राजनीतिक
केंद्र और 18 राज्यों में अकेले या सहयोगी दलों के साथ सत्तारूढ़, भारतीय जनता पार्टी के लिए 2022 बड़ी चुनौती का साल साबित हो सकता है। इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव बताएंगे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा की लोकप्रियता का ग्राफ कैसा है। महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दे तो हैं ही, एक साल से ज्यादा चले किसान आंदोलन के बाद तीन कृषि कानून वापस लिए जाने से यह संदेश भी गया है कि आंदोलन की राह सही हो तो सरकार को झुकाया जा सकता है।
इस साल शुरू में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव होने हैं। नवंबर और दिसंबर में हिमाचल प्रदेश और गुजरात की विधानसभा का कार्यकाल खत्म होगा। वैसे तो 2021 में भी पांच राज्यों असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी में चुनाव हुए। इनमें से असम में तो भाजपा वापसी करने में सफल रही लेकिन पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने अपने आप को अधिक मजबूत किया। हालांकि वहां भाजपा भी अपनी सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रही। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भाजपा की मौजूदगी पहले ही कम थी, इसलिए वहां पार्टी को अधिक उम्मीद भी नहीं थी।
लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव इस लिहाज से अलग होंगे कि इस साल जिन सात राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें से छह राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकारें हैं। अगर भाजपा इन राज्यों में फिर सरकार बनाने में कामयाब हुई तो 2024 के आम चुनाव में उसके लिए राह असान हो सकती है।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में साल की शुरुआत में ही चुनाव होने हैं और चुनाव पूर्व सर्वेक्षण पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहे। उत्तर प्रदेश में 2017 में पार्टी को 39.7 फीसदी वोटों के साथ 77 फीसदी सीटें (304) मिली थीं। लेकिन उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं कहा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में जिस तरह से प्रधानमंत्री की ताबड़तोड़ सभाएं की जा रही हैं, उससे भी पार्टी की बेचैनी झलकती है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी लगातार सभाएं कर रहे हैं। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री की 50 से अधिक सभाएं चुनाव के दौरान प्रस्तावित हैं। इससे पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की अहमियत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
उत्तर प्रदेश और पंजाब के नतीजों से यह भी पता चलेगा कि किसान आंदोलन से चर्चा में आए किसान नेताओं का आगे का रूप क्या होगा। पंजाब में कुछ किसान संगठनों के चुनाव लड़ने की घोषणा के बाद पंचकोणीय मुकाबले की तस्वीर बन गई है। भाजपा यहां पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और पुराने अकाली नेताओं के साथ गठबंधन के बाद अपनी मौजूदगी बढ़ाने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसकी समस्या यह है कि कृषि कानूनों के खिलाफ सबसे ज्यादा पंजाब के लोग ही मुखर थे। गुजरात और उत्तराखंड में पार्टी ने सरकार विरोधी माहौल बदलने के लिए मुख्यमंत्री बदले हैं, देखना है कि जनता ने इस बदलाव को स्वीकार किया है या नहीं।
2024 में मोदी और भाजपा का भविष्य काफी हद तक 2022 के नतीजों पर निर्भर करेगा, इसलिए सरकार और विपक्ष के बीच 2021 में संसद के भीतर और बाहर जो कड़वाहट थी, वह 2022 में भी बने रहने के आसार हैं। इसकी एक झलक हाल ही खत्म हुए शीत सत्र में मिल चुकी है।
हिंदुत्ववादी संगठन भी सक्रियता बढ़ा रहे हैं। पिछले दिनों पहले हरिद्वार और फिर रायपुर में धर्म संसद और संत समाज के नाम पर लोगों ने जिस तरह की वाणी का प्रयोग किया, पार्टी के लिए उसका बचाव करना मुश्किल हो गया। हिंदुत्ववादी संगठनों के निशाने पर सिर्फ मुसलमान नहीं बल्कि ईसाई भी हैं। क्रिसमस के मौके पर अनेक जगहों पर प्रार्थना सभाएं रोकी गईं और ईसा मसीह की मूर्ति भी तोड़ी गई। 25 फीसदी ईसाई आबादी वाले गोवा में इसका असर दिख सकता है। चुनावों से पहले ध्रुवीकरण कोई नई बात नहीं, लेकिन देखना है कि यह पुराना आजमाया दांव अब भी कारगर है या नहीं।
कांग्रेस में सक्रियता बढ़ी
कांग्रेस के खिलाफ पिछले दिनों ममता की खेमेबंदी का एक बड़ा असर यह हुआ कि कांग्रेस में सक्रियता बढ़ गई। विपक्ष को साथ रखने की पहल करते हुए कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी ने 14 दिसंबर को कई दलों के नेताओं के साथ बैठक की। हालांकि तृणमूल और आम आदमी पार्टी के नेताओं को आमंत्रित नहीं किया गया था। सोनिया जिनसे मिलीं उनमें एनसीपी के शरद पवार के अलावा माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी, डीएमके नेता टी.आर. बालू, शिवसेना के संजय राउत और नेशनल कांफ्रेंस के फारूक अब्दुल्ला भी शामिल थे।
कांग्रेस इस समय अंदरुनी समस्या से ज्यादा ग्रसित दिख रही है। अध्यक्ष सोनिया बीमार रहती हैं और संगठन को पहले जितना समय नहीं दे पाती हैं। वास्तव में प्रियंका और राहुल गांधी ही फैसले ले रहे हैं। पार्टी के अनेक पुराने नेता उनकी कार्यशैली से असहमत बताए जाते हैं। इस साल पार्टी में संगठन चुनाव होंगे और सितंबर तक नया अध्यक्ष चुना जाएगा। संभव है कि सितंबर में राहुल गांधी फिर अध्यक्ष बनाए जाएं, जब पार्टी कार्यकारिणी के ऐलान के मुताबिक नए अध्यक्ष का चुनाव होना है। 2019 के आम चुनाव के बाद जब उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था, तब नाम लिए बगैर कई पुराने नेताओं के प्रति अपनी नाराजगी जताई थी। उनके इस्तीफा देने का एक कारण यह भी बताया जाता है कि वे पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण चाहते थे।
2003 में पार्टी 15 राज्यों में सत्ता में थी लेकिन अब सिर्फ तीन राज्यों में उसकी सरकार रह गई है। तीन अन्य राज्यों में वह सत्तारूढ़ गठबंधन में है। वैसे, इसे गठबंधन सरकारों का दौर भी कहा जा सकता है। भाजपा जिन 18 राज्यों में सत्ता में है, उनमें से 11 में उसकी गठबंधन की सरकारें हैं।
2019 के आम चुनाव और उसके बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन लगातार खराब रहा है। पिछले साल केरल में एलडीएफ लगातार दूसरी बार सत्ता में आया, जबकि इससे पहले अभी तक एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूडीएफ बारी-बारी से सत्ता में आता रहा है। असम में उसे हार का सामना करना पड़ा तो बंगाल में वह और सिमट गई। 2022 के विधानसभा चुनावों के नतीजों पर निर्भर करेगा कि कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन कितनी आसानी से होता है।
गोवा और उत्तराखंड में उसकी भाजपा के साथ सीधी टक्कर है। हालांकि गोवा में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस के कुछ नेताओं को तोड़ा है, लेकिन इसका चुनाव के नतीजों पर कितना असर होगा यह देखने वाली बात होगी। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण बता रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस की वापसी हो सकती है। हालांकि वहां भी दिनोदिन मुकाबला कड़ा होता जा रहा है। वहां अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद भी पार्टी में गुटबाजी चलती रही। प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी की राह में रोड़ा अटकाने का कोई मौका जाने नहीं दे रहे हैं।
क्या ओम प्रकाश राजभर की भाजपा वापसी हो है
उत्तर प्रदेश चुनाव के ऐलान के साथ ही राजनीतिक गलियारों में एक बार फिर ओम प्रकाश राजभर की भाजपा वापसी की चर्चा चल रही है। दरअसल, इस बात को हवा इसलिए भी मिली क्योंकि बीते दिन राजभर ने भाजपा के दिग्गज नेता से बंद कमरे में बैठक की।
भाजपा नेता दयाशंकर सिंह ने शनिवार को एक बार फिर ओमप्रकाश राजभर से मुलाकात की। हालांकि इन दोनों में क्या बातें हुईं यह सामने नहीं आ पाई है पर कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा ओम प्रकाश राजभर को अपने गठबंधन में फिर से शामिल करना चाहती है। इसलिए दयाशंकर सिंह उनके साथ बार-बार बैठक कर रहे हैं।
इतना ही नहीं भाजपा का सहयोगी दल निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉ. संजय निषाद ने एक प्रेसवार्ता में कहा था कि सुभासपा अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर फिर से साथ आएंगे, इसके लिए प्रयास किया जा रहा है। डॉ. संजय निषाद ने कहा, ” राजभर हमारे भाई हैं। पता नहीं कौन उनका राजनीतिक सलाहकार बन गया है जो बार-बार उनका नुकसान करा दे रहा है। वह हम लोगों के साथ आएंगे, इसके लिए कोशिश की जा रही है।”
बता दें कि राजभर ने भगवा पार्टी से अलग होने से पहले कई शर्तें रखी थी। सबसे बड़ी शर्त यह रखी कि भाजपा पिछड़ी जाति से किसी नेता को सीएम चेहरा बनाए। भाजपा इन मांगों को पूरा करने के लिए आगे आती है तो वह उनके साथ हैं। राजभर ने उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य से भी मुलाकात की थी। इन तमाम घटनाक्रमों को भी गठबंधन की संभावना से जोड़कर देखा जा रहा है।
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