श्राद्ध कर्म और यज्ञ

श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी), प्रयागराज
श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी), प्रयागराज
अध्यात्म,
परम पूज्य गुरुदेव श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी) ने कथा के माध्यम से यह बताएं कि हम लोग ऋषि परंपरा के संतान है जब हम कोई भी कार्य करते हैं तब उस समय सर्व प्रथम अपने गोत्र का नाम लिया जाता है पिता का नहीं , अपना नाम और गोत्र का नाम अर्थात हम किस ऋषि के संतान हैं उस परंपरा में 15 दिन हम अपने पूर्वज को याद करके जिसके कारण आज हमारा अस्तित्व है हम उनको श्रद्धा अर्पण करते हैं । हिंदू धर्म का सर्वमान्य ग्रंथ है गीता ,मनुस्मृति, मार्कंडेय पुराण, गरुड़ पुराण । और इन सभी ग्रंथों में अपनी श्रद्धा पूर्वजों के प्रति व्यक्त करने की बात कही गई है । पिंड दान के बारे में भी यह बताया गया है कि लोहे के बर्तन में या स्टील के बर्तन में ना करें साथ ही रात्रि के समय ना करें मध्यकाल में करें और जेष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र को करने की बात कही गई है। और उपेक्षा करके नहीं अपितु भाव- भक्ति से पवित्र मन से करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अपने पूर्वजों को पिंडदान नहीं करता है फिर धन का अभाव ,व्यथा, रोग अनेक प्रकार की परेशानियां आने लगती है । हम जब हम अपने पूर्वजो के माध्यम से श्राद्ध अर्पण करते हैं भोजन ,अन्न,पानी देते हैं तब वह हमें हमारी पूर्वज अर्यमा लोक से आशीर्वाद देते हैं । अपने बड़ों को हमेशा प्रसन्न रखें और उनका आशीर्वाद प्राप्त करें उनसे आशीर्वाद मिलता है असमय पिंडदान करने से जब हमारे पूर्वज परेशान हो जाते थे तो सभी पितृगण ब्रह्मा जी के पास गए, ब्रह्मा जी अग्नि जी के पास भेज दिए । अग्नि देव ने दोपहर में पिंडदान करने की बात कही जब हम अग्नि की उपस्थिति में पिंडदान करते है, तब वह प्राप्त होता है इसलिए अग्नि में स्वाहा ,स्वधा के माध्यम से हवन किया जाता है और देवताओं तक पहुँच जाता हैं।
जेष्ठ पुत्र और कनिष्ठ पुत्र पिंड दान कर सकता है समाज का कोई भी व्यक्ति पिंडदान कर सकता है यहाँ तक कि शिष्य भी अपने गुरु के लिए पिंडदान कर सकता है । साथ में पवित्र मन से करना चाहिए भाव भक्ति से अपने पूर्वजों को तर्पण मार्जन करने से यथाशक्ति दान करने से पितृ गण हमें आशीर्वाद देते हैं और हम अन्न धन-धान्य से परिपूर्ण होते हैं। हमारे वंश में वृद्धि होती है इसलिए पितृपक्ष में अपने पूर्वजों को श्रद्धा अर्पण करना चाहिए। इस समय गीता का सातवां अध्याय का पाठ जरूर करना चाहिए इसमें पूरा पितरों के बारे में दिया गया है।
यज्ञ
यज्ञ का तीन अर्थ होता है दान करना, संगति करना और देवत्व की प्राप्ति करना । भागवत में यज्ञ को जीवन दर्शन बताया गया, गीता में प्रत्येक कर्म को यज्ञ की भांति करने की बात कही गई है । शब्दों की आहुति देकर हम कान रूपी हवन कुंड में डालते हैं । इसलिए ऐसा शब्द बोले जो सुनने में अच्छा लगे , प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर 3 ऋण होता है देव ऋण ,पित्र ऋण, ऋषि ऋण । भगवान के समस्त कार्य में हमें सहयोग करके देव ऋण से मुक्त होते है, भगवान ने समस्त सृष्टि को संतुलित कर दिया । अपने कुप्रवृत्ति की आहुति डालकर के सज्जनों की संगति करना ,उनके माध्यम से यथाशक्ति दान करना और भाव भक्ति करना यज्ञ करना ।
यज्ञ स्वयं में नारायण है । यज्ञ को यज्ञनारायण कहा गया है, इसलिए यज्ञ में तन, मन, धन से सहयोग करना चाहिए । जब कभी भी कोई यज्ञ में सेवा या सहयोग का अवसर मिले स्वयं को परम सौभाग्यशाली समझ कर हमें तन मन धन से भगवान के कार्य में सहयोग करते रहना चाहिए । भगवान ने सभी को सामर्थ्यवान बनाया है,हम असमर्थ स्वयं हो जाते है, जब हम मन से कोई कार्य मे सहयोग करने लगे भगवान हमारी स्वयं सहायता करते है।
भगवान कृष्ण जब माखन खाने गोपियों के घर जाते हैं तो 3 ही मित्र भगवान के साथ होते हैं , तनसुख, मनसुख, धनसुख ।और उसके ऊपर कृष्ण। कन्हैया माखन निकालकर पहले मित्रो को देते है फिर स्वयं खाते है, तातपर्य क्या है? जब हम तन, मन, धन से भगवान के लिए समर्पित होते हैं, फिर भगवान हमे उसका कई गुना फल देते है। प्रत्येक मनुष्य को यथाशक्ति यज्ञ कार्य में सहयोग करना चाहिए।
– श्रीमती कल्पना शुक्ला

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