फूल की माला चढ़ा कर आ गये,
फ़र्ज़ अपना वो निभाकर आ गये।
बात जब उठने लगी अधिकार की,
वो वहीं से मुँह घुमाकर आ गए।
मंच पर भाषण दिया था क्या गजब,
बाद में बातें बनाकर आ गए।
धूल अब हटने लगी थी राह से,
कुछ गए, पत्थर बिछाकर आ गए।
गोलियों की पैरवी से लाभ क्या,
रूप अपना वह दिखाकर आ गए।
शायरी का इल्म उनको है मगर,
फ़र्ज़ अपना वह भुलाकर आ गए।
तालियों की है नहीं परवाह कुछ,
शेर में हम सच सुनाकर आ गए।
… राजेश जैन ‘राही’, रायपुर