पर्व बिहार की सांस्कृतिक धरोहर के रूप में पहचाना जाता है और इसे वहां के लोगों की जीवनशैली और पहचान का एक अभिन्न हिस्सा माना जाता है।
छठ पूजा का महत्त्व और प्रसार केवल बिहार तक सीमित नहीं रहा; आज इसे अन्य धर्मों के लोग भी मनाते हैं। विशेष रूप से बिहार और उत्तर भारत के प्रवासी जहां-जहां गए, वहां छठ पूजा को अपनी संस्कृति के साथ ले गए। अब यह पर्व केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्वभर में लोकप्रिय हो चुका है।
Chhath Puja : पार्वती के छठे रूप के रूप में मानी जाने वाली छठी मैया
छठ पूजा सूर्य देवता, प्रकृति, जल, वायु और छठी मैया को समर्पित होता है, ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन का संतुलन बनाए रखने के लिए धन्यवाद दिया जा सके। मिथिला में इसे विशेष रूप से ‘रनबे माय’ के नाम से जाना जाता है, जबकि भोजपुरी में ‘सबिता माई’ और बंगाल में ‘रनबे ठाकुर’ के नाम से।
पार्वती के छठे रूप के रूप में मानी जाने वाली छठी मैया की पूजा सूर्य की बहन के रूप में की जाती है। दीपावली के बाद चंद्र मास के छठे दिन पड़ने वाले इस पर्व में काली पूजा के छह दिन बाद सूर्य उपासना की जाती है। मिथिला में छठ के अवसर पर मैथिल महिलाएं अपनी पारंपरिक संस्कृति को संजोए रखने के लिए बिना सिलाई की शुद्ध सूती धोती पहनती हैं, जो उनकी संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है।
छठ पूजा एक अत्यंत कठिन और अनुशासनात्मक अनुष्ठान है जो चार दिनों तक चलता है। इन दिनों में व्रत करने वाले श्रद्धालु पवित्र स्नान करते हैं, उपवास रखते हैं, और एक समय पर तो बिना पानी के भी रहकर तप करते हैं। इस अनुष्ठान में जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देना और विशेष प्रसाद चढ़ाना शामिल है।
Chhath Puja : व्रत का पालन मुख्यतः महिलाएं करती हैं
इस व्रत का पालन मुख्यतः महिलाएं करती हैं, जिन्हें परवैतिन कहा जाता है, लेकिन यह लिंग-विशिष्ट त्योहार नहीं है; पुरुष और सभी उम्र के लोग भी श्रद्धा से इसमें भाग लेते हैं। कुछ भक्त छठ के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिए नदी के किनारे तक दंडवत करते हुए भी जाते हैं। इस प्रकार, छठ का उत्सव पूरी तरह से जनसमूह में एकता, धैर्य, और धार्मिक आस्था को मजबूत बनाता है।
पर्यावरणविदों के अनुसार, छठ पर्व अपने प्रकृति-सम्मत तरीकों के कारण सबसे पर्यावरण-अनुकूल हिंदू पर्वों में से एक है, क्योंकि इसमें किसी प्रकार का कृत्रिम साधन या रसायन का उपयोग नहीं होता। नेपाली और भारतीय लोग अपने देश से बाहर भी इस पर्व को उसी उत्साह और श्रद्धा से मनाते हैं, जिससे यह अब वैश्विक पहचान पा चुका है।
ऐतिहासिक रूप से, बिहार के मुंगेर जिले का छठ पर्व से गहरा संबंध है। माना जाता है कि माता सीता ने मुंगेर में गंगा के किनारे स्थित सीता मनपत्थर या सीताचरण मंदिर पर छठ पर्व मनाया था। यह मंदिर गंगा नदी के बीच एक शिलाखंड पर स्थित है, जिसे माता सीता के चरणचिह्नों का प्रतीक माना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, यहीं से छठ महापर्व की परंपरा की शुरुआत हुई थी।
इस कारण मुंगेर और आसपास के क्षेत्रों, विशेष रूप से बेगूसराय में, छठ पर्व विशेष रूप से भव्यता और श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। यह पर्व केवल धार्मिक ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी बिहार के लिए महत्वपूर्ण है।
Chhath Puja : छठ पर्व से जुड़ी एक पौराणिक कथा
छठ पर्व से जुड़ी एक पौराणिक कथा के अनुसार, देवासुर संग्राम के पहले युद्ध में जब देवता असुरों से हार गए, तो देव माता अदिति ने एक तेजस्वी और सर्वगुण संपन्न पुत्र की प्राप्ति की कामना की। उन्होंने देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में जाकर छठी मैया (रनबे मैया) की आराधना की। अदिति की भक्ति और तपस्या से प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें एक अद्वितीय पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया, जो देवताओं को असुरों पर विजय दिला सके।
वरदान के फलस्वरूप अदिति के पुत्र त्रिदेव रूप में भगवान आदित्य का जन्म हुआ, जिन्होंने आगे चलकर असुरों पर विजय प्राप्त की और देवताओं की रक्षा की। इस कथा के अनुसार, छठी मैया को शक्ति, समृद्धि और विजय की देवी माना जाता है, और उनकी पूजा से सभी इच्छाओं की पूर्ति और संकटों से मुक्ति मिलती है। यही कारण है कि छठ पर्व में छठी मैया की आराधना महत्वपूर्ण मानी जाती है।
Chhath Puja : छठ कठोर अनुशासनात्मक पर्व का स्वरूप
छठ पूजा चार दिनों तक चलने वाला एक कठोर अनुशासनात्मक पर्व है, जिसकी शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी से होती है और समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है। इसमें व्रतधारी 36 घंटे तक बिना पानी के उपवास रखते हैं। चारों दिन अलग-अलग अनुष्ठानों और नियमों के साथ यह पर्व मनाया जाता है।
1. नहाय-खाय (पहला दिन)
छठ पर्व की शुरुआत नहाय-खाय से होती है। इस दिन व्रती सुबह-सुबह घर की सफाई करके उसे पवित्र बनाते हैं। फिर निकट के गंगा, गंगा की सहायक नदी या तालाब में जाकर स्नान करते हैं। स्नान के बाद गंगाजल घर लाया जाता है, जिसका उपयोग खाना बनाने में किया जाता है। व्रती इस दिन विशेष प्रकार का भोजन करते हैं, जिसमें कद्दू की सब्जी, मूंग दाल, और चावल शामिल होते हैं। इस भोजन को कांसे या मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है, और लकड़ी तथा मिट्टी के चूल्हे का उपयोग होता है। सबसे पहले व्रती भोजन करते हैं, इसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य खाना खाते हैं। तली-भुनी चीजें और नमक का उपयोग इस दिन वर्जित रहता है।
2. खरना या लोहंडा (दूसरा दिन)
Chhath Puja : कार्तिक शुक्ल पंचमी को छठ पर्व के दूसरे दिन खरना मानाया जाता है इसे खरना या लोहंडा के नाम से जाना जाता है और यह कार्तिक शुक्ल पंचमी को मनाया जाता है। इस दिन व्रती पूरे दिन उपवास रखते हैं और पानी की एक बूंद भी नहीं पीते। शाम को सूर्यास्त के बाद व्रती गुड़ और गन्ने के रस से बनी खीर, और रोटी का प्रसाद तैयार करते हैं। इसे नमक और चीनी के बिना बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में इन चीजों को सूर्यदेव को नैवेद्य चढ़ाकर एकांत में ग्रहण किया जाता है। इस दौरान परिवार के सभी सदस्य घर से बाहर रहते हैं ताकि किसी प्रकार की आवाज न हो। एकांत में प्रसाद ग्रहण करने की प्रक्रिया इस पर्व का विशेष नियम है, जिससे शांति और साधना के माहौल में पूजा पूरी हो।
Chhath Puja : छठ पर्व का दूसरा दिन, खरना, व्रतियों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। इस दिन व्रती खीर-रोटी का प्रसाद ग्रहण करने के बाद अपने परिवार और मित्रों को भी यही प्रसाद बांटते हैं। इसमें घी लगी रोटी और चावल के पिठ्ठा को भी प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। खरना के बाद व्रती अगले 36 घंटों के लिए निर्जला उपवास करते हैं। आधी रात के समय, व्रती छठ पूजा के विशेष प्रसाद ठेकुआ बनाते हैं, जो गेहूं के आटे, गुड़ और घी से तैयार किया जाता है।
3. संध्या अर्घ्य (तीसरा दिन)
Chhath Puja : संध्या अर्घ्य छठ पर्व के तीसरे दिन चैत्र या कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाता है। इस दिन पूजा की तैयारियाँ पूरे दिन चलती हैं, और प्रसाद में ठेकुआ और चावल के लड्डू, जिसे कचवनिया कहा जाता है, विशेष रूप से बनाए जाते हैं। प्रसाद को एक बांस की टोकरी, जिसे दउरा कहते हैं, में सजाकर देवकारी (पूजा का स्थान) में रखा जाता है। शाम के समय घर का कोई पुरुष सदस्य इसे सिर के ऊपर उठाकर नदी या तालाब के किनारे छठ घाट पर ले जाता है।
Chhath Puja : छठ घाट की ओर जाते हुए महिलाओं द्वारा छठ गीत गाए जाते हैं, जिससे माहौल भक्तिमय हो जाता है। घाट पर पहुँचकर, व्रती महिलाएं पूजा की सामग्रियाँ लेकर चौकी या चबूतरे पर बैठती हैं, और मिट्टी से बने छठ माता के चौरा पर पूजा की सामग्रियाँ सजाती हैं। सूर्यास्त से पहले, वे घुटने भर पानी में खड़े होकर डूबते सूर्य को अर्घ्य देती हैं और पाँच बार परिक्रमा करती हैं।
Chhath Puja : पूजन की सामग्रियाँ
संध्या अर्घ्य के दौरान पूजा के लिए ठेकुआ, चावल के लड्डू, और खेतों में उगने वाले नए कंद-मूल, फल, मसाले, और अन्न चढ़ाए जाते हैं। इनमें गन्ना, ओल, हल्दी, नारियल, बड़े नींबू, पके केले आदि को साबुत रूप में अर्पित किया जाता है। इसके अलावा दीप जलाने के लिए नए दीपक, नई बत्तियाँ, और घी लेकर घाट पर दीप जलाए जाते हैं। एक विशिष्ट अनाज, कुसही केराव के दाने, भी अर्पण हेतु लाए जाते हैं, लेकिन इन्हें संध्या अर्घ्य में अर्पित नहीं किया जाता, बल्कि इन्हें अगले दिन उगते सूर्य को अर्पण करने के लिए सुरक्षित रखा जाता है।
संध्या अर्घ्य के बाद कुछ लोग घाट पर रात भर रुकते हैं, वहीं कुछ लोग छठ गीत गाते हुए प्रसाद लेकर घर वापस आते हैं और इसे देवकरी (पूजा का स्थान) में रखते हैं।
4. उषा अर्घ्य (चौथा दिन)
Chhath Puja : छठ पूजा का चौथा और अंतिम दिन उषा अर्घ्य का होता है, जिसमें व्रती उदय होते सूर्य को अर्घ्य देते हैं। यह दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी को मनाया जाता है। सूर्योदय से पहले ही व्रती और उनके परिवारजन घाट पर पहुंचते हैं। जिस तरह संध्या अर्घ्य में सूर्य को अर्घ्य दिया गया था, उसी विधि से उषा अर्घ्य में भी अर्घ्य अर्पित किया जाता है, बस इस बार व्रती पूर्व दिशा की ओर मुख करके पानी में खड़े होकर पूजा करते हैं।
उषा अर्घ्य के समय संध्या अर्घ्य में चढ़ाए गए प्रसाद को नए पकवानों से बदल दिया जाता है, जबकि कंद, मूल, और फल वही रहते हैं। अर्घ्य अर्पण के पश्चात घाट पर पूजा की जाती है, और फिर वहां उपस्थित सभी लोगों में प्रसाद का वितरण होता है। इसके बाद व्रती घर वापस लौटते हैं और अपने परिवारजनों को भी प्रसाद बांटते हैं।
Chhath Puja : घर लौटने के बाद व्रती गाँव के पीपल के पेड़, जिसे ब्रह्म बाबा कहा जाता है, पर जाकर पूजा करते हैं। अंत में, व्रती कच्चे दूध का शरबत और थोड़ा प्रसाद ग्रहण करके व्रत का समापन करते हैं, जिसे पारण या परना कहते हैं। खरना के दिन से लेकर इस समय तक व्रती निर्जला उपवास पर रहते हैं, और व्रत समाप्त होने के बाद ही नमकयुक्त भोजन ग्रहण करते हैं। इस तरह, कठोर नियमों और संकल्प के साथ किए गए इस व्रत का समापन होता है, जो श्रद्धा, संयम, और समर्पण का प्रतीक है।