अध्यात्म
आज की कड़ी में ‘सप्तशती के पाठ विधि, मंत्र को पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है | जगज्जननी माँ भगवती श्री दुर्गा जी की कृपा से एवं गुरु जी श्री संकर्षण शरण जी के आशीर्वचनों से वही सप्तशती संक्षिप्त पाठ-विधिसहित पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है। इसमें कथा-भाग तथा अन्य बातें वे ही हैं, जो श्री दुर्गा सप्तशती एवं ‘कल्याण’ के विशेषाङ्क ‘संक्षिप्त मार्कण्डेय ब्रह्मपुराणाङ्क’ में प्रकाशित हो चुकी हैं।  वही सप्तशती भाग एक के क्रम में संक्षिप्त पाठ विधि विधान सहित एवं अर्थ श्लोक सहित दुर्गा जी की महिमा को प्रति दिन दैनिक हिन्द मित्र के वेबसाइट https://dainikhindmitra.com/ पर पाठकों के लिए प्रस्तुत करने का एक प्रयास है ।
पाठविधिः 
साधक स्नान करके पवित्र हो आसन-शुद्धि की क्रिया सम्पन्न करके शुद्ध आसन पर बैठे; साथ में शुद्ध जल, पूजन सामग्री और श्री दुर्गा सप्तशती की पुस्तक रखे। पुस्तक को अपने सामने काष्ठ आदि के शुद्ध आसन पर विराजमान कर दे। ललाट में अपनी रुचि के अनुसार भस्म, चन्दन अथवा रोली लगा ले, शिखा बाँध ले; फिर पूर्वाभिमुख होकर तत्त्व-शुद्धि के लिये चार बार आचमन करे। उस समय अग्राङ्कित चार मन्त्रोंको क्रमशः पढ़े-
ॐ ऐं आत्मतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।
ॐ ह्रीं विद्यातत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ।।
ॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा । 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्वतत्त्वं शोधयामि नमः स्वाहा ॥
तत्पश्चात् प्राणायाम करके गणेश आदि देवताओं एवं गुरुजनों को प्रणाम करे; फिर ‘पवित्रेस्थो वैष्णव्यौ’ इत्यादि मन्त्र से कुश की पवित्री धारण करके हाथ में लाल फूल, अक्षत और जल लेकर निम्नाङ्कित रूपसे संकल्प करे-
ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः । ॐ नमः परमात्मने, श्रीपुराणपुरुषोत्तमस्य श्रीविष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्याद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्द्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वत मन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे प्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गतब्रह्मावर्ते
इस प्रकार प्रतिज्ञा (संकल्प) करके देवीका ध्यान करते हुए पञ्चोपचार की  विधिसे पुस्तककी पूजा करे, योनिमुद्राका प्रदर्शन करके भगवतीको प्रणाम करे, फिर मूल नवार्णमन्त्रसे पीठ आदिमें आधारशक्तिकी स्थापना करके उसके ऊपर पुस्तकको विराजमान करे। इसके बाद शापोद्धार करना चाहिये । इसके अनेक प्रकार हैं। ‘ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं क्रां क्रीं चण्डिकादेव्यै शापनाशानुग्रहं कुरु कुरु स्वाहा’ – इस मन्त्रका आदि और अन्तमें सात बार जप करे। यह शापोद्धार मन्त्र कहलाता है। इसके अनन्तर उत्कीलन मन्त्रका जप किया जाता है। इसका जप आदि और अन्त में  इक्कीस इक्कीस बार होता है। यह मन्त्र इस प्रकार है- ‘ॐ श्रीं क्लीं ह्रीं सप्तशति चण्डिके उत्कीलनं कुरु कुरु स्वाहा।’ इसके जपके पश्चात् आदि और अन्तमें सात-सात बार मृतसंजीवनी विद्याका जप करना चाहिये, जो इस प्रकार है- ‘ॐ ह्रीं ह्रीं वं वं ऐं ऐं मृतसंजीवनि विद्ये मृतमुत्थापयोत्थापय क्रीं ह्रीं ह्रीं वं स्वाहा।’ मारीचकल्पके अनुसार सप्तशती-शापविमोचनका मन्त्र यह है— ‘ॐ श्रीं श्रीं क्लीं हूं ॐ है क्षोभय मोहय उत्कीलय उत्कीलय उत्कीलय ठं ठं।’ इस मन्त्रका आरम्भमें ही एक सौ आठ बार जप करना चाहिये, पाठके अन्तमें नहीं। अथवा रुद्रयामल महातन्त्रके अन्तर्गत दुर्गाकल्पमें कहे हुए चण्डिका-शाप-विमोचन मन्त्रोंका आरम्भ में ही पाठ करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं –
ॐ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमो
ॐ (ह्रीं) रीं रेतःस्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १ ॥ 
ॐ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ २ ॥ 
ॐ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ।। ३ ।। 
ॐ भुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ४ ॥ 
ॐ छांछायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ५ ॥ 
ॐ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ६ ॥ 
ॐ तूं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्र शापाद् विमुक्ता भव ॥ ७ ॥ 
ॐ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ८ ॥ 
ॐ जां जातिस्वरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ९ ॥ 
ॐ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १० ॥ 
ॐ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ ११ ॥
 ॐ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफलदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १२ ॥ 
ॐ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १३ ॥ 
ॐ मां मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमसहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १४ ।। 
ॐ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ।। १५ ।।
 ॐ ऐं ह्रीं क्लीं नमः शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठ विश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १६ ॥ 
ॐ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फट् स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद् विमुक्ता भव ॥ १७ ।। 
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीस्
इत्येवं हि महामन्त्रान् पठित्वा परमेश्वर । चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादव न संशयः ॥ १९ ।।
 न एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति यः । आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशयः ।। २० ।।
इस प्रकार शापोद्धार करनेके अनन्तर अन्तर्मातृका-बहिर्मातृका आदि न्यास करे, फिर श्रीदेवीका ध्यान करके रहस्यमें बताये अनुसार नौ कोष्ठोंवाले यन्त्रमें महालक्ष्मी आदिका पूजन करे, इसके बाद छः अङ्गासहित दुर्गासप्तशतीका पाठ आरम्भ किया जाता है । कवच, अर्गला, कीलक और तीनों रहस्य – ये ही सप्तशतीके छः अङ्ग माने गये हैं। इनके क्रममें भी मतभेद है। चिदम्बरसंहितामें पहले अर्गला फिर कीलक तथा अन्तमें कवच पढ़नेका विधान है।*
किंतु योगरत्नावलीमें पाठका क्रम इससे भिन्न है । उसमें कवच को बीज, अर्गलाको शक्ति तथा कीलकको कीलक संज्ञा दी गयी है । जिस प्रकार सब मन्त्रोंमें पहले बीजका, फिर शक्तिका तथा अन्तमें कीलक का उच्चारण होता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले कवचरूप बीजका, फिर अर्गलारूपा शक्तिका तथा अन्तमें कीलकरूप कीलक का क्रमशः पाठ होना चाहिये ।  यहाँ इसी क्रमका अनुसरण किया गया है ।
  
 
            

