माँ के उपासना और नवरात्री की अष्टमी तिथि है, श्रीदुर्गाजी के ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती षष्ठोऽध्यायः॥ देवी सारे दुर्गुणों का सर्वनाश कर देती हैं

अध्यात्म

आज शारदीय नवरात्री की अष्टमी तिथि है आज माँ के उपाशना की अष्टमी तिथि है, आज की इस कड़ी में ‘श्री दुर्गाजी के इस ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती षष्ठोऽध्यायः॥ का पाठ को पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है |जगज्जननी माँ भगवती श्री दुर्गा जी की कृपा से एवं गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी के आशीर्वचनों से वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो श्री दुर्गा सप्तशती एवं ‘कल्याण’ के विशेषाङ्क ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय ब्रह्मपुराणाङ्क’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  वही सप्तशती भाग एक के क्रम में संक्षिप्त पाठ विधि विधान सहित एवं अर्थ श्लोक सहित दुर्गा जी की महिमा को प्रति दिन दैनिक हिन्द मित्र के वेबसाइट https://dainikhindmitra.com/ पर पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है ।

षष्ठोऽध्यायः

।। धूम्रलोचन-वध ।।

ध्यानम्

ॐ नागाधीश्वरविष्टरां फणिफणोत्तंसोरुरत्नावली भास्वदेहलतां दिवाकरनिभां नेत्रत्रयोद्भासिताम् । मालाकुम्भकपालनीरजकरां चन्द्रार्धचूडां परां सर्वज्ञेश्वरभैरवाङ्कनिलयां पद्मावतीं चिन्तये ॥ ॥

‘ॐ’ ऋषिरुवाच ॥ १ ॥

इत्याकर्ण्य वचो देव्याः स दूतोऽमर्षपूरितः । समाचष्ट समागम्य दैत्यराजाय विस्तरात् ॥ २ ॥
तस्य दूतस्य तद्वाक्यमाकर्ण्यासुरराट् ततः । सक्रोधः प्राह दैत्यानामधिपं धूम्रलोचनम् ॥ ३ ॥                                     हे धूम्रलोचनाशु त्वं स्वसैन्यपरिवारितः । तामानय बलाद् दुष्टां केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ४ ॥
तत्परित्राणदः कश्चिद्यदि वोत्तिष्ठतेऽपरः । स हन्तव्योऽमरो वापि यक्षो गन्धर्व एव वा ॥ ५ ॥

ऋषिरुवाच ॥ ६ ॥

तेनाज्ञप्तस्ततः शीघ्रं स दैत्यो धूम्रलोचनः । वृतः षष्ट्या सहस्त्राणामसुराणां द्रुतं ययौ ॥ ७ ॥
स दृष्ट्वा तां ततो देवीं तुहिनाचलसंस्थिताम् । जगादोच्चैः प्रयाहीति मूलं शुम्भनिशुम्भयोः ॥ ८ ॥
न चेत्प्रीत्याद्य भवती मद्भर्तारमुपैष्यति । ततो बलान्नयाम्येष केशाकर्षणविह्वलाम् ॥ ९ ॥

देव्युवाच ॥ १० ॥

दैत्येश्वरेण प्रहितो बलवान् बलसंवृतः । बलान्त्रयसि मामेवं ततः किं ते करोम्यहम् ॥ ११ ॥

ऋषिरुवाच ।। १२ ।।

इत्युक्तः सोऽभ्यधावत्तामसुरो धूम्रलोचनः । हुंकारेणैव तं भस्म सा चकाराम्बिका ततः ।। १३ ।।
अथ क्रुद्धं महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका’ । ववर्ष सायकैस्तीक्ष्णैस्तथा शक्तिपरश्वधैः ॥ १४ ।।
ततो धुतसट: कोपात्कृत्वा नादं सुभैरवम् । पपातासुरसेनायां सिंहो देव्याः स्ववाहनः ।। १५ ।।
कांश्चित् करप्रहारेण दैत्यानास्येन चापरान् । आक्रम्य चाधरेणान्यान् स जघान महासुरान् ।। १६ ।।
केषांचित्पाटयामास नखैः कोष्ठानि केसरी” । तथा तलप्रहारेण शिरांसि कृतवान् पृथक् ।। १७ ।।
विच्छिन्नबाहुशिरसः कृतास्तेन तथापरे । पपौ च रुधिरं कोष्ठादन्येषां धुतकेसरः ।। १८ ।।
क्षणेन तद्बलं सर्वं क्षयं नीतं महात्मना । तेन केसरिणा देव्या वाहनेनातिकोपिना ॥ १९ ॥
श्रुत्वा तमसुरं देव्या निहतं धूम्रलोचनम् । बलं च क्षयितं कृत्स्नं देवीकेसरिणा ततः ॥ २० ॥
चुकोप दैत्याधिपतिः शुम्भः प्रस्फुरिताधरः । आज्ञापयामास च तौ चण्डमुण्डौ महासुरौ ।। २१ ।।
हे चण्ड हे मुण्ड बलैर्बहुभिः परिवारितौ । तत्र गच्छत गत्वा च सा समानीयतां लघु ॥ २२ ॥
केशेष्वाकृष्य बद्ध्वा वा यदि वः संशयो युधि । ताशेषायुधैः सर्वैरसुरैर्विनिहन्यताम् ॥ २३ ॥
तस्यां हतायां दुष्टायां सिंहे च विनिपातिते । शीघ्रमागम्यतां बद्ध्वा गृहीत्वा तामथाम्बिकाम् ॥ ॐ ॥ २४ ॥

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिक मन्वन्तरे देवीमाहात्ये शुम्भनिशुम्भसेनानीधूम्रलोचनवधो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
उवाच ४ श्लोकाः २०, एवम् २४, एवमादितः ४१२ ॥

।। अर्थ।।

मैं सर्वज्ञेश्वर भैरव के अङ्क में निवास करनेवाली परमोत्कृष्ट पद्मावती देवीका चिन्तन करता हूँ। वे नागराजके आसनपर बैठी हैं, नागोंके फणोंमें सुशोभित होनेवाली मणियोंकी विशाल मालासे उनकी देहलता उद्भासित हो रही है । सूर्य के समान उनका तेज है, तीन नेत्र उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वे हाथों में माला, कुम्भ, कपाल और कमल लिये हुए हैं तथा उनके मस्तकमें अर्धचन्द्रका मुकुट सुशोभित है ।

ऋषि कहते हैं- ॥ १ ॥ देवी का यह कथन सुनकर दूत को बड़ा अमर्ष हुआ और उसने दैत्यराजके पास जाकर सब समाचार विस्तारपूर्वक कह सुनाया ॥ २ ॥ दूतके उस वचनको सुनकर दैत्यराज कुपित हो उठा और दैत्यसेनापति धूम्रलोचनसे बोला ॥ ३ ॥ ‘धूम्रलोचन ! तुम शीघ्र अपनी सेना साथ लेकर जाओ और उस दुष्टाके केश पकड़कर घसीटते हुए उसे बलपूर्वक यहाँ ले आओ ॥ ४ ॥ उसकी रक्षा करनेके लिये यदि कोई दूसरा खड़ा हो तो वह देवता, यक्ष अथवा गन्धर्व ही क्यों न हो, उसे अवश्य मार डालना ॥ ५ ॥

ऋषि कहते हैं- ॥ ६ ॥ शुम्भके इस प्रकार आज्ञा देनेपर वह धूम्रलोचन दैत्य साठ हजार असुरोंकी सेनाको साथ लेकर वहाँसे तुरंत चल दिया ॥ ७ ॥ वहाँ पहुँचकर उसने हिमालयपर रहनेवाली देवीको देखा और ललकारकर कहा- ‘अरी! तू शुम्भ-निशुम्भके पास चल। यदि इस समय प्रसन्नतापूर्वक मेरे स्वामीके समीप नहीं चलेगी तो मैं बलपूर्वक झोटा पकड़कर घसीटते हुए तुझे ले चलूँगा’ ॥ ८ – ९॥

देवी बोलीं- ॥१०॥ तुम्हें दैत्यों कि राजा ने भेजा है, तुम स्वयं भी बलवान् हो और तुम्हारे साथ विशाल सेना भी है; ऐसी दशामें यदि मुझे बलपूर्वक ले चलोगे तो मैं तुम्हारा क्या कर सकती हूँ? ॥ ११ ॥

ऋषि कहते हैं— ॥ १२ ॥ देवीके यों कहनेपर असुर धूम्रलोचन उनकी ओर दौड़ा, तब अम्बिकाने ‘हुं’ शब्दके उच्चारणमात्रसे उसे भस्म कर दिया ॥ १३ ॥ फिर तो क्रोधमें भरी हुई दैत्योंकी विशाल सेना और अम्बिकाने एक दूसरेपर तीखे सायकों, शक्तियों तथा फरसोंकी वर्षा आरम्भ की ॥ १४ ॥ इतनेमें ही देवीका वाहन सिंह क्रोधमें भरकर भयंकर गर्जना करके गर्दनके बालोंको हिलाता हुआ असुरोंकी सेनामें कूद पड़ा ॥ १५ ॥ उसने कुछ दैत्योंको पंजोंकी मारसे, कितनोंको अपने जबड़ोंसे और कितने ही महादैत्योंको पटककर ओठकी दाढ़ोंसे घायल करके मार डाला ॥ १६ ॥ उस सिंहने अपने नखोंसे कितनोंके पेट फाड़ डाले और थप्पड़ मारकर कितनोंके सिर धड़से अलग कर दिये ।। १७ ।।
कितनोंकी भुजाएँ और मस्तक काट डाले तथा अपनी गर्दनके बाल हिलाते हुए उसने दूसरे दैत्योंके पेट फाड़कर उनका रक्त चूस लिया ॥ १८ ।। अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए देवीके वाहन उस महाबली सिंहने क्षणभरमें ही असुरोकी सारी सेनाका संहार कर डाला । १९ ।।

शुम्भने जब सुना कि देवीने धूम्रलोचन असुरको मार डाला तथा उसके सिंहने सारी सेनाका सफाया कर डाला, तब उस दैत्यराजको बड़ा क्रोध हुआ । उसका ओठ काँपने लगा। उसने चण्ड और मुण्ड नामक दो महादैत्योंको आज्ञा दी- ॥ २० – २१ ॥ ‘हे चण्ड! और हे मुण्ड! तुमलोग बहुत बड़ी सेना लेकर वहाँ जाओ, उस देवीके झोटे पकड़कर अथवा उसे बाँधकर शीघ्र यहाँ ले आओ । यदि इस प्रकार उसको लानेमें संदेह हो तो युद्धमें सब प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों तथा समस्त आसुरी सेना का प्रयोग करके उसकी हत्या कर डालना ॥ २२ – २३ ॥ उस दुष्टाकी हत्या होने तथा सिंहके भी मारे जानेपर उस अम्बिकाको बाँधकर साथ ले शीघ्र ही लौट आना ॥ २४ ॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें ‘धूम्रलोचन-वध’ नामक छठा अध्याय पूरा हुआ ॥ ६ ॥

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