गाँव,गरीब,गोरी और गाय…बलराम सिंह ‘बल्लू-बल’

साहित्य,

मिट्टी के बाड़ों में लकड़ी किवाड़ों में,
कितना मज़ा है गरीबी निवालों में।
कैसे बताएँ तुम्हें नासमझ के,
सुकूँ कैद है संगेमरमर दीवारों में।
कहाँ पे दीये से मकाँ जल गया था,
उलझो नहीं आप ऐसे सवालों में।
कितने बरस तक दिया था किराया,
उलझा रहा मैं हसीना के बालों में।
बेजान सी हो रही ज़िन्दगी, ‘बल’,
बड़ी जान थी गाय के दूध प्यालों में।

-: बलराम सिंह ‘बल्लू-बल’

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