माँ के उपाशना और नवरात्री का पंचमी तिथि है, श्रीदुर्गाजी के ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती तृतीयोऽध्यायः॥ सेना पतियों सहित महिषासुर का वध

 

आज से शारदीय नवरात्री प्रारंभ हो रहा आज माँ के उपाशना और नवरात्री का पंचमी तिथि है, आज की इस कड़ी में ‘श्री दुर्गाजी के इस ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती तृतीयोऽध्यायः ॥ का पाठ को पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है |

जगज्जननी माँ भगवती श्री दुर्गा जी की कृपा से एवं गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी के आशीर्वचनों से वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो श्री दुर्गा सप्तशती एवं ‘कल्याण’ के विशेषाङ्क ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय ब्रह्मपुराणाङ्क’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  वही सप्तशती भाग एक के क्रम में संक्षिप्त पाठ विधि विधान सहित एवं अर्थ श्लोक सहित दुर्गा जी की महिमा को प्रति दिन दैनिक हिन्द मित्र के वेबसाइट https://dainikhindmitra.com/ पर पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है ।

तृतीयोऽध्यायः

सेनापतियोंसहित महिषासुरका वध

 

ध्यानम्

ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां रक्तालिप्तपयोधरां जपवीं विद्यामभीतिं वरम् । हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं देवीं बद्धहिमांशुरत्नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ॥

ॐ’ ऋषिरुवाच ॥ १ ॥

निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य
महासुरः । सेनानीश्चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्धुमथाम्बिकाम् ॥ २ ॥
स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः । यथा मेरुगिरेः शृङ्गं तोयवर्षेण तोयदः ॥ ३ ॥
तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान् । जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम् ॥ ४ ॥
चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम् । विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः ॥ ५ ॥
सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्वो हतसारथिः । अभ्यधावत तां देवीं खड्गचर्मधरोऽसुरः ॥ ६ ॥
सिंहमाहत्य खड्गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि । आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान् ॥ ७ ॥
तस्याः खड्गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन । ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः ॥ ८॥
चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः । जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात् ॥ ९ ॥
दृष्ट्वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत । तच्छूलं शतधा तेन नीतं स च महासुरः ।। १० ।।
हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ । आजगाम गजारूढश्चामरस्त्रिदशार्दनः ।। ११ ।।
सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम् l हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम् ।। १२ ।।
भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्वा क्रोधसमन्वितः । चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत् ।। १३ ।।
ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः । बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा ।। १४ ।।

युद्ध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ । युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः ।। १५ ।।
ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा । करप्रहारेण शिरश्चामरस्य पृथक्कृतम् ।। १६ ।।
उदग्रश्च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः । दन्तमुष्टितलैश्चैव करालश्च निपातितः ।। १७ ।।
देवी क्रुद्धा गदापातैश्चर्णयामास चोद्धतम् । वाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम् ।। १८ ।।
उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम् । त्रिनेत्रा त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी ।। १९ ।।
बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः । दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ॥ २० ।।
बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः । दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम् ॥ २० ।।
वेगेन कांश्चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च । निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले ॥ २३ ॥
निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः । सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका ॥ २४ ॥
सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः । शृङ्गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च ।। २५ ।।
वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत । लागूलेनाहतश्चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः ॥ २६ ॥
धुतशृङ्गविभिन्नाश्च खण्डं खण्डं ययुर्घनाः । श्वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः ।। २७ ॥
इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम् । दृष्ट्वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत् ॥ २८ ॥
सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम् । तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे ॥ २९ ॥
ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः । छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्गपाणिरदृश्यत ॥ ३० ॥
तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः । तं खड्गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः ।। ३१ ।।
करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च । कर्षतस्तु करं देवी खड्गेन निरकृन्तत ॥ ३२ ॥
ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः । तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ३३ ॥
ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम् । पपौ पुनः पुनश्चैव जहासारुणलोचना ॥ ३४ ॥
ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्धतः । विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान् ॥ ३५ ॥
सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः । उवाच तं मदोद्धूतमुखरागाकुलाक्षरम् ॥ ३६॥

देव्युवाच ॥ ३७ ॥

गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम् । मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः ॥ ३८ ॥

ऋषिरुवाच ।। ३९ ।।

एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम् । पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत् ॥ ४० ॥
ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः । अर्धनिष्क्रान्त एवासीद् देव्या वीर्येण संवृतः ॥ ४१ ।।

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः । तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः ।। ४२ ।।
ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत् । प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः ॥ ४३ ॥
तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः । जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ॐ ।। ४४ ।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये महिषासुरवधो

नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

उवाच ३, श्लोकाः ४१, एवम् ४४, एवमादितः २१७ ।।

जगदम्बा के श्रीअङ्गकी कान्ति उदयकाल के सहस्रों सूर्यों कि समान है। वे लाल रंगकी रेशमी साड़ी पहने हुए हैं। उनके गलेमें मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनोंपर रक्त चन्दन का लेप लगा है। वे अपने कर-कमलों में जप मालिका, विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। तीन नेत्रोंसे सुशोभित मुखारविन्दकी बड़ी शोभा हो रही है। उनके मस्तकपर चन्द्रमाके साथ ही रत्नमय मुकुट बँधा है तथा वे कमल के आसन पर विराजमान हैं। ऐसी देवी को मैं भक्ति पूर्वक प्रणाम करता हूँ ।

ऋषि कहते हैं- ॥ १ ॥ दैत्योंकी सेना को इस प्रकार तहस-नहस होते देख महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रोध में भरकर अम्बिका देवी से युद्ध करने के लिये आगे बढ़ा ॥ २ ॥ वह असुर रणभूमि में देवी के ऊपर इस प्रकार बाणों की वर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरुगिरि के शिखर पर पानी की धार बरसा रहा हो ॥ ३ ॥ तब देवीने अपने बाणों से उसके बाण समूह को अनायास ही काटकरे, उसके घोड़ों और सारथि को भी मार डाला ॥ ४ ॥ साथ ही उसके धनुष तथा अत्यन्त ऊँची ध्वजा को भी तत्काल काट गिराया। धनुष कट जानेपर उसके अङ्गों को अपने बाणों से बींध डाला ॥ ५ ॥ धनुष, रथ, घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की ओर दौड़ा ॥ ६ ॥ उसने तीखी धारवाली तलवार से सिंह के मस्तक पर चोट करके देवी की भी बायीं भुजा में बड़े वेग से प्रहार किया ॥ ७ ॥ राजन् ! देवी की बाँह पर पहुँचते ही वह तलवार टूट गयी, फिर तो क्रोध से लाल आँखें करके उस राक्षस ने शूल हाथ में लिया ॥ ८ ॥ और उसे उस महादैन्य ने भगवती भद्रकाली के ऊपर चलाया। वह शूल आकाश से गिरते हुए सूर्यमण्डल की भाँति अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा ॥ ९ ॥ उस शूल को अपनी ओर आते देख देवी ने भी शूल का प्रहार किया। उससे राक्षस के शूलके सैकड़ों टुकड़े हो गये, साथ ही महादैत्य चिक्षुरकी भी धज्जियाँ उड़ गयीं। वह प्राणोंसे हाथ धो बैठा ॥ १० ॥

महिषासुर के सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुर के मारे जाने पर देवताओं को पीड़ा देनेवाला चामर हाथी पर चढ़कर आया। उसने भी देवी के ऊपर शक्ति का प्रहार किया, किंतु जगदम्बा ने उसे अपने हुंकार से ही आहत एवं निष्प्रभ करके तत्काल पृथ्वीपर गिरा दिया ॥ ११-१२ । शक्ति टूटकर गिरी हुई देख चामर को बड़ा क्रोध हुआ। अब उसने शूल चलाया, किंतु देवीने उसे भी अपने बाणो द्वारा काट डाला ॥ १३ ॥ इतने में ही देवी का सिंह उछलकर हाथी के मस्तक पर चढ़ बैठा और उस दैत्य के साथ खूब जोर लगाकर बाहुयुद्ध करने लगा ॥ १४ ॥ वे दोनों लड़ते-लड़ते हाथी से पृथ्वीपर आ गये और अत्यन्त क्रोध में भरकर एक दूसरे पर बड़े भयंकर प्रहार करते हुए लड़ने लगे ॥ १५ ॥ तदनन्तर सिंह बड़े वेग से आकाश की ओर उछला और उधर से गिरते समय उसने पंजों की मार से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया ॥ १६ ॥ इसी प्रकार उदग्र भी शिला और वृक्ष आदिकी मार खाकर रणभूमि में देवी के हाथ से मारा गया तथा कराल भी दाँतों, मुक्कों और थप्पड़ों की चोट से धराशायी हो गया ॥ १७ ॥ क्रोध में भरी हुई देवी ने गदाकी चोट से उद्धत का कचूमर निकाल डाला। भिन्दिपाल से वाष्कलको तथा बाणों से ताम्र और अन्धक को मौत के घाट उतार दिया ॥ १८॥ तीन नेत्रोंवाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य, उग्रवीर्य तथा महाहनु नामक दैत्य को मार डाला ॥ १९ ॥ तलवार की चोट से विडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया दुर्धर और दुर्मुख- इन दोनो को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया ॥ २० ॥
इस प्रकार अपनी सेना का संहार होता देख महिषासुर ने भैसे का रूप धारण करके देवी के गणों को त्रास देना आरम्भ किया ॥ २१ ॥ किन्हीं को थूथुन से मारकर, किन्हीं के ऊपर खुरो का प्रहार करके, किन्हीं किन्हीं को पूँछ से चोट पहुंचाकर, कुछ को सींगों से विदीर्ण करके, कुछ गणो को वेग से, किन्हीं को सिंहनाद से, कुछ को चकर देकर और कितनों को निःश्वास वायु के झोंके से धराशायी कर दिया ॥ २२ – २३ ॥ इस प्रकार गणों की सेना को गिराकर वह असुर महादेवीके सिंह को मारने के लिये झपटा। इससे जगदम्बा को बड़ा क्रोध हुआ ॥ २४ ॥ उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा तथा अपने सींगों से ऊँचे-ऊँचे पर्वतों को उठाकर फेंकने और गर्जने लगा ॥ २५ ॥ उसके वेग से चकर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी। उसकी पूँछ से टकराकर समुद्र सब ओर से धरती को डुबोने लगा ॥ २६ ॥ हिलते हुए साँगों के आघात से विदोर्ण होकर बादलों के टुकड़े-टुकड़े हो गये। उसके बासको प्रचण्ड वायु के वेग से उड़े हुए सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे ॥ २७ ॥ इस प्रकार में भरे हुए उस महादैत्य को अपनी ओर आते देख चण्डिका ने उसका वध करने के लिये महान् क्रोध किया॥२८॥ उन्होंने पाश फेंककर उस महान् असुरको बांध लिया। उस महासंग्राम में बंध जाने पर उसने भैसे का रूप त्याग दिया ॥ २९ ॥ और तत्काल सिंह के रूप में वह प्रकट हो गया। उस अवस्था में जगदम्बा ज्यों ही उसका क काटने के लिये उद्यत हुई, त्यों ही वह खड्गधारी पुरुष के रूपमें दिखायी देने लगा ॥ ३० ॥ तत्व देवाने तुरंत ही बाकी वर्षा करके झाल और खारके साथ उस पुरुषको भी बोध डाला। इतनेमें ही वह महान् गजराजके रूप में परिवत हो गया ॥ ३१ ॥ तथा अपनी सैइसे देवीके विशाल सिंहको खोंचने और गहने लगा। खींचते समय देवीने तलवारसे उसकी सैंड़ काट डाली ॥ ३२ ॥ तब उस महादैत्यने पुनः भैसेका शरीर धारण कर लिया और पहलेकी ही भाँति चराचर प्राणियोसहित तीनों लोकोंको व्याकुल करने लगा ॥ ३३ ॥ तब क्रोधमे भरी हुई जगन्माता चण्डिका बारंबार उत्तम मधुका पान करने और लाल आँखें करके हँसने लगीं ॥ ३४ ॥ उधर वह बल और पराक्रमके मदसे उन्मत्त हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगोंसे चण्डीके ऊपर पर्वतोंको फेंकने लगा ॥ ३५ ॥ उस समय देवी अपने बाणों के समूहों से उसके फेंके हुए पर्वता को चूर्ण करती हुई बोलों बोलते समय उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था और वाणी लड़खड़ा रही थी ॥ ३६ ॥

देवी ने कहा- ॥ ३७॥ ओ मूढ़ ! मैं जबतक मधु पीती हूँ, तब तक तू क्षणभर के लिये खूब गर्ज ले। मेरे हाथ से यहीं तेरी मृत्यु हो जानेपर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे ॥ ३८ ॥

ऋषि कहते हैं- ॥ ३९ ॥ यो कहकर देवी उछली और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गयीं। फिर अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कण्ठ में आघात किया ॥४०॥ उनके पैर से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुख से [दूसरे रूपमें बाहर होने लगा] अभी आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया था कि देवी ने अपने प्रभाव से उसे रोक दिया ॥ ४१ ॥ आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा। तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया ॥ ४२ ॥ फिर तो हाहाकार करती हुई दैत्यों की सारी सेना भाग गयी तथा सम्पूर्ण देवता अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ४३ ॥ देवताओं ने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गा दिवीका स्तवन किया गन्धर्व राज गाने लगे तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥ ४४ ॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्यमें ‘महिषासुरवध’ नामक तीसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ ३ ॥

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