कर्म वर्तमान में होता है लेकिन उसका फल भविष्य में होता है

गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी

श्री संकर्षण शरण जी (गुरुजी)
आज गुरु जी गीता के माध्यम से कर्म के विषय मे बताएं की प्रत्येक मनुष्य को अपना उचित कार्य करना ही पड़ता है लेकिन जिस प्रकार मनुष्य कर्म करता है भविष्य में उसे उसी प्रकार फल मिलता है इसलिए प्रत्येक कर्म को चैतन्य होकर करना चाहिए, होश पूर्वक करना चाहिए , गुरु जी ने यह बताए कि अर्जुन भगवान कृष्ण से ज्ञान और कर्म की बातें सुनकर भ्रमित हो जाते हैं यह कहते हैं कि हे जनार्दन ! हे पुरषोत्तम! जब ज्ञान ही सब कुछ है तो फिर आप कर्म करने के लिए क्यों कह रहे हैं? जब ज्ञान का मार्ग ही श्रेष्ठ है तो कर्म में मुझे क्यों लगा रहे हो ? हम सब भी यही करते हैं प्रवचन सुनते तो है गुरुजी से , लेकिन कर्म करना नहीं चाहते कोई ना कोई बहाना सामने रख देते हैं , तो अर्जुन के माध्यम से गुरु जी ने बताए कि प्रत्येक मनुष्य को अपना कर्म करना पड़ता है यदि हम कर्म नहीं करते हैं तो ना करने का भी कर्म होता है क्योंकि हम प्रकृति के तीनों गुणों की रजोगुण, सतोगुण, और तमोगुण के आधीन हैं हम अभी उसे पार नहीं हुए हैं जब हम इसके अधीन है तो हमें कर्म करना पड़ता है, जब कर्म करते तभी उसका फल मिलता जैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल मिलता है आगे गुरु जी बताते हैं किअर्जुन कृष्ण से कहते हैं कि हे पुरुषोत्तम ! आप एक मार्ग मुझे बताइए आप मुझे भ्रमित कर दिए हो पहले मैं ठीक था अब आपकी बातें सुनकर भ्रमित हो गया हूं तो कोई एक मार्ग बताइए कि मुझे करना क्या है? कौन – सा मार्ग मेरे लिए श्रेष्ठ है ? हम लोग भी यही करते हैं जबकि गुरुजी इशारा करते हैं , भगवान इशारा करते है,डायरेक्ट नही बोलते, उसी इशारे को हम को समझना होता है लेकिन हमारी मूर्खता उसे नहीं समझ पाती और हम सब यही काम करते जो अर्जुन ने किया । भगवान ने फिर अर्जुन के ऊपर डाल दिया भगवान कहते हैं कि मेरे पास दो मार्ग है, सांख्य योग, ज्ञानियों और दूसरा कर्मयोग दोनों मार्ग से जाया जा सकता है कौन सा मार्ग बताएं ? योगी के द्वारा या कर्म के द्वारा । क्योंकि मनुष्य तो कर्म आरंभ किए बिना योग निष्ठा को प्राप्त करता है और ना ही कर्म को त्याग कर शांति को प्राप्त करता है , इसके लिए गुरु जी ने तुलसीदास जी का उदाहरण दिए कि तुलसीदास जी भगवान राम से निर्भरा भक्ति मांगे लेकिन यह कह कर की हनुमान जी को माता सीता देने वाली है अब आप भी मुझे दे दीजिए, यश को प्राप्त कर लीजिए उसके बाद तुलसीदास जी अपने सारे विकार भी दूर करवाते है भगवान से अपने अंदर के , उसके बाद स्वयं को दीन मानते हैं और भगवान को दीनानाथ। तो मनुष्य बिना कर्म किए ही सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहता है यह गुरु जी ने बताए , जब कि हमको कर्म करना चाहिए प्रत्येक मनुष्य को अपना उचित कर्म करना जरूरी होता है अर्जुन को भी भगवान उदाहरण देकर के कर्म करने की बातें ही कह रहे है कि तुम क्षत्रिय हो कर्म करना जरूरी है इसमें कोई संदेह नहीं कि मनुष्य कर्म किए ही सब कुछ प्राप्त कर लेना चाहते हैं लेकिन प्रत्येक मनुष्य कर्म करने के लिए बाध्य है ।
गुरु जी आगे यह बताते हैं कि जो मनुष्य बाहर के जो कर्म जैसे– आंख,कान का अच्छा कर्म करता है और अंदर कुछ और होते हैं उसको मिथ्या चारी कहा जाता है व्यभिचारी कहते हैं और मनुष्य यदि अंदर से अच्छा है अंदर उसके अंतरात्मा गलत करने से रोकता है लेकिन बाहर कार्य कर देते हैं वह भी व्यभिचारी है । तो हमें अंदर बाहर दोनों एक समान होना चाहिए व्यभिचारी नहीं , अन्यथा वह भी पाप हो जाता है । और जब हम नहीं कर सकते तो स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए भगवान के ऊपर। जैसे – हनुमान जी ने किए इसके लिए गुरु जी ने जब हनुमान जी लंका जाते हैं रावण के पास माता सीता के सामने हनुमान जी होते हैं तो रावण तलवार निकालते हैं जैसे ही हनुमान जी उतरने को सोच रहे थे कि मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ दिया, उसी तरह सभा में जब रावण हनुमान जी को मारने की बात कहते हैं विभीषण रोक देते हैं जब हनुमान जी को लंका जलाना होता है गांव से तेल मिट्टी की व्यवस्था हो जाती है , तो यह बताएं कि हम कार्य करना जब शुरू करते परमात्मा हमारी सहायता करते लेकिन कर्म हम ही को करना पड़ेगा जब हम नहीं करते हैं तो भगवान हमारी सहायता कैसे करेंगे ? हमें अंदर बाहर दोनों एक समान और परमात्मा पर आश्रित हो जाना चाहिए सब कुछ छोड़ना चाहिए मदद करते हैं और करना चाहिए तब भगवान और भगवान हमारी मदद करते हैं, गुरुजी ने बताया कि भगवान तो अपने धर्म का कार्य करवा ही लेते हैं हम सिर्फ माध्यम होते हैं और प्रत्येक मनुष्य के जीवन में यह पल आता है तो उसे एक अच्छे गुरु मिलते हैं उसका साक्षात्कार करते हैं लेकिन यह मनुष्य के ऊपर डिपेंड करता है वह उसका कितना लाभ उठा पाते हैं और अब स्वयं को कर्ता न मान करके हमे अपना उचित कर्म करते रहना चाहिए ।

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