माँ के उपासना और नवरात्री की नवमी तिथि है, श्रीदुर्गाजी के ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती सप्तमोऽध्यायः॥ देवी सारे दुर्गुणों का सर्वनाश कर देती हैं

अध्यात्म

आज शारदीय नवरात्री की महानवमी तिथि है आज माँ के उपाशना की नवमी  तिथि है, आज की इस कड़ी में ‘श्री दुर्गाजी के इस ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती सप्तमोऽध्यायः॥ का पाठ को पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है |जगज्जननी माँ भगवती श्री दुर्गा जी की कृपा से एवं गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी के आशीर्वचनों से वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो श्री दुर्गा सप्तशती एवं ‘कल्याण’ के विशेषाङ्क ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय ब्रह्मपुराणाङ्क’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  वही सप्तशती भाग एक के क्रम में संक्षिप्त पाठ विधि विधान सहित एवं अर्थ श्लोक सहित दुर्गा जी की महिमा को प्रति दिन दैनिक हिन्द मित्र के वेबसाइट https://dainikhindmitra.com/ पर पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है ।

सप्तमोऽध्यायः

चण्ड और मुण्डका वध

ध्यानम्

ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वत श्यामलाङ्गीं न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम् । कहाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम् ॥

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ॥ १ ॥

आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्चण्डमुण्डपुरोगमाः । चतुरङ्गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः ॥ २ ॥
ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम् । सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्गे महति काञ्चने ॥ ३ ॥

ते दृष्ट्वा तां समादातुमुद्यमं आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये l चक्रुरुद्यताः तत्समीपगाः ॥ ४ ॥
ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति । कोपेन चास्या वदनं मषी वर्णमभूत्तदा ॥ ५ ॥
भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्रुतम् । काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी ॥ ६ ॥
विचित्रखट्वाङ्गधरा नरमालाविभूषणा । द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा ॥ ७ ।।
अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा । निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्मुखा ॥ ८ ॥
सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान् । सैन्ये तंत्र सुरारीणामभक्षयत तद्बलम् ॥ ९ ॥
पार्ष्णिग्राहाङ्कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान् । समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान् ॥ १० ॥
तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह । निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्चर्वयन्त्य ‘तिभैरवम् ।। ११ ।।
एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम् । पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत् ।। १२ ।।
तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः । मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि ॥ १३ ॥
बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम् । ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्चाताडयत्तथा ।। १४ ।।
असिना निहताः केचित्केचित्खट्वाङ्गता ‘डिताः । जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा ।। १५ ।।

क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम् । दृष्ट्वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम् ॥ १६ ॥
शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः । छादयामास चक्रैश्च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः ॥ १७ ॥
तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम् । बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम् ॥ १८ ॥
ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी । कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला ॥ १९ ॥
उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत । गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत् ॥ २० ।।

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् । तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा ॥ २१ ॥
हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्वा चण्डं निपातितम् । मुण्डं च सुमहावीर्य दिशो भेजे भयातुरम् ॥ २२ ॥
शिरश्चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च । प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम् ॥ २३ ॥
मया तवात्रोपहतौ चण्डमुण्डौ महापशू । युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि ॥ २४ ॥

ऋषिरुवाच ॥ २५ ॥

तावानीतौ ततो दृष्ट्वा चण्डमुण्डौ महासुरौ । उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः ॥ २६ ॥
यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता । चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि ॥ ॐ ॥ २७॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ उवाच २, श्लोकाः २५, एवम् २७, एवमादितः ४३९ ।।

हिंदी अनुवाद 

मैं मातङ्गी देवीका ध्यान करता हूँ। वे रत्नमय सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं। उनके शरीर का वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमलपर रखे हुए हैं और मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कार पुष्पों की माला धारण किये वीणा बजाती हैं। उनके अङ्गमें कसी हुई चोली शोभा पा रही है। वे लाल रंगकी साड़ी पहने हाथमें शङ्खमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदन पर मधुका हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाटमें बेंदी शोभा दे रही है।

ऋषि कहते हैं- ॥ १ ॥ तदनन्तर शुम्भकी आज्ञा पाकर वे चण्ड-मुण्ड आदि दैत्य चतुरङ्गिणी सेनाके साथ अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो चल दिये ॥२॥ फिर गिरिराज हिमालयके सुवर्णमय ऊँचे शिखरपर पहुँचकर उन्होंने सिंहपर बैठी देवीको देखा। वे मन्द-मन्द मुसकरा रही थीं ॥ ३ ॥ उन्हें देखकर दैत्यलोग तत्परतासे पकड़नेका उद्योग करने लगे। किसीने धनुष तान लिया, किसीने तलवार सँभाली और कुछ लोग देवीके पास आकर खड़े हो गये ॥ ४ ॥ तब अम्बिकाने उन शत्रुओंके प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोधके कारण उनका मुख काला पड़ गया ॥ ५ ॥ ललाटमें भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहाँसे तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुई, जो तलवार और पाश लिये हुए थीं ॥ ६ ॥ वे विचित्र खट्वाङ्ग धारण किये और चीतेके चर्मकी साड़ी पहने नर-मुण्डोंकी मालासे विभूषित थीं। उनके शरीरका मांस सूख गया था, केवल हड्डियोंका ढाँचा था, जिससे वे अत्यन्त भयंकर जान पड़ती थीं ॥ ७ ॥ उनका मुख बहुत विशाल था, जीभ लपलपानेके कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं। उनकी आँखें भीतरको धंसी हुई और कुछ लाल थीं, वे अपनी भयंकर गर्जनासे सम्पूर्ण दिशाओको गुंजा रही थीं ॥ ८ ॥ बड़े-बड़े दैत्योंका वध करती हुई वे कालिकादेवी बड़े वेगसे दैत्योंकी उस सेनापर टूट पड़ीं और उन सबको भक्षण करने लगीं ॥ ९ ॥ वे पार्श्वरक्ष कों, अङ्कुशधारी महावतों, योद्धा ओं और घण्टासहित कितने ही हाथियों को एक ही हाथसे पकड़कर मुँहमें डाल लेती थीं ॥ १० ॥ इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथिके साथ रथी सैनिकोंको मुँहमें डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूपसे चबा डालती थीं ॥ ११ ॥ किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसीका गला दबा देती, किसी को पैरों से कुचल डालती और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं ॥ १२ ॥ वे असुरो के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुँहसे पकड़ लेतीं और रोषमें भरकर उनको दाँतोंसे पीस डालती थीं ॥ १३ ॥ काली ने बलवान् एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनोंको मार भगाया ॥ १४ ॥ कोई तलवारके घाट उतारे गये, कोई खट्वाङ्ग से पीटे गये और कितने ही असुर दाँतोंके अग्रभागसे कुचले जाकर मृत्युको प्राप्त हुए ॥ १५ ।। इस प्रकार देवीने असुरोंकी उस सारी सेनाको क्षणभरमें मार गिराया । यह देख चण्ड उन अत्यन्त भयानक कालीदेवीकी ओर दौड़ा ॥ १६ ॥ तथा महादैत्य मुण्डने भी अत्यन्त भयंकर बाणोंकी वर्षासे तथा हजारों बार चलाये हुए चक्रोंसे उन भयानक नेत्रोंवाली देवीको आच्छादित कर दिया ॥ १७ ॥ वे अनेकों चक्र देवीके मुखमें समाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्यके बहुतेरे मण्डल बादलोंके उदरमें प्रवेश कर रहे हो ॥ १८ ॥ तब भयंकर गर्जना करनेवाली कालीने अत्यन्त रोषमें भरकर विकट अट्टहास किया। उस समय उनके विकराल वदनके भीतर कठिनतासे देखे जा सकनेवाले दाँतोकी प्रभासे वे अत्यन्त उज्ज्वल दिखायी देती थीं ॥ १९ ॥ देवीने बहुत बड़ी तलवार हाथमें ले ‘हे’ का उच्चारण करके चण्ड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवारसे उसका मस्तक काट डाला ॥ २० ॥ चण्ड को मारा गया देखकर मुण्ड भी देवीकी ओर दौड़ा। तब देवीने रोषमें भरकर उसे भी तलवारसे घायल करके धरतीपर सुला दिया ॥ २१ ॥ महापराक्रमी चण्ड और मुण्ड को मारा गया देख मरने से बची हुई बाकी सेना भवसे व्याकुल हो चारों ओर भाग गयी ॥ २२ ॥ तदनन्तर कालीने चण्ड और मुण्डका मस्तक हाथमें ले चण्डिकाके पास जाकर प्रचण्ड अट्टहास करते हुए कहा- ॥ २३ ॥ ‘देवि! मैंने चण्ड और मुण्ड नामक इन दो महापशुओं को तुम्हें भेंट किया है। अब युद्धयज्ञ में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना’ ॥ २४ ॥

ऋषि कहते हैं- ॥ २५ ॥ वहाँ लाये हुए उन चण्ड-मुण्ड नामक महादैत्यों को देखकर कल्याण मयी चण्डी ने काली से मधुर वाणी में कहा – ॥ २६ ॥ देवि! तुम चण्ड और मुण्डको लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिये संसारमें चामुण्डा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी ॥ २७ ॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके
अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘चण्ड-मुण्ड-वघ’ नामक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७ ॥

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here