सत्यांश से उत्पन्न होना सती, सत्य का अंश होने के कारण सती

अध्यात्म,

परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने शिव और सती की कथा के माध्यम से यह बताएं कि जब हमारे अंदर की विश्वास समाप्त हो जाए , बुद्धि भृमित हो जाय तो हमारे पास पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचता है । अपने अंदर की श्रद्धा और विश्वास को हमेशा बनाए रखना चाहिए ।
माता सती को अपने पिता के घर यज्ञ में जाने पर यह एहसास होता है कि मैं सत्य का अंश हूं सत्यांश हूं इसलिए मेरा नाम सती है लेकिन मैं किसका साथ दे रही थी , माता सती कहती है कि हे! मेरे अपने अंदर की सद्गुणों तुमने भी विश्वास का साथ छोड़कर अहंकार का साथ दिया , अहंकार का साथ देने के कारण उसे टूट जाना पड़ता है , गुरु के घर, पिता के घर ,मित्र के घर बिना निमंत्रण के चले जाना चाहिए लेकिन जहां विरोध हो वहां नहीं जाना चाहिए भगवान भोलेनाथ माता सती को यही बात समझा रहे हैं लेकिन माता सती समझने को तैयार नही है।
जब माता सती पिता के घर बिना निमंत्रण के यज्ञ में जाती है और वहाँ पर पिता का व्यवहार देखती है माता सती बहुत दुखी होती है और वहीं पर अपने इस शरीर छोड़ने का निश्चय करती है।
शरीर को त्याग करना असत्य को छोड़कर योग अग्नि में प्रवेश करना । ज्ञान से जुड़ जाना , शरीर वही रहेगा लेकिन व्यक्तित्व में परिवर्तन हो जाता है । अज्ञान को छोड़कर नष्ट करके ज्ञान से जोड़ना योग अग्नि में प्रवेश करना । माता चंद्रमौली वृशकेतु का स्मरण करती है उस शिव का ध्यान करती है जिनके सिर पर चंद्रमा है । जब ह्रदय में भगवान का निवास होता है अयोध्या हृदय में है और हृदय यदि अग्नि से जल गया तो भगवान कैसे रहेगा , ह्रदय में चंद्रमा की तरह शीतलता रहे , भगवान बचे रहे इसलिए हृदय में तुरंत चंद्रमौली वृशकेतु का ध्यान करती है। हम सबके जीवन में यह घटना होती है जिसे भगवान के द्वारा लीला करके दिखाया गया है।
हम सबके जीवन में कभी भी वैचारिक मतभेद हो सकता है लेकिन इस पर समय रहते सुधार नहीं किया जाए तो दुर्गति हो जाती है , विनाश की तरफ ले जाती है शिव शक्ति की कथा का यह मुख्य अवयव है।

-:श्रीमती कल्पना शुक्ला