भारत के इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम के गौरव….

01 महाराणा प्रताप सिंह सिसोदिया  9 मई 1540 – 19 जनवरी 1597

उदयपुर, मेवाड में सिसोदिया राजपूत राजवंश के राजा थे। उनका नाम इतिहास में वीरता, शौर्य, त्याग, पराक्रम और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने मुगल सम्राट अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और कई सालों तक संघर्ष किया। महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलों को कईं बार युद्ध में भी हराया।

उनका जन्म वर्तमान राजस्थान के कुम्भलगढ़ में महाराणा उदयसिंह एवं माता रानी जयवन्ताबाई के घर हुआ था। लेखक जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुम्भलगढ में हुआ था। इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार राजपूत समाज की परंपरा व महाराणा प्रताप की जन्म कुण्डली व कालगणना के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म पाली के राजमहलों में हुआ।

महाराणा प्रताप के जन्मस्थान के प्रश्न पर दो धारणाएँ है। पहली महाराणा प्रताप का जन्म कुम्भलगढ़ दुर्ग में हुआ था क्योंकि महाराणा उदयसिंह एवम जयवंताबाई का विवाह कुंभलगढ़ महल में हुआ। दूसरी धारणा यह है कि उनका जन्म पाली के राजमहलों में हुआ। महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंता बाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ बिता , भीलों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे , भील अपने पुत्र को किका कहकर पुकारते है इसलिए भील महाराणा को कीका नाम से पुकारते थे।

लेखक विजय नाहर की पुस्तक हिन्दुवा सूर्य महाराणा प्रताप के अनुसार जब प्रताप का जन्म हुआ था उस समय उदयसिंह युद्व और असुरक्षा से घिरे हुए थे। कुंभलगढ़ किसी तरह से सुरक्षित नही था। जोधपुर के शक्तिशाली राठौड़ी राजा राजा मालदेव उन दिनों उत्तर भारत मे सबसे शक्तिसम्पन्न थे। एवं जयवंता बाई के पिता एवम पाली के शाषक सोनगरा अखेराज मालदेव का एक विश्वसनीय सामन्त एवं सेनानायक था।

इस कारण पाली और मारवाड़ हर तरह से सुरक्षित था और रणबंका राठौड़ो की कमध्व्ज सेना के सामने अकबर की शक्ति बहुत कम थी, अतः जयवंता बाई को पाली भेजा गया। वि. सं. ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया सं 1597 को प्रताप का जन्म पाली मारवाड़ में हुआ। प्रताप के जन्म का शुभ समाचार मिलते ही उदयसिंह की सेना ने प्रयाण प्रारम्भ कर दिया और मावली युद्ध मे बनवीर के विरूद्ध विजय श्री प्राप्त कर चित्तौड़ के सिंहासन पर अपना अधिकार कर लिया। भारतीय प्रशासनिक सेवा से सेवानिवत्त अधिकारी देवेंद्र सिंह शक्तावत की पुस्तक महाराणा प्रताप के प्रमुख सहयोगी के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म स्थान महाराव के गढ़ के अवशेष जूनि कचहरी पाली में विद्यमान है। यहां सोनागरों की कुलदेवी नागनाची का मंदिर आज भी सुरक्षित है। पुस्तक के अनुसार पुरानी परम्पराओं के अनुसार लड़की का पहला पुत्र अपने पीहर में होता है।

इतिहासकार अर्जुन सिंह शेखावत के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्मपत्रिका पुरानी दिनमान पद्धति से अर्धरात्रि 12/17 से 12/57 के मध्य जन्मसमय से बनी हुई है। 5/51 पलमा पर बनी सूर्योदय 0/0 पर स्पष्ट सूर्य का मालूम होना जरूरी है इससे जन्मकाली इष्ट आ जाती है। यह कुंडली चित्तौड़ या मेवाड़ के किसी स्थान में हुई होती तो प्रातः स्पष्ट सूर्य का राशि अंश कला विक्ला अलग होती। पण्डित द्वारा स्थान कालगणना पुरानी पद्धति से बनी प्रातः सूर्योदय राशि कला विकला पाली के समान है।

डॉ हुकमसिंह भाटी की पुस्तक सोनगरा सांचोरा चौहानों का इतिहास 1987 एवं इतिहासकार मुहता नैणसी की पुस्तक ख्यात मारवाड़ रा परगना री विगत में भी स्पष्ट है “पाली के सुविख्यात ठाकुर अखेराज सोनगरा की कन्या जैवन्ताबाई ने वि. सं. 1597 जेष्ठ सुदी 3 रविवार को सूर्योदय से 47 घड़ी 13 पल गए एक ऐसे देदीप्यमान बालक को जन्म दिया। धन्य है पाली की यह धरा जिसने प्रताप जैसे रत्न को जन्म दिया।”

मेवाड़

1576 के हल्दीघाटी युद्ध में 500 भील लोगो को साथ लेकर राणा प्रताप ने आमेर सरदार राजा मानसिंह के 80,000 की सेना का सामना किया। हल्दीघाटी युद्ध में भील सरदार राणा पूंजा जी का योगदान सराहनीय रहा। शत्रु सेना से घिर चुके महाराणा प्रताप को झाला मानसिंह ने आपने प्राण दे कर बचाया और महाराणा को युद्ध भूमि छोड़ने के लिए बोला। शक्ति सिंह ने आपना अश्व दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। हल्दीघाटी के युद्ध में और देवर और चप्पली की लड़ाई में प्रताप को सबसे बड़ा राजपूत और उनकी बहादुरी के लिए जाना जाता था। मुगलों के सफल प्रतिरोध के बाद, उन्हें “मेवाड़ी राणा” माना गया। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गए। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिन्ताजनक होती चली गई। 24,000 सैनिकों के 12 साल तक गुजारे लायक अनुदान देकर भामाशाह भी अमर हुआ।

02 . रानी दुर्गावती (5 अक्टूबर 1524 – 24 जून 1564)

भारत की एक प्रसिद्ध वीरांगना थीं,जिसने मध्य प्रदेश के गोंडवाना क्षेत्र में शासन किया।उनका जन्म 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर के राजा पृथ्वी सिंह चंदेल के यहाँ हुआ उनका राज्य गढ़मंडला था,जिसका केंद्र जबलपुर था। उन्होने अपने विवाह के चार वर्ष बाद अपने पति गौड़ राजा दलपत शाह की असमय मृत्यु के बाद अपने पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बैठाकर उसके संरक्षक के रूप में स्वयं शासन करना प्रारंभ किया। इनके शासन में राज्य की बहुत उन्नति हुई। दुर्गावती को तीर तथा बंदूक चलाने का अच्छा अभ्यास था। चीते के शिकार में इनकी विशेष रुचि थी। उनके राज्य का नाम गोंडवाना था जिसका केन्द्र जबलपुर था। वे इलाहाबाद के मुगल शासक आसफ़ खान से लोहा लेने के लिये प्रसिद्ध हैं।

रानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिवर्मन/कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। चंदेल राजपूत वंश की शाखा का ही एक भाग है ।बांदा जिले के कालिंजर किले में 1524 ईसवी की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर गोण्डवाना साम्राज्य के राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपत शाह मडावी से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था।

दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाईं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।

रानी दुर्गावती मडावी का यह सुखी और सम्पन्न राज्य पर मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया, पर हर बार वह पराजित हुआ। मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक रिश्तेदार आसफ खां के नेतृत्व में गोण्डवाना साम्राज्य पर हमला कर दिया। एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ, पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये लेकिन रानी की भी अपार क्षति हुई थी।

अगले दिन 24 जून 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था, अतः रानी ने अपने पुत्र नारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा, रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया, रानी ने इसे भी निकाला पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।

रानी ने अंत समय निकट जानकर वजीर आधारसिंह से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने पेट में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। महारानी दुर्गावती चंदेल ने अकबर के सेनापति आसफ़ खान से लड़कर अपनी जान गंवाने से पहले पंद्रह वर्षों तक शासन किया था।

जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। जबलपुर में स्थित रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय भी इन्ही रानी के नाम पर बनी हुई है।

03. छत्रपति शिवाजी भोसले 

भारत के एक महान राजा एवं रणनीतिकार थे जिन्होंने 1674 ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने मुगल साम्राज्य के शासक औरंगज़ेब से संघर्ष किया। सन् 1674 में रायगढ़ में उनका राज्याभिषेक हुआ और वह “छत्रपति” बने। छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों कि सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्या में अनेक नवाचार किए तथा छापामार युद्ध guerilla warfare की नयी शैली शिवसूत्र विकसित की। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया। वे भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नायक के रूप में स्मरण किए जाने लगे।

शिवाजी का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। उनके पिता शाहजी भोंसले एक शक्तिशाली सामंत थे। उनकी माता जीजाबाई जाधव कुल में उत्पन्न असाधारण प्रतिभाशाली महिला थी। शिवाजी के बड़े भाई का नाम सम्भाजी था जो अधिकतर समय अपने पिता शाहजी भोसलें के साथ ही रहते थे। शाहजी राजे कि दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते थीं। उनसे एक पुत्र हुआ जिसका नाम एकोजी राजे था।

शिवाजी का विवाह सन् 14 मई 1640 में सइबाई निंबाळकर के साथ लाल महल, पुणे में हुआ था। उन्होंने कुल 8 विवाह किए थे। वैवाहिक राजनीति के जरिए उन्होंने सभी मराठा सरदारों को एक छत्र के नीचे लाने में सफलता प्राप्त की।

शिवाजी की पत्नियाँ: सईबाई निम्बालकर – बच्चे: संभाजी, सखुबाई राणूबाई (अम्बिकाबाई); सोयराबाई मोहिते – (बच्चे- दीपबै, राजाराम); पुतळाबाई पालकर (1653-1680), गुणवन्ताबाई इंगले; सगुणाबाई शिर्के, काशीबाई जाधव, लक्ष्मीबाई विचारे, सकवारबाई गायकवाड़ – (कमलाबाई)

शिवाजी महाराज के चरित्र पर माता-पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। उनका बचपन उनकी माता के मार्गदर्शन में बीता। उन्होंने राजनीति एवं युद्ध की शिक्षा ली थी। वे उस युग के वातावरण और घटनाओं को भली प्रकार समझने लगे थे। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ प्रज्ज्वलित हो गयी थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों का संगठन किया।

शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाना जाता है। यद्यपि उनको अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी, पर वे भारतीय इतिहास और राजनीति से सुपरिचित थे। उन्होंने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना कई बार उचित समझा था। अपने समकालीन मुगलों की तरह वह भी निरंकुश शासक थे, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी। पर उनके प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था। अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का खयाल रखाता था। सचिव दफ़तरी काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे। सुमन्त विदेश मंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था।

बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रीयता की भावना के विकास के लिए शिवाजी जन्मोत्सव की शुरुआत की।

03. छत्रपती सम्भाजी राजे .

छत्रपति सम्भाजी राजे भोसले या शम्भुराजे; 1657-1689 मराठा सम्राट और छत्रपती शिवाजी महाराज के उत्तराधिकारी थे। उस समय मराठों के सबसे प्रबल शत्रु मुगल बादशाह औरंगज़ेब बीजापुर और गोलकुण्डा का शासन हिन्दुस्तान से समाप्त करने में उनकी प्रमुख भूमिका रही। सम्भाजी राजे अपनी शौर्यता के लिये प्रसिद्ध थे। बुधभूषण यह छत्रपती सम्भाजीराजे महाराज द्वारा लिखा गया ग्रन्थ है, जिसे उन्होंने संस्कृत में महज 14 वर्ष की आयु में लिखा था।

सम्भाजी राजे ने अपने कम समय के शासन काल में 210 युद्ध किये और इसमे एक प्रमुख बात ये थी कि उनकी सेना एक भी युद्ध में पराभूत नहीं हुई। उनके पराक्रम की वजह से परेशान हो कर औरंगज़ेब ने कसम खायी थी के जब तक छत्रपती सम्भाजीराजे पकड़े नहीं जायेंगे, वो अपना किमोंश सर पर नहीं चढ़ाएगा। 11 मार्च 1689 को औरंगजेब ने छत्रपती सम्भाजी महाराज की बड़ी क्रूरता के साथ हत्या कर दी।

छत्रपति संभाजीराजे नौ वर्ष की अवस्था में छत्रपती शिवाजी महाराज की प्रसिद्ध आगरा यात्रा में वे साथ गये थे। औरंगज़ेब के बन्दीगृह से निकल, पुण्यश्लोक छत्रपती महाराज के महाराष्ट्र वापस लौटने पर, मुगलों से समझौते के फलस्वरूप, सम्भाजीराजे मुगल सम्राट् द्वारा राजा के पद तथा पंचहजारी मंसब से विभूषित हुए।

औरंगाबाद की मुगल छावनी में, मराठा सेना के साथ, उसकी नियुक्ति हुई 1668। युगप्रवर्तक राजा के पुत्र रहते उनको यह नौकरी मान्य नहीं थी। किन्तु हिन्दवी स्वराज्य स्थापना की शुरू के दिन होने के कारण और पिता पुण्यश्लोक छत्रपती श्री शिवाजी महाराज के आदेश के पालन हेतु केवल 9 साल के उम्र में ही इतना जिम्मेदारी का लेकिन अपमान जनक कार्य उन्होंने धीरज से किया।

उन्होंने अपने उम्र के केवल 14 साल में उन्होंने बुधभूषण, नखशिख, नायिकाभेद तथा सातशातक यह तीन संस्कृत ग्रन्थ लिखे थे। शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक और हिन्दु स्वराज्य के बाद स्थापित अष्टप्रधान मन्त्रिमण्डल में से कुछ लोगों की राजकारण के वजह से यह संवेदनशील युवराज काफी क्षतिग्रस्त हुए थे।

पराक्रमी होने के बावजूद उन्हें अनेक लड़ाईयोंसे दूर रखा गया। स्वभावत: संवेदनशील रहनेवाले संभाजी राजे उनके पिता छत्रपति शिवाजी महाराज जी के आज्ञा अनुसार मुग़लों को जा मिले ताकी वे उन्हे गुमराह कर सके।क्यूँ कि उसी समय मराठा सेना दक्षिण दिशा के दिग्विजय से लौटी थी और उन्हे फिर से जोश में आने के लिये समय चाहिये था। इसलीए मुगलो को गुमराह करने के लिए शिवाजी महाराज जी ने हि उन्हे भेज था वह एक राजतन्त्र था।

बाद में छत्रपती श्री शिवाजी महाराज जी ने हि उन्हे मुग़लों से मुक्त किया। मगर इस प्रयास में वो पत्नी रानी दुर्गाबाई और बहेन गोदावरी उनको अपने साथ लेन में असफल रहे।

छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु (3 अप्रैल 1680) के बाद कुछ लोगों ने छत्रपती संभाजी महाराज के अनुज राजाराम को सिंहासनासीन करने का प्रयत्न किया। किन्तु सेनापति मोहिते जो कि वह राजाराम के सगे मामा होते हुए भी उन्होने यह कारस्थान नाकामयाब हुआ और 16 जनवरी 1681 को सम्भाजी महाराज का विधिवत्‌ राज्याभिषेक हुआ। इसी वर्ष औरंगजेब के विद्रोही पुत्र अकबर ने दक्षिण भाग कर धर्मवीर छात्रपती श्री सम्भाजी महाराज का आश्रय ग्रहण किया। अकेले मुग़ल, पोर्तुगीज, अंग्रेज़ तथा अन्य शत्रुओं के साथ लड़ने के साथ ही उन्हें अन्तर्गत शत्रुओंसे भी लड़ना पड़ा।

राजाराम को छत्रपति बनाने में असफल रहने वाले राजाराम के कुछ समर्थकों ने औरंगजेब के पुत्र अकबर से राज्य पर आक्रमण कर के उसे मुग़ल साम्राज्य का अंकित बनाने की गुजारिश करने वाला पत्र लिखा। किन्तु छत्रपति सम्भाजी महाराज के पराक्रम से परिचित और उनका आश्रित होने के कारण अकबर ने वह पत्र छत्रपति सम्भाजी को भेज दिया। इस राजद्रोह से क्रोधित संभाजी महाराज ने अपने सामंतो को मृत्युदण्ड दिया। तथापि उन में से एक बालाजी आवजी नामक सामन्त की समाधी भी उन्होंने बनायीं जिनके क्षमा का पत्र श्री छत्रपति सम्भाजी को उन सामन्त के मृत्यु पश्चात मिला।

1683 में उसने पुर्तगालियों को पराजित किया। इसी समय वह किसी राजकीय कारण से संगमेश्वर में रहे थे। जिस दिन वो रायगढ़ के लिए प्रस्थान करने वाले थे उसी दिन कुछ ग्रामस्थो ने अपनी समस्या उन्हें अर्जित करनी चाही। जिसके चलते छत्रपति सम्भाजी महाराज ने अपने साथ केवल 200 सैनिक रख के बाकि सेना को रायगढ़ भेज दिया। उसी वक्त उनके एक फितूर गणोजी शिर्के जो कि उनकी पत्नी येसूबाई के भाई थे जिनको उन्होंने वतनदारी देने से इन्कार किया था, मुग़ल सरदार मुकरब खान के साथ गुप्त रास्ते से 5,000 के फ़ौज के साथ वहां पहुंचे। यह वह रास्ता था जो सिर्फ मराठों को पता था। इसलिए सम्भाजी महाराज को कभी नहीं लगा था के शत्रु इस और से आ सकेगा। उन्होंने लड़ने का प्रयास किया किन्तु इतनी बड़ी फौज के सामने 200 सैनिकों का प्रतिकार  कर न पाया और अपने मित्र तथा एकमात्र सलाहकार कविकलश के साथ वह बन्दी बना लिए गए ।

औरंगजेब ने दोनों की जुबान कटवा दी, आँखें निकाल दी। 11 मार्च 1689 हिन्दू नववर्ष दिन को दोनों के शरीर के टुकडे कर के हत्या कर दी। कहते हैं कि हत्या पूर्व औरंगज़ेब ने छत्रपति सम्भाजी महाराज से कहा के मेरे 4 पुत्रों में से एक भी तुम्हारे जैसा होता तो सारा हिन्दुस्थान कब का मुग़ल सल्तनत में समाया होता। जब छत्रपति सम्भाजी महाराज के टुकडे तुलापुर की नदी में फेंकें गए तो उस किनारे रहने वाले लोगों ने वो इकठ्ठा कर के सिला के जोड़ दिया जिस के उपरान्त उनका विधिपूर्वक अन्त्यसंस्कार किया।

छत्रपति सम्भाजी महाराज का ये बलिदान और उनको पीडा देने का काम मुगलों ने औरंगज़ेब के कहने पर एक महिने तक चालू रखा और उनको महिनाभर तड़पाते रहे और आखिर में उनके शरीर के पैरों से लेकर गर्दन तक तुकडे तुकडे करके मार डाला। कहते हैं, इससे पहले औरंगज़ेब ने उन्हें अपना हिन्दुधर्म त्याग कर मुगलों का धर्म अपनानें की माँग रखी थी लेकिन युगप्रवर्तक राजा छत्रपती शिवाजीराजें का बेटा और अपने धर्मपर पुरी निष्ठा और श्रध्दा रखनें वाले सम्भाजीराजें ने ये माँग फटकार दी और इस्लाम का स्वीकार कतई न करनें का निश्चय औरंगज़ेब को बता दिया था |

04. रानी लक्ष्मीबाई  जन्म: 19 नवम्बर 1828– मृत्यु: 18 जून 1858

मराठा शासित झाँसी राज्य की रानी और 1857 की राज्यक्रान्ति की द्वितीय शहीद वीरांगना (प्रथम शहीद वीरांगना रानी अवन्ति बाई लोधी 20 मार्च 1858 हैं) थीं। उन्होंने सिर्फ 29 वर्ष की उम्र में अंग्रेज साम्राज्य की सेना से युद्ध किया और रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुईं। बताया जाता है कि सिर पर तलवार के वार से शहीद हुई थी लक्ष्मीबाई।

लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1828 को हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। उनकी माँ का नाम भागीरथीबाई और पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान और धर्मनिष्ठ स्वभाव की थी तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। क्योंकि घर में मनु की देखभाल के लिये कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ पेशवा बाजीराव द्वितीय के दरबार में ले जाने लगे। जहाँ चंचल और सुन्दर मनु को सब लोग उसे प्यार से “छबीली” कहकर बुलाने लगे। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्र की शिक्षा भी ली।

सन् 1842 में उनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव नेवालकर के साथ हुआ और वे झाँसी की रानी बनीं। विवाह के बाद उनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। सितंबर 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। परन्तु चार महीने की उम्र में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत अधिक बिगड़ जाने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी। पुत्र गोद लेने के बाद 21 नवम्बर 1853 को राजा गंगाधर राव की मृत्यु हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

ब्रितानी राज ने अपनी राज्य हड़प नीति के तहत बालक दामोदर राव के ख़िलाफ़ अदालत में मुक़दमा दायर कर दिया। हालांकि मुक़दमे में बहुत बहस हुई, परन्तु इसे ख़ारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का ख़ज़ाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के कर्ज़ को रानी के सालाना ख़र्च में से काटने का फ़रमान जारी कर दिया। इसके परिणाम स्वरूप रानी को झाँसी का क़िला छोड़कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होनें हर हाल में झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय किया।

झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।

1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलतापूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली।

तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक क़िले पर क़ब्ज़ा कर लिया। बाजीराव प्रथम के वंशज अली बहादुर द्वितीय ने भी रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया और रानी लक्ष्मीबाई ने उन्हें राखी भेजी थी इसलिए वह भी इस युद्ध में उनके साथ शामिल हुए। 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रितानी सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु हो गई। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रितानी जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक ख़तरनाक भी थी।

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