माँ की उपासना ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती नवमोऽध्यायः॥ साधना, व्रत के लिए एक सर्वमान्य ग्रंथ श्री दुर्गा सप्तशती आराधना से सबके कष्ट दूर होते हैं.

अध्यात्म

आज की इस कड़ी में साधना, उपासना, व्रत के लिए एक सर्वमान्य ग्रंथ श्री दुर्गा सप्तशती आराधना से सबके कष्ट दूर होते हैं. ‘श्री दुर्गाजी के  ॥ अथ श्रीदुर्गासप्तशती नवमोऽध्यायः॥ का पाठ को पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है |जगज्जननी माँ भगवती श्री दुर्गा जी की कृपा से एवं गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी के आशीर्वचनों से वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो श्री दुर्गा सप्तशती एवं ‘कल्याण’ के विशेषाङ्क ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय ब्रह्मपुराणाङ्क’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  वही सप्तशती भाग एक के क्रम में संक्षिप्त पाठ विधि विधान सहित एवं अर्थ श्लोक सहित दुर्गा जी की महिमा को प्रति दिन दैनिक हिन्द मित्र के वेबसाइट http://dainikhindmitra.com/ पर पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है ।

नवमोऽध्यायः

निशुम्भ-वध

ध्यानम्

ॐ बन्धूककाञ्चननिभं रुचिराक्षमालां पाशाङ्कुशौ च वरदां निजबाहुदण्डैः । बिभ्राणमिन्दुशकलाभरणं त्रिनेत्रमर्धाम्बिकेशमनिशं वपुराश्रयामि ॥

‘ॐ’ राजोवाच ॥ १ ॥

विचित्रमिदमाख्यातं भगवन् भवता मम । देव्याश्चरितमाहात्म्यं रक्तबीजवधाश्रितम् ॥ २ ॥
भूयश्चेच्छाम्यहं श्रोतुं रक्तबीजे निपातिते । चकार शुम्भो यत्कर्म निशुम्भश्चातिकोपनः ॥ ३ ॥

ऋषिरुवाच ॥ ४ ॥

चकार कोपमतुलं रक्तबीजे निपातिते ।शुम्भासुरो निशुम्भश्च हतेष्वन्येषु चाहवे ॥ ५ ॥
हन्यमानं महासैन्यं विलोक्यामर्षमुद्वहन् ।अभ्यधावन्निशुम्भोऽथ मुख्ययासुरसेनया ॥६॥                                   तस्याग्रतस्तथा पृष्ठे पार्श्वयोश्च महासुराः । संदष्टौष्ठपुटाः क्रुद्धा हन्तुं देवीमुपाययुः ॥ ७ ॥
आजगाम महावीर्यः शुम्भोऽपि स्वबलैर्वृतः । निहन्तुं चण्डिकां कोपात्कृत्वा युद्धं तु मातृभिः ॥ ८ ॥
ततो युद्धमतीवासींद्देव्या शुम्भनिशुम्भयोः । शरवर्षमतीवोग्रं मेघयोरिव वर्षतोः ॥ ९ ॥
चिच्छेदास्ताञ्छरांस्ताभ्यां चण्डिका स्व’शरोत्करैः । ताडयामास चाङ्गेषु शस्त्रौघैरसुरेश्वरौ ॥१०॥
निशुम्भो निशितं खड्गं चर्म चादाय सुप्रभम् । अताडयन्मूर्ध्नि सिंहं देव्या वाहनमुत्तमम् ॥ ११ ॥
ताडिते वाहने देवी क्षुरप्रेणासिमुत्तमम् । निशुम्भस्याशु चिच्छेद चर्म चाप्यष्टचन्द्रकम् ॥ १२ ॥
छिन्ने चर्मणि खड्गे च शक्तिं चिक्षेप सोऽसुरः । तामप्यस्य द्विधा चक्रे चक्रेणाभिमुखागताम् ॥ १३ ॥
कोपाध्मातो निशुम्भोऽथ शूलं जग्राह दानवः । आयातं मुष्टिपातेन देवी तच्चाप्यचूर्णयत् ॥ १४ ॥
आविध्याथ गदां सोऽपि चिक्षेप चण्डिकां प्रति । सापि देव्या त्रिशूलेन भिन्ना भस्मत्वमागता ॥ १५ ॥
ततः परशुहस्तं तमायान्तं दैत्यपुङ्गवम् । आहत्य देवी बाणौघैरपातयत भूतले ॥ १६ ॥
तस्मिन्निपतिते भूमौ निशुम्भे भीमविक्रमे ।भ्रातर्यतीव संक्रुद्धः प्रययौ हन्तुमम्बिकाम् ॥ १७ ॥
स रथस्थस्तथात्युच्चैर्गृहीतपरमायुधैः । भुजैरष्टाभिरतुलैर्व्याप्याशेषं बभौ नभः ॥ १८ ॥
तमायान्तं समालोक्य देवी शङ्खमवादयत् । ज्याशब्दं चापि धनुषश्चकारातीव दुःसहम् ॥ १९ ॥                        पूरयामास ककुभो निजघण्टास्वनेन च । समस्तदैत्यसैन्यानां तेजोवधविधायिना ॥ २० ॥
ततः सिंहो महानादैस्त्याजितेभमहामदैः ।पूरयामास गगनं गां तथैव दिशो दश ॥ २१ ॥
ततः काली समुत्पत्य गगनं क्ष्मामताडयत् । कराभ्यां तन्निनादेन प्राक्स्वनास्ते तिरोहिताः ॥ २२ ॥

अट्टाट्टहासमशिवं शिवदूती चकार ह ।तैः शब्दैरसुरास्त्रेसुः शुम्भः कोपं परं ययौ ॥ २३ ॥
दुरात्मंस्तिष्ठ तिष्ठेति व्याजहाराम्बिका यदा । तदा जयेत्यभिहितं देवैराकाशसंस्थितैः ॥ २४ ॥                           शुम्भेनागत्य या शक्तिर्मुक्ता ज्वालातिभीषणा । आयान्ती वह्निकूटाभा सा निरस्ता महोल्कया ॥ २५ ॥
सिंहनादेन शुम्भस्य व्याप्तं लोकत्रयान्तरम् । निर्घातनिःस्वनो घोरो जितवानवनीपते ॥ २६ ॥
शुम्भमुक्ताञ्छरान्देवी शुम्भस्तत्प्रहिताञ्छरान् । चिच्छेद स्वशरैरुग्रैः शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २७ ॥
औततः सा चण्डिका क्रुद्धा शूलेनाभिजघान तम् । स तदाभिहतो भूमौ मूर्च्छितो निपपात ह ॥ २८ ॥
केचिद्विनेशुरसुराः केचिन्नष्टा महाहवात् ।भक्षिताश्चापरे कालीशिवदूतीमृगाधिपैः ॥ॐ ।। ४१ ।।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
निशुम्भवधो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ उवाच २, श्लोकाः ३९, एवम् ४१,
एवमादितः ५४३ ॥

हिंदी अनुवाद 

मैं अर्धनारीश्वरके श्रीविग्रहको निरन्तर शरण लेता हूँ। उसका वर्ण बन्धूकपुष्प और सुवर्णके समान रक्तपीतमिश्रित है। वह अपनी भुजाओंमें सुन्दर अक्षमाला, पाश, अङ्कुश और वरद-मुद्रा धारण करता है; अर्धचन्द्र उसका आभूषण है तथा वह तीन नेत्रोंसे सुशोभित है।

राजाने कहा- ॥ १ ॥ भगवन् ! आपने रक्तबीजके वधसे सम्बन्ध रखनेवाला देवी-चरित्रका यह अद्भुत माहात्म्य मुझे बतलाया ॥ २ ॥ अब रक्तबीजके मारे जानेपर अत्यन्त क्रोधमें भरे हुए शुम्भ और निशुम्भने जो कर्म किया, उसे मैं सुनना चाहता हूँ ॥ ३ ॥

ऋषि कहते हैं- ॥ ४ ॥ राजन् युद्धमे रक्तबीज तथा अन्य दैत्योंके मारे जानेपर शुम्भ और निशुम्भके क्रोधकी सीमा न रही ॥५॥ अपनी विशाल सेना इस प्रकार मारी जाती देख निशुम्भ अमर्षमें भरकर देवीकी ओर दौड़ा। उसके साथ असुरोकी प्रधान सेना थी ॥ ६ ॥ उसके आगे पीछे तथा पार्श्वभागमे बड़े-बड़े असुर थे, जो क्रोधसे ओठ चबाते हुए देवीको मार डालनेके लिये आये ॥ ७॥ महापराक्रमी शुम्भ भी अपनी सेना के साथ मातृगणोंसे युद्ध करके क्रोधवश चण्डिकाको मारनेके लिये आ पहुंचा ॥ ८ ॥ तब देवीके साथ शुम्भ और निशुम्भका घोर संग्राम छिड़ गया। वे दोनों दैत्य मेघोंकी भाँति बाणोकी भयंकर वृष्टि कर रहे थे ॥ ९ ॥ उन दोनोंके चलाये हुए बाणोंको चण्डिकाने अपने बाणोंके समूहसे तुरंत काट डाला और शस्त्रसमूहों की वर्षा करके उन दोनों दैत्यपतियोंके अङ्गोंमें भी चोट पहुँचायी ॥ १० ॥ निशुम्भने तीखी तलवार और चमकती हुई ढाल लेकर देवीके श्रेष्ठ वाहन सिंहके मस्तकपर प्रहार किया ॥ ११ ॥ अपने वाहनको चोट पहुँचनेपर देवीने क्षुरप्र नामक बाणसे निशुम्भकी श्रेष्ठ तलवार तुरंत ही काट डाली और उसकी ढालको भी, जिसमें आठ चाँद जड़े थे, खण्ड-खण्ड कर दिया ॥ १२ ॥ ढाल और तलवारके कट जानेपर उस असुरने शक्ति चलायी, किंतु सामने आनेपर देवीने चक्रसे उसके भी दो टुकड़े कर दिये ॥ १३ ॥ अब तो निशुम्भ क्रोधसे जल उठा और उस दानवने देवीको मारनेके लिये शूल उठाया; किंतु देवीने समीप आनेपर उसे भी मुक्केसे मारकर चूर्ण कर दिया ॥ १४ ॥ तब उसने गदा घुमाकर चण्डीके ऊपर चलायी, परंतु वह भी देवीके त्रिशूलसे कटकर भस्म हो गयी ॥ १५ ॥ तदनन्तर दैत्यराज निशुम्भको फरसा हाथमें लेकर आते देख देवाने बाणसमूहोंसे घायलकर धरतीपर सुला दिया ॥ १६ ॥ उस भयंकर पराक्रमी भाई निशुम्भके धराशायी हो जानेपर शुम्भको बड़ा क्रोध हुआ और अम्बिकाका वध करनेके लिये वह आगे बढ़ा ॥ १७ ॥ रथपर बैठे-बैठे ही उत्तम आयुधोंसे सुशोभित अपनी बड़ी-बड़ी आठ अनुपम भुजाओंसे समूचे आकाशको ढककर वह अद्भुत शोभा पाने लगा ॥ १८ ॥ उसे आते देख देवीने शङ्ख बजाया और धनुषकी प्रत्यञ्चाका भी अत्यन्त दुस्सह शब्द किया ॥ १९ ॥ साथ ही अपने घण्टेके शब्दसे, जो समस्त दैत्य-सैनिकोका तेज नष्ट करनेवाला था, सम्पूर्ण दिशाओंको व्याप्त कर दिया ॥ २० ॥ तदनन्तर सिंहने भी अपनी दहाड़से, जिसे सुनकर बड़े-बड़े गजराजोंका महान् मद दूर हो जाता था, आकाश, पृथ्वी और दसों दिशाओंको गुँजा दिया ॥ २१ ॥ फिर कालौने आकाशमें उछलकर अपने दोनों हाथोंसे पृथ्वीपर आघात किया । उससे ऐसा भयंकर शब्द हुआ, जिससे पहलेके सभी शब्द शान्त हो गये ॥ २२ ॥ तत्पश्चात् शिवदूतीने दैत्योंके लिये अमङ्गलजनक अट्टहास किया, इन शब्दोंको सुनकर समस्त असुर थर्रा उठे; किंतु शुम्भको बड़ा क्रोध हुआ ॥ २३ ॥ उस समय देवीने जब शुम्भको लक्ष्य करके कहा- ‘ओ दुरात्मन्! खड़ा रह, खड़ा रह, तभी आकाशमें खड़े हुए देवता बोल उठे- ‘जय हो, जय हो’ ॥ २४ ॥ शुम्भने वहाँ आकर ज्वालाओंसे युक्त अत्यन्त भयानक शक्ति चलायी । अग्निमय पर्वतके समान आती हुई उस शक्तिको देवीने बड़े भारी लूकेसे दूर हटा दिया ॥ २५ ॥ उस समय शुम्भके सिंहनादसे तीनों लोक गूँज उठे। राजन् ! उसकी प्रतिध्वनिसे वज्रपातके समान भयानक शब्द हुआ, जिसने अन्य सब शब्दोंको जीत लिया ॥ २६ ॥ शुम्भके चलाये हुए बाणोंके देवीने और देवीके चलाये हुए बाणोंके शुम्भने अपने भयंकर बाणोंद्वारा सैकड़ों और हजारों टुकड़े कर दिये ॥ २७॥ तब क्रोधमें भरी हुई चण्डिकाने शुम्भको शूलसे मारा । उसके आघातसे मूर्च्छित हो वह पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ २८ ॥ इतनेमें ही निशुम्भको चेतना हुई और उसने धनुष हाथमें लेकर बाणोंद्वारा देवी, काली तथा सिंहको घायल कर डाला ॥ २९ ॥ फिर उस दैत्यराजने दस हजार बाँहें बनाकर चक्रोंके प्रहारसे चण्डिकाको आच्छादित कर दिया ॥ ३० ॥ तब दुर्गम पीड़ाका नाश करनेवाली भगवती दुर्गाने कुपित होकर अपने बाणोंसे उन चक्रों तथा बाणोंको काट गिराया ॥ ३१ ॥ यह देख निशुम्भ दैत्यसेनाके साथ चण्डिकाका वध करनेके लिये हाथमें गदा ले बड़े वेगसे दौड़ा ॥ ३२ ॥ उसके आते ही चण्डीने तीखी धारवाली तलवारसे उसकी गदाको शीघ्र ही काट डाला । तब उसने शूल हाथमें ले लिया ॥ ३३ ॥ देवताओंको पीड़ा देनेवाले निशुम्भको शूल हाथमें लिये आते देख चण्डिकाने वेगसे चलाये हुए अपने शूलसे उसकी छाती छेद डाली ॥ ३४ ॥ शूलसे विदीर्ण हो जानेपर उसकी छातीसे एक दूसरा महाबली एवं महापराक्रमी पुरुष खड़ी रह, खड़ी रह’ कहता हुआ निकला ॥ ३५ ॥ उस निकलते हुए. पुरुषकी बात सुनकर देवी ठठाकर हँस पड़ीं और खड्गसे उन्होंने उसका मस्तक काट डाला । फिर तो वह पृथ्वीपर गिर पड़ा ॥ ३६॥ तदनन्तर सिंह अपनी दाढ़ोंसे असुरोंकी गर्दन कुचलकर खाने लगा, यह बड़ा भयंकर दृश्य था। उधर काली तथा शिवदूतीने भी अन्यान्य दैत्योंका भक्षण आरम्भ किया ॥ ३७॥ कौमारीकी शक्तिसे विदीर्ण होकर कितने ही महादैत्य नष्ट हो गये । ब्रह्माणीके मन्त्रपूत जलसे निस्तेज होकर कितने ही भाग खड़े हुए ॥ ३८॥ कितने ही दैत्य माहेश्वरीके त्रिशूलसे छिन्न-भिन्न हो धराशायी हो गये। वाराहीके थूथुनके आघातसे कितनोंका पृथ्वीपर कचूमर निकल गया ॥ ३९ ॥ वैष्णवीने भी अपने चक्रसे दानवोंके टुकड़े-टुकड़े कर डाले । एन्द्रीके हाथसे छूटे हुए वज्रसे भी कितने ही प्राणोंसे हाथ धो बैठे ॥ ४० ॥ कुछ असुर नष्ट हो गये, कुछ उस महायुद्धसे भाग गये तथा कितने ही काली, शिवदूती तथा सिंहके ग्रास बन गये ॥ ४१ ॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत.
देवीमाहात्म्यमें ‘निशुम्भ-वध’ नामक नवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ ९ ॥

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