गणेश चतुर्थी मूर्त से अमूर्त की ओर – गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी

अध्यात्म.

गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर जी.

गणेश चतुर्थी तब मनाया जाता है, जब भगवान गणेश पृथ्वी पर अपने सभी भक्तों के लिए प्रकट हुए. गणेश गजके सिर वाले, शिव पार्वती के पुत्र, जिनको बुद्धि, समृद्धि और सौभाग्य प्रदान करने वाले सर्वोच्च देवता के रूप में पूजा जाता है. हाँलाकि, यह उत्सव उनके जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है,

परन्तु इस त्यौहार के पीछे का प्रतीक बहुत गूढ़ है:-

गणेश जी, के सारतत्त्व आदि शंकराचार्य ने बहुत ही सुन्दर रूप में लाया है, हाँलाकि गणेश जी की उपासना गजवंदन के रूप में भी जाती है. लेकिन उनका यह रूप उनके परब्रह्म रूप को उभारता है. गणेश जी का वर्णन “अजम निर्विकल्पम निराकर्मेकम” के रूप में किया जाता है – जिसका मतलब गणेश जी अजन्मे हैं. वे अजम हैं, निराकार हैं व निर्विकप्ल हैं. गणेश उस चेतना के प्रतीक हैं, जो सब जगह व्याप्त हैं. गणेश उस उर्जा के स्त्रोत हैं, जो इस ब्रम्हांड का कारण है, जिसके सबकुछ उत्पन्न हुआ है और सबकुछ समा जाएगा. गणेश कहीं बाहर नहीं है बल्कि हमारे जीवन का केन्द्र है. परन्तु यह बहुत सूक्षम ज्ञान है. हर कोई निराकार का अनुभव बिना आकार के नहीं कर सकता है. हमारे प्राचीन ऋषि, मुनि यह जानते थे, इसीलिए उन्होंने यहाँ  रूप बनाया जो सभी स्तर के लोगों के लिए लाभदायक हो और सभी इसे समझ सकें. वे जो इस निराकार का अनुभव नहीं कर सकते, वे साकार की अभीव्यक्ति का कुछ अनुभव निर्वाह करने के बाद निराकार ब्राह्मण के रूप तक पहुँच जाते हैं. इसलिए वास्तविकता में गणेश निराकार हैं, फिर भी आदि शंकराचार्य ने उनके साकार रूप को पूजा और यह साकार रूप सन्देश देता है की गणेश जी निराकार है. इस प्रकार यहाँ साकार रूप एक प्रारंभ बिंदु के रूप में पूर्ति करते हुए धीरे धीरे निराकार चेतना को अभिव्यक्त रूप की पूजा कर, पहुँचने की अनूठी कला है. यहाँ तक की गणेश स्त्रोतम में गणेश जी की प्रशंसा में गाया जाता है, वह भी यही बताता है. हम गणेश जी से प्रार्थना करते हैं कि वे कुछ समय के लिए हमारी चेतना से निकल कर गणेश मूर्ति में विराजे, जिससे हम उनके साथ खेल सकें.

पूजा के समापन के बाद हमारा उनसे अपनी चेतना में वापस आने के लिए प्रार्थना करते हैं, जब वे मूर्ति में विराजित होते हैं तब हमारा पूजा के द्वारा भगवान को वही अर्पित करते हैं, जो भगवान ने हमें दिया है. कुछ दिनों की पूजा के बाद मूर्ति विसर्जन हमको यहाँ प्रबलता से समझना पढ़ेगा, की भगवान की मूर्ति का विसर्जन नहीं है बल्कि हमारे अंदर छिपे राग – द्वेष का विसर्जन करना है. उस सर्वव्यापी को साकार में अनुभव करना और उससे अननद प्राप्त करना ही गणेश चतुर्थी का सार है. एक तरह से ऐसे उत्सव का आयोजन करना जोश और भक्ति की लहर का नेतृत्व करना है.गणेश हमारे भीतर के सभी अच्छे गुणों के देवता हैं. इसीलिए जब हम उनकी पूजा करते हैं तब हमारे अंदर के सभी अच्छे गुण खील जाते हैं. वो बुद्धि और ज्ञान के भी देवता हैं. जब हम अपनी आत्मा के बारे सजग होते हैं तब हमारे अंदर ज्ञान का उदय होता है. जहाँ उल्लास है वहां अज्ञान पाया जाता है, वहां बुद्धि, चेतना और जीवन के विकास में कमी है. इसीलिए हमें अपनी चेतना को जगाना है और इस चेतना में व्याप्त कोई और नहीं गणेश जी ही हैं. तभी हर पूजा से पहले गणेश जी की पूजा होती है. इसीलिए गणेश जी की मूर्ति अपने अंदर ही स्थापित कर उनका स्मरण और ध्यान करने पर आपको आनंद और प्रेम के साथ पूजा करनी चाहिये. यही गनेस्ग चतुर्थी का सार है. अपने अंदर व्याप्त गणेश तत्त्व को जगाना है.

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