कविता
(अफगानिस्तान के वर्तमान हालात पर एक व्याकुल कविता)
जूझ रही ‘आदमखोरों’ से, हर औरत अफगान की..
जूझ रही ‘आदमखोरों’ से, हर औरत अफगान की।
नादानों को कहाँ सूझती हैं बातें सम्मान की।।
नाम भले मज़हब का लेते, पर मज़हब से दूर हुए।
हाथों में हथियार थाम कर, नामरदे सब क्रूर हुए।
छीन लिया महिलाओं का हक, कैद किया अधिकारों को।
शर्म नहीं आती है थोड़ी, मजहब के हत्यारों को।
विश्व देखता दुःखद कहानी, अब तो तालिबान की।
जूझ रही आदमखोरों से, हर औरत अफगान की।।
बुर्के में सौंदर्य कैद है और सृजन की हर उम्मीद।
बंदीगृह में चांद छिपा है, खत्म उजालों की है ईद।
हँसना भी है जुर्म जहाँ पर, सर भी नहीं उठा सकती ।
कैसे औरत इस दुनिया को, सुंदर कहो बना सकती।
अल्ला जाने कब तक आखिर, लहर चले अज्ञान की।
जूझ रही आदमखोरों से, हर औरत अफगान की।।
खून- खराबा, लूटपाट ही, शैतानों का धरम बड़ा,
जिनकी जानें बची अगर तो, है अल्ला का करम बड़ा।
पढ़ ना सकतीं, बोल न पातीं, ऐसा भारी दमन हुआ।
सुंदर था जो चमन कभी क्यूँ, उसका सहसा पतन हुआ।
विश्व मौन हो देख रहा अब, हरकत हर शैतान की।
जूझ रही आदमखोरों से, हर औरत अफगान की।।
कहाँ गया स्वर्णिम अतीत जब, था हर नारी का सम्मान।
पढ़ी-लिखी अफगानी बहनें, बनी मुल्क की तब पहचान।
पर अब वो इतिहास हो गया, लाद दिया शरिया कानून।
जिसने थोड़ी गलती कर दी, उसका हुआ समझ लो खून।
कैसी हालत हो गई है अब, इक सुंदर स्थान की।
जूझ रही आदमखोरों से, हर औरत अफगान की।।
पत्थर खाती, फिर भी लड़ती, चली गई कितनों की जान।
पर अपने अधिकारों के हित,डटी है नारी सर को तान ।
मर जाएँगे भले एक दिन, जुल्मी से टकराएँगे।
मरना तो है सबको इक दिन, हम भी बस मर जाएँगे।
तालिबान कल शायद समझे, बात कभी उत्थान की।
जूझ रही आदमखोरों से,हर औरत अफगान की।।
उठे-उठे दुनिया अब बोले, तालिबान को मुर्दाबाद।
नर-नारी-अधिकार मुल्क में, फौरन हो जाए आबाद।
लोकतंत्र की खुशबू फैले, दुनिया के हर देश में।
दमन न हो औरत-बच्चों का, किसी धर्म के भेष में।
आज ज़रूरत है हम सबको, ऐसे एक जहान की।
जूझ रही आदमखोरों से, हर औरत अफगान की।
नादानों को कहाँ सूझती हैं बातें कुछ ज्ञान की।।
गिरीश पंकज