वर्ल्ड मीडिया ने भारत को आगाह किया : तालिबान शासन से भारत को रहेगा आतंकि घटनाओं का डर

नई दिल्ली.

अफगानिस्तान में तालिबानी हुकूमत के आने से उसके पड़ोसी देशों पर पड़ने वाले असर को लेकर वर्ल्ड मीडिया चिंता जाहिर कर रहा है। अफगानिस्तान के सात पड़ोसी देश हैं- पाकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान, चीन और भारत। तालिबानी हुकूमत का सभी पर अलग-अलग प्रभाव होगा। हम बारी-बारी से सभी को बता रहे हैं।

इसके लिए हमने न्यूयॉर्क टाइम्स, अल-जजीरा, वॉशिंगटन पोस्ट, वॉल स्ट्रीट जनरल, द गॉर्जियन, CNN, द इकोनॉमिस्ट, BBC और न्यूज एजेंसी रॉयटर्स की खबरें पढ़ी हैं।

भारत को रहेगा आतंकि घटनाओं का डर
अल-जजीरा की खबर के अनुसार, तालिबान के उसके पड़ोसी देशों में सबसे बेहतर संबंध पाकिस्तान से हैं। जबकि, तालिबान ने सत्ता में आते ही उज्बेकिस्तान और तजाकिस्तान के बॉर्डर्स सील कर दिए हैं। भारत की ओर से लगातार नागरिकों की रक्षा की तैयारियों का जिक्र करते हुए उसने कंधार कांड की याद दिलाई।

मामला ये था कि 24 दिसंबर 1999, इंडियन एयरलाइंस का विमान नेपाल के काठमांडू से 180 यात्री लेकर दिल्ली के लिए उड़ा, लेकिन दिल्ली पहुंचा नहीं। आतंकियों ने उसे हाईजैक कर लिया। तब उन आतंकियों को अपने यहां उतरने के लिए अफगानिस्तान की तालिबान हुकूमत ने जमीन दी। आतंकियों ने कंधार में विमान उतारा। वहीं से 8 दिन तक भारत के साथ डील करते रहे।

जब भारत मसूद अजहर समेत 3 आतंकी लौटाकर अपने यात्रियों को लेने पहुंचा था तब तालिबानी सैनिकों ने भारतीय सेना को इस तरह से घेर लिया था कि वो कुछ नहीं कर पाए।

अब जब दोबारा अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आ रहा है तो भारत पिछले एक महीने में दो वाणिज्यिक दूतावास समेट चुका है। काबुल में भारतीय दूतावास ने अफगानिस्तान में सभी भारतीयों से आग्रह किया है कि बढ़ते संघर्ष के बीच व्यावसायिक उड़ानें बंद होने से पहले वे तत्काल वहां से निकलने की व्यवस्था कर लें।

अपने लोगों को वापस लाने के लिए भारत ने C17 ग्लोबमास्टर एयरक्राफ्ट भेजा है। इसके अलावा भारत की चिंता अफगानिस्तान में चल रहे 22 हजार करोड़ के प्रोजेक्ट हैं। साथ ही द कनवरसेशन की खबर के अनुसार, अफगान सरकार के साथ मिलकर भारत लगातार पाकिस्तान पर कूटनीतिक बढ़त बनाए हुए था, लेकिन अब पाकिस्तान तालिबान के साथ मिलकर भारत पर कूटनीतिक दबाव बनाएगा।

तालिबान के आने से सबसे अधिक फायदे में पाकिस्‍तान
अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों में पाकिस्तान इकलौता देश है जो वहां तालिबान की हुकूमत से खुश है। पाकिस्तान के उर्दू अखबार ‘नवा-ए-वक्त’ के मुताबिक अफगान नेताओं का एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल सोमवार को पाकिस्तान विदेश मंत्रालय के दफ्तर पहुंचा। विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने उनका स्वागत करते हुए कहा, “हमें अफगानिस्तान और क्षेत्र की बेहतरी के लिए रणनीति विकसित करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।”

हाल ही में राष्ट्रपति अशरफ गनी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के बीच ताशकंद में खुली बहस भी हो गई थी। तब तालिबान ने पाकिस्तान को अपना एक अच्छा पड़ोसी देश बताया था। UN की एक रिपोर्ट दावा करती है कि पाकिस्तान में 30 लाख से अधिक अफगान शरणार्थी रहते हैं। दोनों देशों के बीच 2500 किलोमीटर लंबी सीमा होने के बावजूद कोई बॉर्डर विवाद नहीं है।unnamed 4

तालिबान पर हमला करने जा रहा था ईरान, संबंध सुधारने में लगा 
ईरान कभी नहीं चाहता कि पड़ोसी देश अफगान में तालिबान का शासन हो। इसके पीछे वजह धार्मिक है। इस्लाम में प्रमुख रूप से दो पंथ को मानने वाले लोग हैं- शिया और सुन्नी। ईरान एक शिया बहुल देश है। जबकि तालिबान का उदय ही सुन्नी समुदाय की रक्षा के लिए हुआ है।

इसलिए ईरान और तालिबान में विचारधारा का फर्क है। जब ये लगने लगा कि अब तालिबान सत्ता में आने वाला है तो बीते शुक्रवार को सबसे पहले ईरान ने तालिबान से काबुल और हेरात में मौजूद अपने राजनयिकों और कर्मचारियों की सुरक्षा की गारंटी देने की मांग की थी। दोनों के बीच तल्‍ख रिश्तों की वजह है, 1998 में उत्तरी शहर मजार-ए-शरीफ में तालिबान ने एक ईरानी पत्रकार समेत 8 ईरानी राजनयिकों की हत्या कर दी थी। तब ईरान तालिबान पर हमला करने ही वाला था। फिलहाल इस हालात से उबरने के लिए ईरान तालिबान से संबंध सुधारने में लगा है। जुलाई में ही तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल तेहरान में ईरानी विदेश मंत्री से मिला था, लेकिन फिलहाल अफगानिस्तान के सैनिक तालिबानी लड़ाकों से डरकर ईरान में जाकर शरण ले रहे हैं।

तालिबान ने उज्बेकिस्तान का बॉर्डर सील कर दिया है
अफगानिस्तान में हालात बिगड़ने पर रविवार को राष्ट्रपति अशरफ गनी ने काबुल से उड़ान भरी। ऐसी चर्चा है कि वो उज्बेकिस्तान गए हैं। इससे पहले जुलाई में भी अफगान सैनिक भागकर उज्बेकिस्तान पहुंचे थे। इस देश के लिए यही सबसे बड़ी समस्या है। जुलाई में भी उज्बेकिस्तान ने अफगान सैनिकों को ढूंढ़कर अपने देश से अफगानस्तान वापस भेजा था। साथ ही सीमा पर चौकसी कड़ी कर दी थी। इधर तालिबान ने सत्ता में आने से पहले ही अपने सैनिक लगाकर इस देश की सीमाएं सील कर दी थीं। बीते कुछ दिनों से लगातार बॉर्डर पर तनाव बना हुआ है।

तजाकिस्तान ने बॉर्डर पर अतिरिक्त सैनिक तैनात किए
तजाकिस्तान को तालिबान से सबसे बड़ा खतरा बॉर्डर को लेकर है। तालिबान के आने से शिया समुदाय के लोग लगातार भागकर तजाकिस्तान पहुंच रहे हैं। तालिबान ने अपने सैनिक सीमा पर लगा दिए हैं। दोनों देशों में तनाव की स्थिति है।

इनसे बचने के लिए तजाकिस्तान ने सीमा पर चौकसी बढ़ाते हुए 20 हजार अतिरिक्त सैनिक तैनात कर दिए हैं। यही नहीं, इस देश ने उज्बेकिस्तान से बात कर के आपसी सहयोग भी बढ़ाने की अपील की है। दोनों देशों की सेनाएं साझा सैन्य अभ्यास कर रही हैं, ताकि किसी किस्म की चुनौती के लिए तैयार रहें।

तुर्कमेनिस्तान में गृहयुद्ध का है डर
तुर्कमेनिस्तान ने जून-जुलाई में तालिबान के प्रतिनिधिमंडल को बातचीत के लिए बुलाया था। दरअसल, इस समय ईस्ट तुर्कमेनिस्तान में कई आंदोलन चल रहे हैं। तालिबान उन आंदोलनकारियों के संपर्क में है। अगर तालिबान ने उन्हें मदद कर दी तो इस देश में गृहयुद्ध होने के आसार बढ़ जाएंगे। तुर्कमेनिस्तान ने बीते कुछ महीनों में तुर्की और पाकिस्तान से संपर्क करने की कोशिश की है। ऐसा माना जाता है कि तालिबान के इन दोनों देशों से सबसे अच्छे ताल्लुकात हैं। तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तेयेब अर्दोआन ने हाल ही में एक बयान में कहा, “तालिबान को अपने ही भाइयों की जमीन से कब्जा छोड़ देना चाहिए।”

चीन में फिर सक्रिय हो सकते हैं शिनजियांग के उइगर मुस्लिम
तालिबान हमेशा से उइगर मुस्लिमों के साथ रहा है। दूसरी ओर चीन के शिनजियांग क्षेत्र में रहने वाले उइगर मुस्लिमों को चीन ने आज तक अपनाया नहीं है। चीन हमेशा से उन्हें अल्पसंख्यक और बाहरी मानता है। शिनजियांग क्षेत्र खनिजों से समृद्ध है और भारत, पाकिस्तान, रूस और अफगानिस्तान समेत 8 देशों के साथ सीमा साझा करता है। तालिबान हर हाल में यहां अपनी पकड़ मजबूत करना चाहेगा।

पड़ोसियों के अलावा दुनिया पर तालिबान के आने से ऐसा होगा असर
ब्रिटिश उच्चायुक्त सर जेम्स बेवन का अप्रैल 2014 का एक बयान कुछ लोग ट्विटर पर शेयर रहे हैं। उन्होंने दिल्ली में भाषण देते हुए कहा था- ‘ईश्वर आपको नाग के जहर, बाघ के दांतों और अफगानों के प्रतिशोध से बचाए। अफगानिस्तान कभी भी बाहर वालों के लिए एक आसान जगह नहीं रहा है। ईरानी यह बात जानते थे। रूसियों को भी इस बात का इल्म था।’ यूरोपीय देश लगातार अफगानिस्तान में होने वाली आतंकी गतिविधियों का विरोध करते रहे हैं। अब वे तालिबान के निशाने पर होंगे। इसके अलावा इस्लामिक देशों में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात दुनिया के बड़े सुन्नी देश हैं, जो 1980 से तालिबान के साथ हैं। जब रूस और अफगानिस्तान के बीच लड़ाई जारी थी, तब से सऊदी अफगानिस्तान के साथ है।WhatsApp Image 2021 08 17 at 10.33.28 PM

इसके अलावा कतर एक ऐसा देश है जो अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति में अहम भूमिका निभा रहा है। असल में तालिबान का राजनीतिक दफ्तर कतर के दोहा में ही है। इसी ने अपनी जमीन पर तालिबान को अमेरिका से बातचीत करने के लिए ठिकाना दिया था। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान छोड़ने पर अंतिम फैसला किया था।

भारत आगे क्या करे?

शांति मैरियट डिसूज़ा, कौटिल्य स्कूल ऑफ़ पब्लिक पॉलिसी में प्रोफ़ेसर हैं. अफ़ग़ानिस्तान में उन्होंने काम किया है और उस पर उन्होंने पीएचडी भी की है. बीबीसी से बातचीत में वो कहती हैं, “भारत इस सच्चाई को समझ ले कि अब तालिबान का काबुल पर क़ब्ज़ा हो गया है और जल्द ही अफ़ग़ानिस्तान में वो सत्ता संभालने वाला है. ऐसे में भारत के पास दो रास्ते हैं – या तो भारत अफ़ग़ानिस्तान में बना रहे या फ़िर सब कुछ बंद करके 90 के दशक वाले रोल में आ जाए. भारत दूसरा रास्ता अपनाता है तो पिछले दो दशक में जो कुछ वहाँ भारत ने किया है वो सब ख़त्म हो जाएगा.”

डॉ. डिसूज़ा कहती हैं- मेरी समझ से पहले क़दम के तौर पर भारत को बीच का रास्ता अपनाते हुए तालिबान के साथ बातचीत स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए, ताकि अफ़ग़ानिस्तान के विकास के लिए अब तो जो भारत कर रहा था, उस रोल को (सांकेतिक या कम से कम स्तर पर ) वो आगे भी जारी रख सके.

वो कहती हैं कि सभी भारतीयों को वहाँ से निकालने से आगे चल कर भारत को बहुत ज़्यादा फ़ायदा नहीं होने वाला है. आनन फानन में लिए गए किसी भी फ़ैसले से बहुत भला नहीं होने वाला है.

अपनी बातों के पीछे वो तर्क भी देती हैं. उनके मुताबिक़, “ऐसा इसलिए क्योंकि 15 अगस्त से पहले तक माना जा रहा था कि कोई अंतरिम सरकार अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता पर काबिज़ हो सकती है, लेकिन रविवार के बाद वहाँ की स्थिति बिल्कुल बदल चुकी है. तालिबान के रास्ते में कोई रोड़ा नहीं दिखाई पड़ रहा है. 1990 में जब अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान का राज था और भारत ने अपने दूतावास बंद कर दिए थे उसके बाद भारत ने कंधार विमान अपहरण कांड देखा था, भारत विरोधी गुटों का विस्तार भी भारत ने देखा. 2011 में भारत ने अफ़ग़ानिस्तान के साथ स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट साइन किया था, जिसमें हर सूरत में अफ़ग़ानिस्तान को सपोर्ट करने का भारत ने वादा किया था.”