साल 1950 में डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने बतौर पहले राष्ट्रपति कार्यभार संभाला था। राष्ट्रपति बनने के बाद भी राजेंद्र प्रसाद का ज्यादातर समय पटना के सदाकत आश्रम में बितता। इस दौरान भोजपुरी समाज के कई लोग उनसे मिलने आते। इन्हीं मुलाकातों के दौरान किसी ने राजेंद्र प्रसाद से कहा कि बॉलीवुड में इतनी सारी सामाजिक मुद्दों पर अलग-अलग भाषाओं में फिल्में बनती हैं तो क्या भोजपुरी में कोई फिल्म रिलीज नहीं की जा सकती है। यह बात राजेंद्र प्रसाद के मन में बैठ गई। राजेंद्र प्रसाद जब मुंबई एक कार्यक्रम में गए तो उनकी मुलाकात नाजिर हुसैन से हुई। नाजिर हुसैन ने भी राजेंद्र प्रसाद के सामने भोजपुरी फिल्म बनाने की बात कही। देश के पहले राष्ट्रपति ने नाजिर हुसैन को पहली भोजपुरी फिल्म बनाने का जिम्मा सौंप दिया। साथ ही राजेंद्र प्रसाद ने आश्वासन दिया कि फिल्म निर्माण में किसी भी किस्म की मदद की जरूरत होगी तो वह उसके लिए तैयार हैं।
बिहार के रहने वाले नाजिर हुसैन के सामने पहली भोजपुरी फिल्म बनाने में सबसे बड़ी चुनौती पैसों की थी। इसी बीच उनकी मुलाकात स्टूडियो और सिनेमा हॉल का कारोबार करने वाले कारोबारी विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी से हुई। नाजिर हुसैन और विश्वनाथ प्रसाद के बीच हुई कई दौर की बातचीत में तय हुआ कि पहली भोजपुरी फिल्म डायरेक्ट करने का जिमा विमल रॉय को सौंपा जाए, लेकिन बात नहीं बन पाई। इसके बाद डायरेक्शन के काम के लिए कुंदन कुमार को फाइनल किया गया।
पहली भोजपुरी फिल्म में संगीत भी यहीं की मिट्टी से जुड़ा हो इसका ख्याल रखने के लिए आरा के रहने वाले संगीतकार शैलेंद्र को फाइनल किया गया। राजेंद्र प्रसाद की सलाह पर फिल्म का मुर्हूत शॉट पटना के शहीद स्मारक में लिया गया। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग बिहटा में हुई। कुछ सीन गोलघर और आरा के रेलवे स्टेशन पर भी शूट किए गए। करीब एक साल में यह फिल्म बनकर तैयार हुई।
उस दौर में अगर किसी फिल्म में लता मंगेशकर के गाए गाने नहीं होते तो उसकी सफलता की गारंटी कम हो जाती थी। फिल्म निर्माताओं के कहने पर राजेंद्र प्रसाद ने खुद लता मंगेशकर से अनुरोध किया कि वह फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ के गाने में अपनी आवाज दें। राजेंद्र प्रसाद के अनुरोध को लता मंगेशकर टाल नहीं पाईं और उन्होंने फिल्म का टाइटल सॉन्ग गाया।