काबुल एयरपोर्ट के फोटोग्राफ देखते हुए मानु ने पूछा- ये तालिबान क्या है। जवाब सुनने पर फिर पूछा। क्या ये यहाँ भी आ जाएगा। मैंने कहा- नहीं बेटा, ये हमारे देश में नहीं आ सकता। इतनी दूर बैठी एक छोटी सी लड़की के मन में यह तस्वीरें चिंता पैदा करती हैं तो बिल्कुल आसन्न संकट का सामना कर रही अफगान बेटियों पर क्या गुजर रही होगी, इसकी कल्पना भी हम नहीं कर सकते।
बरसों पहले बर्तोल्त ब्रेख्त ने एक कविता लिखी थी कि जो हँस रहा है उस तक अभी भयानक खबर की बात नहीं पहुँची है। अफगानिस्तान का संकट केवल अफगानियों का संकट नहीं है हम ग्लोबल वर्ल्ड में रहते हैं। इसकी आँच हम तक भी पहुँचेगी, उन तक भी पहुँचेगी जो इसे प्रश्रय दे रहे हैं।
एक नागरिक होने के नाते हम ऐसी स्थिति में क्या कर सकते हैं। कई बार फेसबुक में लिखने में यह हिचक होती है कि लोग कहते हैं कि फेसबुक में लिखकर लोग इतिश्री कर लेते हैं। समस्या के बारे में बड़े-बड़े साल्यूशन भी देते हैं। यह कुछ हद तक सही भी है लोग तो ये भी कह रहे हैं कि भारत को काबुल पर कब्जा कर लेना चाहिए ताकि इस समस्या से निपटा जा सके। समस्या तब होती है जब ऐसी अतार्तिक लोगों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है। ये ऐसे लोग हैं जो शतरंज के खेल में एक प्यादे को निपटाने के लिए अपना वजीर खो देते हैं और आखिर में उनका राजा भी निशाने में आ जाता है।
मुझे लगता है कि एक नागरिक होने के नाते हमें सबसे पहले अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी। सबसे पहले आध्यात्मिकता, ये दुनिया केवल मनुष्यों की नहीं है। पशु-पक्षी और पौधों की भी है। इसे खांचों में, भौगोलिक विभाजनों में देखना ठीक नहीं। फिर दुनिया भर की चिंता क्योंकि हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जो एक दूसरे से पूरी तरह से जकड़ी हुई है। एक ग्लोबल वर्ल्ड आर्डर और इसे बनाये रखने की चिंता हमारा बड़ा सरोकार होना चाहिए। इसके बाद मेरा देश, ये धर्म से बड़ा है। फिर मेरा धर्म जो मुझे नैतिकता के मूल्य सिखाता है। इसके अनुपालन में मैं अपना विवेक नहीं खोऊँ। जो चीज धर्म में अतार्किक लगे, उसे न अपनाऊँ। फिर मेरा परिवार, मेरे दोस्त और आखिर में मैं।
होता यह है कि हम अपनी चिंताओं में इस पिरामिड के उलट में होते हैं। मेरा चिंतन मैं से शुरू होता है। अधिकतर मामलों में परिवार तक सिमट जाता है। कभी धर्म में सिमटता है और कभी राष्ट्र में। अपने स्वार्थों के मुताबिक भी हम इसमें स्विच ओवर करते रहते हैं। जब काबुल में कोई भारतीय संकट का सामना कर रहा है उसी समय कोई भारतीय परिवार मालदीव्ज में पिकनिक के लिए जहाज चढ़ता है वो बेखबर है दुनिया में क्या हो रहा है। कुछ बेखबर हैं और कुछ स्वार्थ से अंधे हैं।
मेरे दिमाग में प्रश्न उठता है कि मैंने अपनी बेटी से क्यों कहा कि यहाँ तालिबान नहीं आयेगा। इसका कारण यह है कि हम भारत हैं हम अमेरिका नहीं, चीन भी नहीं और रुस भी नहीं। हमारे पालिटिशियन आंतरिक मोर्चे पर जैसी भी नीतियाँ रखते हों, विदेशी मोर्चे पर उन्होंने हमेशा गहरी नैतिकता दिखाई है चाहे शास्त्री जी हों, इंदिरा गांधी हों या नरेंद्र मोदी हों। इसका कारण यह है कि जो देश जैसी नीति अख्तियार करता है उसका सिस्टम उसी तरह से तैयार होता है। अमेरिका स्वार्थी देश रहा है और हथियारों को बेचना और दुनिया भर में अशांति पैदाकर अपना दबदबा कायम रखना उसका उद्देश्य है। दुनिया के दूसरे देशों के प्रति जब आप नैतिकता नहीं बरतते तो अपने देश के प्रति भी नैतिकता नहीं बरत सकते, यही वजह है कि ट्रंप के दौर में इतनी बड़ी संख्या में अराजकतावादियों ने सीनेट को घेर लिया।
हम चीन नहीं है जो खुली आँखों से तालिबान की करतूत देखकर भी आँखें मूंदता ही नहीं, उसे अपने हथियार दे देता है शीर्ष पर चढ़ने के लिए। जो त्येन आन मन चौक में हुआ, उसे संगीनों द्वारा दबा दिया गया लेकिन संगीनों से बहुत दिनों तक जनता की आवाज दबाई नहीं जा सकती।
हमारे देश के आध्यात्मिक मूल्य हमें दुनिया का सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र बनाते हैं और हमें अमेरिका या चीन से गुमराह नहीं होना चाहिए जो छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए अपनी बुनियादी वैचारिक नींव कमजोर कर दें जिससे इतने सालों में हमें सशक्त लोकतंत्र बनाया है।
देश को मजबूत बनाना है तो अपने को मजबूत बनाना होगा। शक्ति हासिल करनी होगी और सत्य के रास्ते पर चलना होगा। सलेक्टिव एक्टिविज्म से बचना होगा। हमारे देश में कितने प्रखर विद्वान हैं पत्रकार हैं लेकिन इनमें चुनिंदा लोग ही हैं जो सत्य का संधान करते हैं। हम अपने विवेक से समझ सकते हैं कि इनके भीतर कितना सच है। भारत यदि टिका है तो इन बुद्धिजीवियों की वजह से नहीं, भारत टिका है उन लाखों लोगों की वजह से जो बिल्कुल वैसे ही हैं जो मूल भारतीय चरित्र है मन, वचन और कर्म से एक। मुझे लगता है कि हमें अपनी इन्हीं जड़ों की ओर जाना होगा। वैचारिक रूप से स्वयं को मजबूत करना होगा और जो विवेक का मार्ग हमारे महापुरुषों ने दिखाया है उस पर चलने का।