741 अरब के खनिज के खजाने को पाने के लिए बढ़ाई तालिबान से दोस्ती

 वॉशिंगटन 
अमेरिका ने जब साल 2001 में अफगानिस्तान में अपनी सेना भेजी थी तब वैश्विक अर्थव्यवस्था आज की परिस्थितियों की तुलना में काफी अलग थी। तब न तो टेस्ला जैसी कंपनी थी और न ही आईफोन। हालांकि, अब ये आधुनिक अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा हैं। अब हाईटेक चिप और बड़ी क्षमता वाली बैटरी का जमाना है, जिन्हें बनाने के लिए तरह-तरह के खनिजों की जरूरत है और अफगानिस्तान की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि उसके पास 10 खरब डॉलर यानी करीब 741 खरब रुपये से भी ज्यादा की खनिज संपत्ति है। अगर सही से इस्तेमाल हो तो अफगानिस्तान में दुनिया का सबसे ज्यादा लीथियम रिजर्व भी है। हालांकि, पिछले चार दशकों से युद्ध जैसे हालात का सामना कर रहे अफगानिस्तान को ये खनिज फायदा नहीं दे सके लेकिन अब चीन ने अपनी पैनी नजरें इसपर गड़ा दी हैं और यही कारण है कि वह अंतरराष्ट्रीय दबाव के बावजूद तालिबान संग गलबहियां करने को तैयार है। 

साल 2003 से 2020 के बीच चीनी सेना में सीनियर कर्नल रहे झो बो ने न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार के एक लेख में लिखा, 'अमेरिकी सेना की वापसी के बाद चीन ही काबुल की ज्यादा से ज्यादा जरूरतों को पूरा कर सकता है। तालिबान को मान्यता देने से लेकर अफगान में निवेश तक। इसके एवज में चीन को अफगानिस्तान में बुनियादी ढांचे के विकास का मौका मिल सकता है और साथ में ही अफगान की 10 खरब डॉलर की खनिज संपत्ति तक उसकी पहुंच हो सकती है, जहां तक अभी कोई नहीं पहुंच सकता है।'

अमेरिका ने लगाई बंदिशों की झड़ी
सैनिकों की वापसी के फैसले के बाद भी अमेरिका ने तालिबान पर बंदिशें जारी रखी हैं, बल्कि बढ़ा ही दी हैं। वॉशिंगटन पहले ही अफगानिस्तान की 9.5 अरब डॉलर की संपत्ति को फ्रीज कर चुका है और इसके अलावा आईएमएफ ने भी अफगानिस्तान की आर्थिक मदद रोक दी है। इसमें वह फंड भी शामिल है, जो इसी महीने अफगानिस्तान को मिलने थे लेकिन तालिबान के कब्जे के बाद ऐसा नहीं हुआ। आर्थिक पाबंदियों की वजह से तालिबान कंगाली की स्थिति तक पहुंच सकता है। हालांकि, इस स्थिति में चीन उसके लिए मसीहा बनकर सामने आ सकता है।